शुभ वर्ष बीस-ग्यारह------- मंगल वर्ष बीस-ग्यारह------- नूतन वर्ष बीस-ग्यारह
नई आशाएं, नयी योजनायें, नये प्रयास, नयी सफ़लता, नया जोश, नई मुस्कान, नया वर्ष बीस-ग्यारह
समृद्धशाली, गौरवपुर्ण, उज्ज्वल, सुखदायक, उर्जावान, विस्मयकारी, स्मृतिपुर्ण नव वर्ष बीस -ग्यारह।
जीवन-मरण की सीमाओं मे बंधा हुआ नगण्य सा प्राणी मानव, काल-चक्र की द्रुतगति मे वीते वर्ष की परिधि बिंदु पर सांस लेता हुआ मानव, कालदेव की इच्छा-मात्र के अनुरूप अपने-अपने कर्तव्य एवम अधिकार के झंझावातों मे उलझा हुआ मानव और अन्य प्राणियों की भांति अपनी लघुतर आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कठिनतम प्रयास करता हुआ मानव का जीवन नव वर्ष बीस ग्यारह मे मंगलमय हो.
कालदेव नव वर्ष बीस ग्यारह के प्रत्येक क्षण आपके मुख-मंडल को दिवसदेव सुर्य की भांति तेजपूर्ण और कोमल पुष्प के समान प्रसन्नचित रखें. समय की धारा तरंगमयी सागर के लहरों की तरह आपके हृदय को तरंगित करें, रात्रि-राजन चंद्रदेव की तरह निर्मल करें, अमृतमयी गंगाजल की भांति पवित्र रखें और मदमस्त निर्झर-जल की भांति निश्छल बनायें--यही मेरी शुभकामनायें हैं.
देवाधिदेव महादेव जो प्रत्येक क्षण व प्रत्येक कण के सतत विनाशक हैं आपके सभी दुख-दर्द को नष्ट कर आपके जीवन के सभी विषों का पाण करें जिससे परमपिता ब्रह्मा नष्ट हुए प्रत्येक रिक्तियों में सुख-समृद्धि की नव-सृष्टि करें साथ ही साथ जग के पालक साक्षात नारायण आपका कल्याण करें. त्रिदेवों के परम आशिर्वाद से नव-वर्ष बीस-ग्यारह में आपके जीवन में एक नयी शक्ति का उदय हो जिसके समक्ष आपकी शारिरिक, मानसिक व आध्यात्मिक दूर्बलतायें स्वतः ही अपना पराभव स्वीकार करे---ये मेरी शुभकामनायें हैं.
दूर क्षितिज पर जहां अनन्त महासागर के तरंगित शीष अनंताकाश के स्थिर पांव का कामुक चुंबन करती है उसी गर्भ-बिन्दु से समस्त उर्जा के वाहक सूर्य के उदय के साथ ही काल चक्र का एक मजबूत स्तंभ विगत वर्ष के रूप में स्वर्णिम अतीत की ममतामयी गोद में समा गया है, उसी तरह निश्चय ही सुखद कालचक्र का अगला दृढ स्तंभ नववर्ष बीस-ग्यारह सभी नूतनताओं को पूरी उर्जा के साथ स्वयं में ज्योति-स्वरूप समेटते हुए आपके समक्ष गौरव-पूर्ण भविष्य के रूप में प्रस्तुत हो रही है जो आपके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ज्योति फ़ैलाकर परम-सुख का निर्माण करे---ऐसी मेरी शुभकामनायें हैं.
निर्मल प्रकृति की प्रचंड शक्ति आपके स्वस्थ शरीर, साकारात्मक गुण , विवेकशील बुद्धि एवं धैर्यपुर्ण आत्मिक बलों में गुणोत्तर वृद्धि करते हुए आपके जीवन में ऐसी दिव्यता प्रदान करे कि स्वतः ही लोभ, स्वार्थ, दुराचार , रोग-व्याधि जैसी नाकारात्मक शक्तियां व दूर्बलतायें आपके मेहान व्यक्तित्व के समक्ष नतमस्तक होवें--यह मेरी सुभकामनायें हैं.
सभी दुख-दर्द एवं अन्य समस्यायें जो प्रकृत के नियम हुआ करते हैं उसमे काल के वक्ष पर आपके कर्मठ हाथों से आरेखित सुचित्र वैधानिक परिवर्तन करते हुए सुखद व सफ़ल परिणति देगी. नया वर्ष बीस ग्यारह आपके जीवन की संभावनाओं को आपके हृदयस्थ आशाओं से कई गुणा अधिक बढाकर आपके जावन में तदनुरुप उपलब्धियों की अमृतमयी वृष्टि करे---यह मेरी शुभकामनायें हैं.
Thursday, December 30, 2010
Tuesday, December 28, 2010
देश की आशा---बाबा रामदेव
हाल ही में हुए बिहार के चुनाव परिणाम निश्चय ही विकास के लिये वोट की कहानी कहती है. यह परिणाम बिहार कि लोगों की समझदारी का पर्याप्त सबूत भी देती है.इस बात का कहीं कोई विरोधाभास नहीं है कि मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार ने भाजपा के सहयोग से विगत पांच वर्षों में अच्छा कार्य किया है. इसी बात को मानते हुए जनमत उनके पक्ष में रही...लेकिन एक दूसरी बात जो बाहर आयी है वह यह है कि केन्द्र की सत्ताधारी पार्टी अर्थात कांग्रेस को बिहार की जनता ने नकार दिया है. बिहार की जनता ने किसी पार्टी विशेष को वोट न देकर "सुशासन" के पक्ष में अपना मत दिया. यही बात देश की राजनीति को एक नयी दिशा देगी.
बहुत हद तक केन्द्रिय सरकार भ्रष्टाचार, मंहगाई, बेरोजगारी, नक्सलवाद,आतंकवाद, गरीबी आदि सभी समस्याओं को हल करने में असफ़ल रही है. वहीं इन मुद्दों पर विपक्ष भी सफ़लतापूर्वक अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं कर पा रही है. विशेषकर भ्रष्टाचार तो दीमक की तरह लगता है पूरे देश को खोखला कर के ही दम लेगी. इस मामले में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका संदेहास्पद लगती है.
२० वीं सदी की बात करें तो महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानन्द नें तत्कालीन समाज के निर्माण में अपनी भूमिका का जो निर्वाह किया था उसे कोई भी भारतीय कैसे भूल सकता है. राजनीति के शिखर पर होते हुए भी बापू कभी भी राजनीतिज्ञ नहीं रहे उसी तरह स्वामी विवेकानन्द राजनेता नहीं होते हुए भी जनमानस के बीच ख्याति प्राप्त युवा के रूप में प्रतिष्ठित बने रहे. इन दोनो व्यक्तित्वों की यह खाशियत थी कि वे निस्वार्थ भाव से जनमानस के प्रति समर्पित रहे और उन्हें तदनुरुप सम्मान भी मिलता रहा.
आज परिस्थितियां उतनी प्रतिकूल नहीं है...पर हां यदि यूं ही नीतिगत भूलें होती रही तो स्थिति बहुत ज्यादा बिगङ भी सकती है. ऐसे में जब सत्ता-पक्ष और विपक्ष दोनों के बीच का अन्तर काफ़ी कम लग रहा है और दोनों जनता जनार्दन के लिये अग्राह्य हो रहे हैं तो निश्चय ही एक आशा की किरण भी दिख रही है. भले ही यह आशा की किरण मीडिया से दूर आस्था और संस्कार चैनल तक ही सिमटी हुई दिख रही है.... लेकिन है वह आशा की किरण जिसके पास भ्रष्टाचार , बेरोजगारी, साम्प्रदायिकता , नक्सलवाद, गरीबी...आदि सभी समस्याओं के समाधान के साथ-साथ राष्ट्र-गौरव ,स्वाभिमान और स्वास्थ की भी चिंतायें है. वह गांधी की तरह निस्वार्थ और विवेकानन्द की तरह मेधावी और तेजपूर्ण है.....हां वह महापुरुष है बाबा रामदेव....शायेद देश की आशा...बाबा रामदेव.
बहुत हद तक केन्द्रिय सरकार भ्रष्टाचार, मंहगाई, बेरोजगारी, नक्सलवाद,आतंकवाद, गरीबी आदि सभी समस्याओं को हल करने में असफ़ल रही है. वहीं इन मुद्दों पर विपक्ष भी सफ़लतापूर्वक अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं कर पा रही है. विशेषकर भ्रष्टाचार तो दीमक की तरह लगता है पूरे देश को खोखला कर के ही दम लेगी. इस मामले में सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका संदेहास्पद लगती है.
२० वीं सदी की बात करें तो महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानन्द नें तत्कालीन समाज के निर्माण में अपनी भूमिका का जो निर्वाह किया था उसे कोई भी भारतीय कैसे भूल सकता है. राजनीति के शिखर पर होते हुए भी बापू कभी भी राजनीतिज्ञ नहीं रहे उसी तरह स्वामी विवेकानन्द राजनेता नहीं होते हुए भी जनमानस के बीच ख्याति प्राप्त युवा के रूप में प्रतिष्ठित बने रहे. इन दोनो व्यक्तित्वों की यह खाशियत थी कि वे निस्वार्थ भाव से जनमानस के प्रति समर्पित रहे और उन्हें तदनुरुप सम्मान भी मिलता रहा.
आज परिस्थितियां उतनी प्रतिकूल नहीं है...पर हां यदि यूं ही नीतिगत भूलें होती रही तो स्थिति बहुत ज्यादा बिगङ भी सकती है. ऐसे में जब सत्ता-पक्ष और विपक्ष दोनों के बीच का अन्तर काफ़ी कम लग रहा है और दोनों जनता जनार्दन के लिये अग्राह्य हो रहे हैं तो निश्चय ही एक आशा की किरण भी दिख रही है. भले ही यह आशा की किरण मीडिया से दूर आस्था और संस्कार चैनल तक ही सिमटी हुई दिख रही है.... लेकिन है वह आशा की किरण जिसके पास भ्रष्टाचार , बेरोजगारी, साम्प्रदायिकता , नक्सलवाद, गरीबी...आदि सभी समस्याओं के समाधान के साथ-साथ राष्ट्र-गौरव ,स्वाभिमान और स्वास्थ की भी चिंतायें है. वह गांधी की तरह निस्वार्थ और विवेकानन्द की तरह मेधावी और तेजपूर्ण है.....हां वह महापुरुष है बाबा रामदेव....शायेद देश की आशा...बाबा रामदेव.
Sunday, December 12, 2010
चांद को थोङी गुमां तो होगी ही.
क्योंकि बैठा है आसमानों पर चांद को थोङी गुमां तो होगी ही.
करती रौशन है वो जमाने को हाल फ़िर खुशनुमा तो होगी ही.
मेरा तो दिल है एक समन्दर सा आग होता नहीं है इस दिल में
उसके दिल में है आग की लपटें फ़िर भी थोङी धुआं तो होगी ही.
खुद से मैं पूछता ही रहता हूं , कितनी चाहत है उसके सीने में
वो तो चुपचाप रहा करती है , आंखों में कुछ जुबां तो होगी ही.
मैं तो खुद पर यकीं नहीं करता फ़िर भी उसपर मुझे भरोसा है
रहती है वो सफ़ेद चादर में , पर दाग भी बदनुमा तो होगी ही.
भीङ में होकर भी कितना तनहा हूं तेरी चाहत ही मेरा साथी है
तू भी रहती अकेली हो घर में , पर कोई रहनुमा तो होगी ही
करती रौशन है वो जमाने को हाल फ़िर खुशनुमा तो होगी ही.
मेरा तो दिल है एक समन्दर सा आग होता नहीं है इस दिल में
उसके दिल में है आग की लपटें फ़िर भी थोङी धुआं तो होगी ही.
खुद से मैं पूछता ही रहता हूं , कितनी चाहत है उसके सीने में
वो तो चुपचाप रहा करती है , आंखों में कुछ जुबां तो होगी ही.
मैं तो खुद पर यकीं नहीं करता फ़िर भी उसपर मुझे भरोसा है
रहती है वो सफ़ेद चादर में , पर दाग भी बदनुमा तो होगी ही.
भीङ में होकर भी कितना तनहा हूं तेरी चाहत ही मेरा साथी है
तू भी रहती अकेली हो घर में , पर कोई रहनुमा तो होगी ही
Thursday, December 9, 2010
हां मैं कंडोम बेचता हूं.
यौन-रण में वीर जैसा
मैं भी होता हूं स्खलित
जानवर जैसा ही कामुक
उनके जैसा ही पतित
एड्स से सबको बचाने
बिंदास कंडोम बोलता हूं.
हां मैं कंडोम बेचता हूं.
है जिन्दगी लंबी बहुत
रोटी सबकी है जरुरत
प्यार -मोहब्बत -सेक्स
तो है इंसां कि फ़ितरत
तेरे जैसा अश्लील मैं भी
कविदिल की राज खोलता हूं
हां मैं कंडोम बेचता हूं.
लानत है उस लेखनी पर
जो कलम सच को न उगले
काम गर आजाद हो तो
एड्स दुनियां को न उगले
कंडोम लगा मैं काम के लिये
निर्भय अवसर ढूंढता हूं
हां मैं कंडोम बेचता हूं.
मैं भी होता हूं स्खलित
जानवर जैसा ही कामुक
उनके जैसा ही पतित
एड्स से सबको बचाने
बिंदास कंडोम बोलता हूं.
हां मैं कंडोम बेचता हूं.
है जिन्दगी लंबी बहुत
रोटी सबकी है जरुरत
प्यार -मोहब्बत -सेक्स
तो है इंसां कि फ़ितरत
तेरे जैसा अश्लील मैं भी
कविदिल की राज खोलता हूं
हां मैं कंडोम बेचता हूं.
लानत है उस लेखनी पर
जो कलम सच को न उगले
काम गर आजाद हो तो
एड्स दुनियां को न उगले
कंडोम लगा मैं काम के लिये
निर्भय अवसर ढूंढता हूं
हां मैं कंडोम बेचता हूं.
Monday, December 6, 2010
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१५ (व्यंग्य)
मैंने कहा----"मैं........कुत्ते की तरह भौंक रहा था...? " वह मुस्कुरते हुए बोली----" और नहीं तो क्या....मां कहती है औरतों का जीवन उसी दिन सफ़ल माना जाता है जिस दिन उसका पति कुत्तों की तरह भौंकने लगे...क्योंकि बार्किंग डोग सेल्डम बाइट इफ़ ही बार्क्स ही विल नोट बिट यू. नाव यू आर सेफ़ अन्ड सकसेस्फ़ुल...". मुझसे रहा न गया ----"मुझे पागल मत करो.."
----"मजाक छोङो जी आपने तो सुहागरात में ही कहा था कि आप मेरे प्यार मे पागल हो.."
----" तो...? तो क्या मैं पागल था..?"
-----"नहीं जी, उस दिन तो आपने झूठ बोला था....लेकिन मेरे इतने साल के तपस्या से आज वह बात सच हुई है"
-----"....हां...तब मैं तुम्हारे प्यार में पागल था....और आज...." श्रीमतीजी ने झट से मेरे मुंह पर हथेली रख दी.
-----"कुछ भी मत बोलो मैं जानती हूं कि सभी मर्द महबूबा के प्यार में पागल हो जाते हैं. लेकिन सच का पागल तो वही होता है जो महबूबा से शादी कर लेता है.और एक बार शादी करने के बाद तो वह बेचारा पागल कम्पलीट पागल हो जाता है....पेरफ़ेक्सन आ जाता है.......प्यार में इससे बढकर पागलपन क्या होगा.." अब मुझसे न रहा गया.
-----" देखो..तुम ठीक से बात करो...प्यार की चासनी लगा कर मीठी छुरी से गले मत रेतो....मैं अपनी सुहागरात के हर स्टेटमेंट को वापस लेता हूं क्योंकि वह रात मेरे लाईफ़ की सबसे अशुभ रात थी और तुम मीडिया की तरह उस रात की हर बात को तोङ-मरोङकर पेश करती हो."
----"भला मैं ऐसा क्यों करुंगी."
----" क्योंकि मैं भ्रष्टाचार से पैसे कमाकर भरा हुआ सूटकेश नहीं देता.."
----" भूख लगने पर तो तुम जानवरों का चारा भी खा जाते हो मैं नहीं जानती क्या.."
----" कब खाया मैं जानवरों का चारा...?..कोई यकीन नहीं करेगा...सभी जानते हैं कि मैं कितना ईमानदार हूं.
----" सुहागरात से ही ऐसा बोलते रहे हो...जबकि ये नहीं जानते कि तुम्हारी इमानदारी पर विश्वास करके ही मैंने तुम्हें दिल दिया था.. नेताओं की तरह घरियाली आंसू बहाकर कितने वादे किये थे तुमने....."
------" वादे किये थे तो क्या...."
-------" जानती हूं सारे वादे चुनावी थे....कौन सी तुम्हारी सरकार गिरनेवाली है जो वादे याद रक्खोगे."
वह जोली मूड में थी---ये औरतों का एक विशेष मूड होता है जिसमें वह भीतर से खुश होती है पर बाहर से खुश न होने का नाटक करते हुए एमोशनल अटेक करती है ताकि वह और कुछ हासिल कर सके...ऐसे में यदि पुरुष थोङा भी इधर-उधर करे तो इमोसनल अत्याचार का आरोप लगाती है.
मध्यान्तर----
----"मजाक छोङो जी आपने तो सुहागरात में ही कहा था कि आप मेरे प्यार मे पागल हो.."
----" तो...? तो क्या मैं पागल था..?"
-----"नहीं जी, उस दिन तो आपने झूठ बोला था....लेकिन मेरे इतने साल के तपस्या से आज वह बात सच हुई है"
-----"....हां...तब मैं तुम्हारे प्यार में पागल था....और आज...." श्रीमतीजी ने झट से मेरे मुंह पर हथेली रख दी.
-----"कुछ भी मत बोलो मैं जानती हूं कि सभी मर्द महबूबा के प्यार में पागल हो जाते हैं. लेकिन सच का पागल तो वही होता है जो महबूबा से शादी कर लेता है.और एक बार शादी करने के बाद तो वह बेचारा पागल कम्पलीट पागल हो जाता है....पेरफ़ेक्सन आ जाता है.......प्यार में इससे बढकर पागलपन क्या होगा.." अब मुझसे न रहा गया.
-----" देखो..तुम ठीक से बात करो...प्यार की चासनी लगा कर मीठी छुरी से गले मत रेतो....मैं अपनी सुहागरात के हर स्टेटमेंट को वापस लेता हूं क्योंकि वह रात मेरे लाईफ़ की सबसे अशुभ रात थी और तुम मीडिया की तरह उस रात की हर बात को तोङ-मरोङकर पेश करती हो."
----"भला मैं ऐसा क्यों करुंगी."
----" क्योंकि मैं भ्रष्टाचार से पैसे कमाकर भरा हुआ सूटकेश नहीं देता.."
----" भूख लगने पर तो तुम जानवरों का चारा भी खा जाते हो मैं नहीं जानती क्या.."
----" कब खाया मैं जानवरों का चारा...?..कोई यकीन नहीं करेगा...सभी जानते हैं कि मैं कितना ईमानदार हूं.
----" सुहागरात से ही ऐसा बोलते रहे हो...जबकि ये नहीं जानते कि तुम्हारी इमानदारी पर विश्वास करके ही मैंने तुम्हें दिल दिया था.. नेताओं की तरह घरियाली आंसू बहाकर कितने वादे किये थे तुमने....."
------" वादे किये थे तो क्या...."
-------" जानती हूं सारे वादे चुनावी थे....कौन सी तुम्हारी सरकार गिरनेवाली है जो वादे याद रक्खोगे."
वह जोली मूड में थी---ये औरतों का एक विशेष मूड होता है जिसमें वह भीतर से खुश होती है पर बाहर से खुश न होने का नाटक करते हुए एमोशनल अटेक करती है ताकि वह और कुछ हासिल कर सके...ऐसे में यदि पुरुष थोङा भी इधर-उधर करे तो इमोसनल अत्याचार का आरोप लगाती है.
मध्यान्तर----
Wednesday, December 1, 2010
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१४ (व्यंग्य)
कुत्तों का नसीब तो देखिये कि खूबसूरत मैडम लोग उसे कारों में अपने साथ घुमाती हैं और मुफ़्त में पप्पी भी देती है.अकेले होते हुए भी वह गृहस्थ जीवन का आनन्द उठाता है.आजकल तो ईंसानों में भी कुत्तापन नामका रोग पाया जाने लगा है. जिसमें कुत्तापन जितना ज्यादा वह उतना ही महान, उतना ही बङा और उतना ही उंचा. जिसमें कुत्तापन नहीं है वह बेचारा गरीब बनकर कुत्तों सी जिन्दगी जी रहा है. मुझे तो लगता है जल्दी ही कुत्तो को पूरा सम्मान मिलने लगेगा क्योंकि लगभग सभी क्षेत्रों मे उनका वर्चस्व स्थापित हो रहा है.
आज-कल तो कुत्तों के लिये स्वर्णिम युग चल रहा है. आज यदि शोले जैसी पिक्चर बनायी गयी तो वही वीरू जो कहता था--"कुत्ते मैं तुम्हारा खून पी जाउंगा" अब बदल सा जायेगा. आज तो वीरू भी उतना ही कुत्ता है जितना कि गब्बर और एक कुत्ता कभी भी दूसरे कुत्ता का खून नहीं पीता. आज का वीरू प्यार से कहेगा---" कुत्ते...इधर आओ कुत्ते. बैठो...मेरे पास बैठो. डरो मत मैं कुछ नहीं करुंगा क्योंकि मैं भी तुम्हारी तरह एक आम कुत्ता हूं...तुम्हारे ही जाति का, तुम्हारे ही मजहब का कुत्ता. दल बदल जाने से कुत्ता शेर नहीं हो जाता डरो मत. अब किस बसंती के लिये मैं तुमसे लङूं. अब तो बसंती भी कुतिया बन गयी है. हम कुत्ते तो कमसे कम बफ़ादार होते हैं कुतिया तो अक्सर बेवफ़ा ही होती है. उसके लिये वीरू और गब्बर में क्या फ़र्क...?"
अब तो शोले की जगह हथगोले चलते हैं कुत्तों की तरह जीनेवाले लोग कुत्तों की तरह विचारवान लोगों से लङ रहे है और वह युद्ध-भूमि है नक्सलवाद, मंहगायी, भ्रष्टाचार. मंहगाइ डायन बन चुकी है, भ्रष्टाचार दीमक, आतंकवाद पिशांच बनी हुई है और नक्सलवाद तो सिर्फ़ गले रेतना जानती है. इस सब के चक्कर में आम जनता कुत्तों की तरह जीने के लिये वाध्य है. अब तो स्थिति ऐसी आ चुकी है कि गुरु-शिष्य परम्परा में भी जब चेला गुरू को "कुक्कुराय नमः " कहकर पांव छूएंगे और गुरू "श्वानो भवः " का आशिर्वाद देंगे.अब लङकियां अपने ब्वायफ़्रेंड के बारे में कहा करेंगी---"वो देखने में बहुत ही अच्छा है बिल्कुल कुत्ते की तरह और वह कुत्ते की तरह मुझे प्यार भी बहुत करता है." औरतें अपने पति से कहा करेंगी---"देखोजी मेरा दामाद बिल्कुल कुत्ते की तरह होना चाहिये जैसे तुम हो.." और पति भी अपनी पत्नी को वचन देगा कि चाहे जो भी हो जाये वह कुत्ते की तरह वफ़ादार बना रहेगा.
क्या जमाना आ गया है. शेरों को संरक्षण दिया गया और संख्या बढ रही है कुत्तों की. शेर तो लुप्त होते जा रहे हैं. अब तो जंगलों में भी वह सुरक्षित नहीं है.समाज और साहित्य ने तो शेरों को पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया है. मैं तो कहता हूं बहुमत के आधार पर कुत्ता को राष्ट्रीय पशु का दर्जा दे दिया जाये. हर कोई कुत्तों की तरह भोंकना चालू करे फ़िर तो सबकी मौज है. चलिये खुद से शुरुआत करते है.".....भौं...भौ............" श्रीमतीजी ने बीच में ही टोका----" क्या हो गया जी कुत्ते की तरह भौंक क्यों रहे हैं....मैंने ऐसी कौन सी गलती कर दी जो अपने असली रुप में आ गये ?"
क्रमशः
आज-कल तो कुत्तों के लिये स्वर्णिम युग चल रहा है. आज यदि शोले जैसी पिक्चर बनायी गयी तो वही वीरू जो कहता था--"कुत्ते मैं तुम्हारा खून पी जाउंगा" अब बदल सा जायेगा. आज तो वीरू भी उतना ही कुत्ता है जितना कि गब्बर और एक कुत्ता कभी भी दूसरे कुत्ता का खून नहीं पीता. आज का वीरू प्यार से कहेगा---" कुत्ते...इधर आओ कुत्ते. बैठो...मेरे पास बैठो. डरो मत मैं कुछ नहीं करुंगा क्योंकि मैं भी तुम्हारी तरह एक आम कुत्ता हूं...तुम्हारे ही जाति का, तुम्हारे ही मजहब का कुत्ता. दल बदल जाने से कुत्ता शेर नहीं हो जाता डरो मत. अब किस बसंती के लिये मैं तुमसे लङूं. अब तो बसंती भी कुतिया बन गयी है. हम कुत्ते तो कमसे कम बफ़ादार होते हैं कुतिया तो अक्सर बेवफ़ा ही होती है. उसके लिये वीरू और गब्बर में क्या फ़र्क...?"
अब तो शोले की जगह हथगोले चलते हैं कुत्तों की तरह जीनेवाले लोग कुत्तों की तरह विचारवान लोगों से लङ रहे है और वह युद्ध-भूमि है नक्सलवाद, मंहगायी, भ्रष्टाचार. मंहगाइ डायन बन चुकी है, भ्रष्टाचार दीमक, आतंकवाद पिशांच बनी हुई है और नक्सलवाद तो सिर्फ़ गले रेतना जानती है. इस सब के चक्कर में आम जनता कुत्तों की तरह जीने के लिये वाध्य है. अब तो स्थिति ऐसी आ चुकी है कि गुरु-शिष्य परम्परा में भी जब चेला गुरू को "कुक्कुराय नमः " कहकर पांव छूएंगे और गुरू "श्वानो भवः " का आशिर्वाद देंगे.अब लङकियां अपने ब्वायफ़्रेंड के बारे में कहा करेंगी---"वो देखने में बहुत ही अच्छा है बिल्कुल कुत्ते की तरह और वह कुत्ते की तरह मुझे प्यार भी बहुत करता है." औरतें अपने पति से कहा करेंगी---"देखोजी मेरा दामाद बिल्कुल कुत्ते की तरह होना चाहिये जैसे तुम हो.." और पति भी अपनी पत्नी को वचन देगा कि चाहे जो भी हो जाये वह कुत्ते की तरह वफ़ादार बना रहेगा.
क्या जमाना आ गया है. शेरों को संरक्षण दिया गया और संख्या बढ रही है कुत्तों की. शेर तो लुप्त होते जा रहे हैं. अब तो जंगलों में भी वह सुरक्षित नहीं है.समाज और साहित्य ने तो शेरों को पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया है. मैं तो कहता हूं बहुमत के आधार पर कुत्ता को राष्ट्रीय पशु का दर्जा दे दिया जाये. हर कोई कुत्तों की तरह भोंकना चालू करे फ़िर तो सबकी मौज है. चलिये खुद से शुरुआत करते है.".....भौं...भौ............" श्रीमतीजी ने बीच में ही टोका----" क्या हो गया जी कुत्ते की तरह भौंक क्यों रहे हैं....मैंने ऐसी कौन सी गलती कर दी जो अपने असली रुप में आ गये ?"
क्रमशः
Monday, November 29, 2010
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१३ (व्यंग्य)
गुस्से से ही सही मेरे हिसाब से डाक्टर साहब ने दवा बता ही दिया था. मैं खुशी से उछलते हुए वापस आने लगा. तभी डाक्टर साहब बोले-----"ज्यादा उछलो मत. मैं अपनी पत्नी पर सभी विषाणु और विष विरोधी दवाओं का प्रयोग कर चुका हूं. इससे मर्ज और बढ ही जाता है.". क्षण भर में ही मेरी खुशी गहरे दुख में तब्दील हो गयी. मैं भाव विभोर होकर सासू मां की वह कविता गाने लगा---दिवाली नागिन चंद्रमा
दिन प्रकाश आग
शाम को परेशान होकर चुप-चाप घर आया तो श्रीमतीजी ने पूछ ही दिया---" कहां घूम रहे थे तीन घंटे से ?" मेरे मुंह से सिर्फ़ इतना निकल पाया---"वैसे ही ".तभी सासूमां ने श्रीमतीजी के कानों में हल्की सी फ़ूंक मारी. मैं सिर्फ़ "दिमाग" शब्द ही सुन पाया. उस शब्द के सफ़िक्स और प्रीफ़िक्स के बारे में अनुमान लगाकर सोच में पङ गया.
कुछ देर के बाद साबूदाने जैसी होम्योपेथिक दवा की गोलियां बिना गिने हुए खाकर सो गया. ऐसे समय में जब काफ़ी टेंशन में होता हूं होम्योपेथिक दवा ही लेता हूं क्योंकि होम्योपेथिक चिकित्सा यदि स्वास्थ मे सुधार नहीं लाती तो बिगाङती भी नहीं है. कहते हैं कोम्युनिज्म की तरह होम्योपैथ भी रसिया, जर्मनी और चायना से भारत आया और इसका प्रभाव भी एक जैसा ही है. एक ने देश की राजनीति को मारा तो दूसरे ने आम आदमी के स्वास्थ को कभी सुधरने नहीं दिया. तभी तो विपक्ष की पार्टी विशुद्ध भारतीय आयुर्वेदिक लक्ष्मण बुटी खाकर राम-लक्ष्मण के मंदिर बनाती फ़िरती है और सत्ताधारी दल इटली से मंगाकर मंहगे एलोपेथिक दवा खा-खाकर देश चला रही है.जिस सिस्टम को लकवा मार चुकी है उसी पोलियो की खुराक पिला रही है. छोटे- छोटे घाव को भी ओपरेशन से ही ठीक करती है. पहले छोटा ओपरेशन फ़िर बङा ओपरेशन. यदि मरीज थीक नहीं हुआ तो बिमारी के बदले रोगी को ही उपर पहुंचा देती है. आजकल देश में ऐसी ही इटालियन एलोपेथी चल रही हैं.
लेकिन मेरी समस्या दूसरी थी. यह राष्ट्रीय होते हुए भी घरेलू समस्या थी.जबकि मंहगाई, बेरोजगारी, जमाखोरी, मिलावट...आदि घरेलू समस्या भी राष्ट्रीय पहचान बना चुकी है. खैर मेरे लिये तो मेरी पत्नी के कानों में पङनेवाली सासू मां की फ़ूंक सभी राष्ट्रीय समस्याओं से भी जटिल थी.लेकिन चिंतन के सिवा कोई रास्ता भी नहीं बचा था. मेरी आत्मा रो-रोकर कह रही थी कि शिघ्र ही मेरे ससुरालवालों के चलते मेरे जीवन में भू-चाल आनेवाला था.तभी अचानक मेरे सामने पङी टेबुल हिलने लगी----"कितनी देर से चिल्ला रही हूं कहां खोए रहते हो..?"-----श्रीमतीजी की रोबदार आवाज ने भूचाल तो ला ही दिया था. अब भूमिगत होने तक ऐसे भूचाल तो आते ही रहेंगे. लगता है जिस दिन शिव-लिंग के समक्ष विवाह किया उसी दिन ब्रह्माजी ने श्वान-लिंग से मेरा भाग्य लिखा था.न न न...ब्रह्माजी ब्रह्मचारी होकर ऐसे गिरे हुए गृहस्थ जीवन की कल्पना कैसे कर सकते हैं ?. हो सकता है किसी कुत्ते के साथ मेरा भाग्य लेख अदला-बदली हो गयी हो. तभी तो विवाहित होते हुए भी कुत्तों सा जीवनजी रहा हूं और कुत्ते जन्नत की सैर कर रहे हैं.
क्रमशः
दिन प्रकाश आग
शाम को परेशान होकर चुप-चाप घर आया तो श्रीमतीजी ने पूछ ही दिया---" कहां घूम रहे थे तीन घंटे से ?" मेरे मुंह से सिर्फ़ इतना निकल पाया---"वैसे ही ".तभी सासूमां ने श्रीमतीजी के कानों में हल्की सी फ़ूंक मारी. मैं सिर्फ़ "दिमाग" शब्द ही सुन पाया. उस शब्द के सफ़िक्स और प्रीफ़िक्स के बारे में अनुमान लगाकर सोच में पङ गया.
कुछ देर के बाद साबूदाने जैसी होम्योपेथिक दवा की गोलियां बिना गिने हुए खाकर सो गया. ऐसे समय में जब काफ़ी टेंशन में होता हूं होम्योपेथिक दवा ही लेता हूं क्योंकि होम्योपेथिक चिकित्सा यदि स्वास्थ मे सुधार नहीं लाती तो बिगाङती भी नहीं है. कहते हैं कोम्युनिज्म की तरह होम्योपैथ भी रसिया, जर्मनी और चायना से भारत आया और इसका प्रभाव भी एक जैसा ही है. एक ने देश की राजनीति को मारा तो दूसरे ने आम आदमी के स्वास्थ को कभी सुधरने नहीं दिया. तभी तो विपक्ष की पार्टी विशुद्ध भारतीय आयुर्वेदिक लक्ष्मण बुटी खाकर राम-लक्ष्मण के मंदिर बनाती फ़िरती है और सत्ताधारी दल इटली से मंगाकर मंहगे एलोपेथिक दवा खा-खाकर देश चला रही है.जिस सिस्टम को लकवा मार चुकी है उसी पोलियो की खुराक पिला रही है. छोटे- छोटे घाव को भी ओपरेशन से ही ठीक करती है. पहले छोटा ओपरेशन फ़िर बङा ओपरेशन. यदि मरीज थीक नहीं हुआ तो बिमारी के बदले रोगी को ही उपर पहुंचा देती है. आजकल देश में ऐसी ही इटालियन एलोपेथी चल रही हैं.
लेकिन मेरी समस्या दूसरी थी. यह राष्ट्रीय होते हुए भी घरेलू समस्या थी.जबकि मंहगाई, बेरोजगारी, जमाखोरी, मिलावट...आदि घरेलू समस्या भी राष्ट्रीय पहचान बना चुकी है. खैर मेरे लिये तो मेरी पत्नी के कानों में पङनेवाली सासू मां की फ़ूंक सभी राष्ट्रीय समस्याओं से भी जटिल थी.लेकिन चिंतन के सिवा कोई रास्ता भी नहीं बचा था. मेरी आत्मा रो-रोकर कह रही थी कि शिघ्र ही मेरे ससुरालवालों के चलते मेरे जीवन में भू-चाल आनेवाला था.तभी अचानक मेरे सामने पङी टेबुल हिलने लगी----"कितनी देर से चिल्ला रही हूं कहां खोए रहते हो..?"-----श्रीमतीजी की रोबदार आवाज ने भूचाल तो ला ही दिया था. अब भूमिगत होने तक ऐसे भूचाल तो आते ही रहेंगे. लगता है जिस दिन शिव-लिंग के समक्ष विवाह किया उसी दिन ब्रह्माजी ने श्वान-लिंग से मेरा भाग्य लिखा था.न न न...ब्रह्माजी ब्रह्मचारी होकर ऐसे गिरे हुए गृहस्थ जीवन की कल्पना कैसे कर सकते हैं ?. हो सकता है किसी कुत्ते के साथ मेरा भाग्य लेख अदला-बदली हो गयी हो. तभी तो विवाहित होते हुए भी कुत्तों सा जीवनजी रहा हूं और कुत्ते जन्नत की सैर कर रहे हैं.
क्रमशः
Friday, November 26, 2010
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१२ (व्यंग्य)
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१२ (व्यंग्य)
उनकी काव्य-प्रतिभा का यह मामुली उदाहरण था.दीवाली की रात जब मेरी सासू मां ने अपनी बेटी के कानों में फ़ूंक मारा उसी वक्त मां लक्ष्मी मेरे घर से रूठकर चली गयी. अब चुंकी मां लक्ष्मी का फ़्लाइट इमानदारों के घर दीवाली के र्प्ज ही लैंड करता है इसलिये सोच लिया हूं कि आगामी दिवाली सासू मां या श्रीमतीजी में से किसी एक के साथ ही मनाउंगा...क्योंकि लगातार दो बार यदि लक्ष्मी मैया घर से रूठकर लौटीं तो अगली बार से हर बार दिवाली के दिन वह अपना फ़्लैट कैंसिल कर लिया करेंगी.वैसे उस दिवाली की रात जो आधी बात मैंने सुनीं उसे कविता की तरह लिख तो लिया पर समझ न पाया. हां इतना कन्फ़र्म था कि मामला पारिवारिक नहीं है.यह बात इतिहास या विज्ञान से भी नहीं था.यह चाहे भूगोल या फ़िलोस्फी से हो सकता था. अतः किसी भी तरह से पूछना अनुचित नहीं था. कविता ऐसे बनी थी------दिवाली...नागिन...चंद्रमा
दिन...प्रकाश......आग
लजाते हुए शिष्टतापूर्वक श्रीमतीजी से पूछा कि मेरी सासू मां के मुखारबिन्दु से उनकी सुकर्णों किस प्रकार की अमृतवर्षा की गयी थी तो शब्दार्थ ये समझाया गया कि....दिवाली की रात नागिन की तरह काली होती है जिसमें चंद्रमा भी नहीं दिखते जबकि दिन में प्रकाश फ़ैला होता है जिसे आग की तरह जलनेवाला सूर्य पैदा करता है. इसे शब्दार्थ के बदले गद्यानुवाद समझा जाये. भावार्थ मैं आज तक नहीं समझ पाया आप कहां से समझेंगे. उनके फ़ूंक का भावार्थ समझने का प्रयास भी मत कीजिये. मैं यह सोचकर कि बहुत गूढ भावार्थ रहा होगा आज तक शोध करता रहा हूं. जितना अर्थ निकालता हूं उतना ही पागल होता जा रहा हूं. औरतों का इतिहास, मनोविज्ञान और सौन्दर्य-दर्शन का खाक छानने पर भी इस मामले में कुछ भी हाथ नहीं लगता. बस यूं समझ लीजिये मां बेटी का संबंध एक पुल की तरह होता है जिसपर हर समय दामाद नामका वाहन चक्कर लगाता रहता है.पुल उसे पानी में डूबने नहीं देती पर तट पर पहुंचने भी नहीं देती.
मैं इस फ़ूंक से सचमुच परेशान था. सोचा डाक्टर महेश सिन्हा के पास जाना चाहिये.डा.साहब ने कहा----"आपकी समस्या बहुत ही जटिल लगती है.". मेरा जवाब था---" डा. साहब पारिवारिक समस्या सबके पास होता है जिसका काफ़ी जटिल होता है वही आपके पास आता है.". वह कहने लगे " वैसे मैं पेशे से लोगों को निश्चेत किया करता हूं लेकिन आपको सचेत कर रहा हूं आपकी समस्या काफ़ी अनोखा है...". मैंने झट से कहा---"इतना अनोखा है कि मुझे भी अनोखा बना दिया है "..वह गंभीर हो गये, बोले---" मुझे लगता है उस फ़ूंक में ही विषाणु (वायरस) है "मेरे मुह से निकल पङा---"उसी का तो गोली लेने आया हूं" पता नहीं क्यों वह गुस्सा गये---"जब सबकुछ जानते हो जाओ दवा की दुकान से जाकर खरीद लो, मेरे पास क्यों आये..?" मैंने उत्तर दिया----"उस गोली का नाम...." वह बीच में ही बोल पङे---" चुप रहो क्या समझते हो जिस समस्या को सुनकर मैं नहीं सुलझा पा रहा हूं..तुम सुलझा चुके हो..? इतने समझदार हो गये हो तुम..?...फ़िर तो दवा की दुकान से खरीद लो." मुझे लगा अब यदि कुछ भी बोलुंगा तो मार बैठेंगे. धीरे धीरे मैं डा. साहब के कक्ष से बाहर निकलने लगा. पर समस्या इतनी जटिल थी कि रहा न गया, पूछ ही दिया---"उस गोली का नाम बता देते तो..." अब डा. साहब क्रोध को स्वयं में समटते हुए कहने लगे-----" कोई भी एन्टी-वायरस या एन्टी-प्वायसन को लेकर अपनी श्रीमतीजी एवं मां जगदम्बा --सासू मां के मुख छिद्र में डाल देना अथवा शरीर के किसी भी मांसल भाग के जरिये किसी बेलनाकार, खोखले व लघु-व्यास वाले धातु निर्मित उपकरण से उनके नसों में प्रविष्ट कर देना......"
क्रमशः
उनकी काव्य-प्रतिभा का यह मामुली उदाहरण था.दीवाली की रात जब मेरी सासू मां ने अपनी बेटी के कानों में फ़ूंक मारा उसी वक्त मां लक्ष्मी मेरे घर से रूठकर चली गयी. अब चुंकी मां लक्ष्मी का फ़्लाइट इमानदारों के घर दीवाली के र्प्ज ही लैंड करता है इसलिये सोच लिया हूं कि आगामी दिवाली सासू मां या श्रीमतीजी में से किसी एक के साथ ही मनाउंगा...क्योंकि लगातार दो बार यदि लक्ष्मी मैया घर से रूठकर लौटीं तो अगली बार से हर बार दिवाली के दिन वह अपना फ़्लैट कैंसिल कर लिया करेंगी.वैसे उस दिवाली की रात जो आधी बात मैंने सुनीं उसे कविता की तरह लिख तो लिया पर समझ न पाया. हां इतना कन्फ़र्म था कि मामला पारिवारिक नहीं है.यह बात इतिहास या विज्ञान से भी नहीं था.यह चाहे भूगोल या फ़िलोस्फी से हो सकता था. अतः किसी भी तरह से पूछना अनुचित नहीं था. कविता ऐसे बनी थी------दिवाली...नागिन...चंद्रमा
दिन...प्रकाश......आग
लजाते हुए शिष्टतापूर्वक श्रीमतीजी से पूछा कि मेरी सासू मां के मुखारबिन्दु से उनकी सुकर्णों किस प्रकार की अमृतवर्षा की गयी थी तो शब्दार्थ ये समझाया गया कि....दिवाली की रात नागिन की तरह काली होती है जिसमें चंद्रमा भी नहीं दिखते जबकि दिन में प्रकाश फ़ैला होता है जिसे आग की तरह जलनेवाला सूर्य पैदा करता है. इसे शब्दार्थ के बदले गद्यानुवाद समझा जाये. भावार्थ मैं आज तक नहीं समझ पाया आप कहां से समझेंगे. उनके फ़ूंक का भावार्थ समझने का प्रयास भी मत कीजिये. मैं यह सोचकर कि बहुत गूढ भावार्थ रहा होगा आज तक शोध करता रहा हूं. जितना अर्थ निकालता हूं उतना ही पागल होता जा रहा हूं. औरतों का इतिहास, मनोविज्ञान और सौन्दर्य-दर्शन का खाक छानने पर भी इस मामले में कुछ भी हाथ नहीं लगता. बस यूं समझ लीजिये मां बेटी का संबंध एक पुल की तरह होता है जिसपर हर समय दामाद नामका वाहन चक्कर लगाता रहता है.पुल उसे पानी में डूबने नहीं देती पर तट पर पहुंचने भी नहीं देती.
मैं इस फ़ूंक से सचमुच परेशान था. सोचा डाक्टर महेश सिन्हा के पास जाना चाहिये.डा.साहब ने कहा----"आपकी समस्या बहुत ही जटिल लगती है.". मेरा जवाब था---" डा. साहब पारिवारिक समस्या सबके पास होता है जिसका काफ़ी जटिल होता है वही आपके पास आता है.". वह कहने लगे " वैसे मैं पेशे से लोगों को निश्चेत किया करता हूं लेकिन आपको सचेत कर रहा हूं आपकी समस्या काफ़ी अनोखा है...". मैंने झट से कहा---"इतना अनोखा है कि मुझे भी अनोखा बना दिया है "..वह गंभीर हो गये, बोले---" मुझे लगता है उस फ़ूंक में ही विषाणु (वायरस) है "मेरे मुह से निकल पङा---"उसी का तो गोली लेने आया हूं" पता नहीं क्यों वह गुस्सा गये---"जब सबकुछ जानते हो जाओ दवा की दुकान से जाकर खरीद लो, मेरे पास क्यों आये..?" मैंने उत्तर दिया----"उस गोली का नाम...." वह बीच में ही बोल पङे---" चुप रहो क्या समझते हो जिस समस्या को सुनकर मैं नहीं सुलझा पा रहा हूं..तुम सुलझा चुके हो..? इतने समझदार हो गये हो तुम..?...फ़िर तो दवा की दुकान से खरीद लो." मुझे लगा अब यदि कुछ भी बोलुंगा तो मार बैठेंगे. धीरे धीरे मैं डा. साहब के कक्ष से बाहर निकलने लगा. पर समस्या इतनी जटिल थी कि रहा न गया, पूछ ही दिया---"उस गोली का नाम बता देते तो..." अब डा. साहब क्रोध को स्वयं में समटते हुए कहने लगे-----" कोई भी एन्टी-वायरस या एन्टी-प्वायसन को लेकर अपनी श्रीमतीजी एवं मां जगदम्बा --सासू मां के मुख छिद्र में डाल देना अथवा शरीर के किसी भी मांसल भाग के जरिये किसी बेलनाकार, खोखले व लघु-व्यास वाले धातु निर्मित उपकरण से उनके नसों में प्रविष्ट कर देना......"
क्रमशः
Wednesday, November 24, 2010
मंहगे सोने चांदी के ही तो भाव गिरा करते हैं
तारे गिरकर ही मिट्टी में मिल जाया करते हैं
मंहगे सोने चांदी के ही तो भाव गिरा करते हैं
दुख - दर्द भरी आंखें ही दया की गंगा होती है
दुख में जीनेवालों के ही बुरे-दिन फ़िरा करते हैं
रात की काली चादर पर चांद ही तो सोता है
नागिन सी कारी बदरी से सूर्य घिरा करते हैं
अंधियारों में प्रकाश की किरणें दिख जाती हैं
हरियाली झङ जाते ही पेंङों को विरां करते हैं
बहादुर ही तो सरहद पर मरकर मिट जाते हैं
कायर मिलकर क्रांतिदूत को बे-सिरा करते हैं
मंहगे सोने चांदी के ही तो भाव गिरा करते हैं
दुख - दर्द भरी आंखें ही दया की गंगा होती है
दुख में जीनेवालों के ही बुरे-दिन फ़िरा करते हैं
रात की काली चादर पर चांद ही तो सोता है
नागिन सी कारी बदरी से सूर्य घिरा करते हैं
अंधियारों में प्रकाश की किरणें दिख जाती हैं
हरियाली झङ जाते ही पेंङों को विरां करते हैं
बहादुर ही तो सरहद पर मरकर मिट जाते हैं
कायर मिलकर क्रांतिदूत को बे-सिरा करते हैं
Thursday, November 11, 2010
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-११ (व्यंग्य)
मेरी सासू मां एक दो दिनों में पधारनेवाली हैं. जिस तरह ससुरजी एक्स्ट्रा-ओर्डिनरी हैं उसी तरह वह भी युनिक हैं.सारे गुणों से लबालब भरी हुई हैं. साक्षात देवी का स्वरुप---सर्व गुण सम्पन्न. बस एक ही कमी है जिससे उनके आगमन पर खुशी के बदले डर बना हुआ है. वह किसी नागिन की तरह मेरी श्रीमती जी के कानों में फ़ूंक मारा करती हैं. वह सचमुच मेरे लिये मातृस्वरुपा साक्षात मां लक्ष्मी हैं यदि अपनी बेटी के कानों मे विषैला फ़ूंक डालना बंद कर दें.स्वभावतः वह डंक नहीं मारती और फ़ूंक भी मेरी श्रीमतीजी के लिये कर्ण-प्रिय ही होता है और उनके इस गुण ने मेरे कानों की श्रवन क्षमता भी बढा दिया है.......लेकिन उनकी फ़ूंक के विषैले तत्वों को श्रीमतीजी के कानों की जाली छान नहीं पाती. स्त्री-गुण के कारण भावुक बातें औरतों के दिमाग में नहीं जाती सीधे नोन-रिटर्न वाल्व से होकर दिल में जमा हो जाती है. वही बातें उनकी अनुपस्थिति में श्रीमतीजी के मुखद्वार से निकलकर मेरे जीवन में भू-चाल लाती है. मानो भूखा शेर मांद से निकल रहा हो और शिकार यानी मैं सामने होऊं.
अन्यथा उनमें तो गुण ही गुण हैं. आप यूं समझिये वह मेरे लिये सास नहीं सांस है, क्योंकि वह जब तक जिन्दा हैं मेरी सांस चल रही है. खुदा न खास्ता यदि किसी दिन मेरे भाग्य से मेरी सास की सांस बन्द हो गयी तो मेरी सांस भी बंद कर दी जायेगी. क्योंकि जहां मेरी सारी उपलब्धियों का श्रेय मेरी श्रीमतीजी को दी गयी अच्छी शिक्षा और सुविधा के रुप में मेरी सासू मां को दिया जाता है वहीं किसी भी छोटी या बङी घटनाओं का जिम्मेदार मुझे ठहराया जाता रहा है. दूसरी बात मेरी सास सदा के लिये दुनियां के बोझ को हल्का कर प्रस्थान कर जायें यह जीवन का सत्य होते हुए भी मेरी श्रीमतीजी के लिये अकल्पनीय है. वह कभी भी बर्दास्त नहीं कर पायेगी. वह राजी-खुशी देश के इतिहास में पहली बार अपनी मां के लिये सती होने का गौरव हासिल करगी......और एक ही साथ सास और पत्नी दोनो से छुटकारे की खुशी मैं नहीं सह पाउंगा. मैं तो समझुंगा कि मानो मेरी किसी व्यन्ग्य रचना के लिये राष्ट्रीय स्तर का कोई अवार्ड मिल गया हो.
चुंकि सास हैं तो आश है और तभी मेरी सांस चल रही है.......हां तो उनकी फ़ूंक के बारे मे बात कर रहे थे. उनमें सारे गुणों के होते हुए भी उनकी फ़ूंक से डरता रहता हूं.बाधा, भूत-प्रेत,चोर-डकैत, पुलिस, नेता...किसी से नहीं डरता पर पत्नी के कानों में मेरी सासू मां के मीठे फ़ूंक से डर जाता हूं.यह बहुत ही अनोखा मामला है. यह मामला मेरी नजर मे उसी दिन प्रकाश में आ गया था जिस दिन मेरी शादी हुई थी. शादी के दिन ही उनकी फ़ूंक इतनी मधुर थी कि पंडितजी के पढे सारे श्लोक हवा में ही रह गये. लग रहा था पंडितजी शादी नहीं कर्मकांड करवा रहे हों. मंत्रों के जरिये किये जानेवाले कसमें वादे बनने से पहले ही टूट गये.
पहले कई दफ़े उनकी पूरी बातें सुनाई नहीं पङती थी तो जो भी शब्द सुनता था उसे कविता की तरह ब्लोग पर टीप आता था. उसमे टिप्पणियों की भरमार होती थी.उदाहरन देना सही होगा अन्यथा आप लोग विश्वास ही नहीं करेंगे.जिस मर्द पर पत्नी और सास विश्वस न करते हो उनपर आप विश्वास करें भी तो कैसे.उदाहरण प्रस्तुत है------
तेरा भाई क्लर्क...
वाशिंग मशीन, टी.वी, फ़्रीज
दामाद्जी अधिकारी
फ़िर भी पावर सीज
सूखी रोटी
ईमानदार
याचना,चिल्लाना ,जबरदस्ती
बेकार
धिक्कार
बाहरी मुद्रा स्वीकार
तभी प्यार, नमस्कार
जब भ्रष्टाचार.
क्रमशः
अन्यथा उनमें तो गुण ही गुण हैं. आप यूं समझिये वह मेरे लिये सास नहीं सांस है, क्योंकि वह जब तक जिन्दा हैं मेरी सांस चल रही है. खुदा न खास्ता यदि किसी दिन मेरे भाग्य से मेरी सास की सांस बन्द हो गयी तो मेरी सांस भी बंद कर दी जायेगी. क्योंकि जहां मेरी सारी उपलब्धियों का श्रेय मेरी श्रीमतीजी को दी गयी अच्छी शिक्षा और सुविधा के रुप में मेरी सासू मां को दिया जाता है वहीं किसी भी छोटी या बङी घटनाओं का जिम्मेदार मुझे ठहराया जाता रहा है. दूसरी बात मेरी सास सदा के लिये दुनियां के बोझ को हल्का कर प्रस्थान कर जायें यह जीवन का सत्य होते हुए भी मेरी श्रीमतीजी के लिये अकल्पनीय है. वह कभी भी बर्दास्त नहीं कर पायेगी. वह राजी-खुशी देश के इतिहास में पहली बार अपनी मां के लिये सती होने का गौरव हासिल करगी......और एक ही साथ सास और पत्नी दोनो से छुटकारे की खुशी मैं नहीं सह पाउंगा. मैं तो समझुंगा कि मानो मेरी किसी व्यन्ग्य रचना के लिये राष्ट्रीय स्तर का कोई अवार्ड मिल गया हो.
चुंकि सास हैं तो आश है और तभी मेरी सांस चल रही है.......हां तो उनकी फ़ूंक के बारे मे बात कर रहे थे. उनमें सारे गुणों के होते हुए भी उनकी फ़ूंक से डरता रहता हूं.बाधा, भूत-प्रेत,चोर-डकैत, पुलिस, नेता...किसी से नहीं डरता पर पत्नी के कानों में मेरी सासू मां के मीठे फ़ूंक से डर जाता हूं.यह बहुत ही अनोखा मामला है. यह मामला मेरी नजर मे उसी दिन प्रकाश में आ गया था जिस दिन मेरी शादी हुई थी. शादी के दिन ही उनकी फ़ूंक इतनी मधुर थी कि पंडितजी के पढे सारे श्लोक हवा में ही रह गये. लग रहा था पंडितजी शादी नहीं कर्मकांड करवा रहे हों. मंत्रों के जरिये किये जानेवाले कसमें वादे बनने से पहले ही टूट गये.
पहले कई दफ़े उनकी पूरी बातें सुनाई नहीं पङती थी तो जो भी शब्द सुनता था उसे कविता की तरह ब्लोग पर टीप आता था. उसमे टिप्पणियों की भरमार होती थी.उदाहरन देना सही होगा अन्यथा आप लोग विश्वास ही नहीं करेंगे.जिस मर्द पर पत्नी और सास विश्वस न करते हो उनपर आप विश्वास करें भी तो कैसे.उदाहरण प्रस्तुत है------
तेरा भाई क्लर्क...
वाशिंग मशीन, टी.वी, फ़्रीज
दामाद्जी अधिकारी
फ़िर भी पावर सीज
सूखी रोटी
ईमानदार
याचना,चिल्लाना ,जबरदस्ती
बेकार
धिक्कार
बाहरी मुद्रा स्वीकार
तभी प्यार, नमस्कार
जब भ्रष्टाचार.
क्रमशः
Tuesday, November 9, 2010
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१० (व्यंग्य)
वह कहने लगे---"संस्कृत..?संस्कृत भाषा तो मृतक हो चुकी है. अब तो इंगलिश में ही लाईफ़ है" .मैंने उनके तर्कों को काटा----"लेकिन हमारी संस्कृति तो संस्कृत में ही है न...."उनका जवाब आया---"संस्कृति को बचाने के लिये ही इंगलिश का सहारा ले रहा हूं.जिस लेंग्वेज का डेथ हो चुका है वह हमारे कल्चर को फ़्रेश लाईफ़ कैसे दे सकती है ". मैंने दीनतापूर्वक याचना की---"मुहल्ले के लोग इंगलिश में पूजा करते हुए देखेंगे तो हमारी नाक कट जायेगी". वह बोले---"अब नाक बचाने के चक्कर में सांस लेना तो बंद नही कर देंगे. मैं तो कहता हूं कि नाक बचे या कटे सांस लेने में प्रोबलेम नहीं होना चाहिये". मेरे सारे तर्क ससुरजी ने काट दिये थे. वैसे भी उनके साथ तर्क करना ही बेकार है.
उन्होंने अपना कार्य चालू रखा और टिंकू से कहा----" अब संकल्प लो I tinku, under the direction of my grandfather swear to worship you for the welfare and good health of our family and the society beyond cast ,creed and nationality " टिंकू भी मजे से सही- सही मंत्रोच्चारण कर रहा था. उसे सही प्रनन्सिएसन करने को कहा गया था. श्रीमतीजी मिसेल ओबामा की तरह मुस्कुरा रही थी. अगरबत्ती की जगह मोर्टिन और दीप की जगह जीरो वाट का बल्ब जला दिये गये थे. ससुरजी ने मेरी श्रीमतीजी की ओर ईशारा किया. अच्छत (चावल के दाने) की जगह वह भात और इडली के साथ प्रस्तुत हुई. टिंकू को अगला मंत्र पढने को कहा गया---" Respected Sir and madom, now a days honesty, knowedge and arts are being saled but rice is wasted in F.C.I godowns and is available at Rs.2/kilo to the poorest for votes. So rice has no importance at all for you rich people. Hence i offer north indian boiled rice and south indian idlee. kindly give us boon to ramain north and south india united. "
उस समय तो मेरा मांथा शर्म से झुक गया जब लेडी विश्वकर्माजी को सिन्दूर की जगह लिपिस्टिक चढाया गया. मैंने भगवान विश्वकर्माजी की ओर देखा. जिंस टी-शर्ट और टोपी में उनकी पर्सनेलीटी तो खुल रही थी. फ़िर भी नाराज से दिख रहे थे .मानो कह रहे हों----" बेकार ही मुझे देव-लोक से मृत्यु-लोक बुलाते हो. टी-शर्ट और जिंस पहनने से मैं अच्छा ही लगता हूं अपमानित नहीं होता......लेकिन तुमलोग मेरे प्रति आस्था का भी बाजारीकरण कर देते हो. कभी अपनी नाक बचाने के लिये तो कभी पैसा कमाने के लिये, कभी वोट के लिये तो कभी भावनाओं को भङकाने के लिये तुमलोग मेरा सहारा लेते हो. मैं इससे अपमानित होता हूं.
अगले भाग मे सासुमाँ का आगमन .. क्रमशः
उन्होंने अपना कार्य चालू रखा और टिंकू से कहा----" अब संकल्प लो I tinku, under the direction of my grandfather swear to worship you for the welfare and good health of our family and the society beyond cast ,creed and nationality " टिंकू भी मजे से सही- सही मंत्रोच्चारण कर रहा था. उसे सही प्रनन्सिएसन करने को कहा गया था. श्रीमतीजी मिसेल ओबामा की तरह मुस्कुरा रही थी. अगरबत्ती की जगह मोर्टिन और दीप की जगह जीरो वाट का बल्ब जला दिये गये थे. ससुरजी ने मेरी श्रीमतीजी की ओर ईशारा किया. अच्छत (चावल के दाने) की जगह वह भात और इडली के साथ प्रस्तुत हुई. टिंकू को अगला मंत्र पढने को कहा गया---" Respected Sir and madom, now a days honesty, knowedge and arts are being saled but rice is wasted in F.C.I godowns and is available at Rs.2/kilo to the poorest for votes. So rice has no importance at all for you rich people. Hence i offer north indian boiled rice and south indian idlee. kindly give us boon to ramain north and south india united. "
उस समय तो मेरा मांथा शर्म से झुक गया जब लेडी विश्वकर्माजी को सिन्दूर की जगह लिपिस्टिक चढाया गया. मैंने भगवान विश्वकर्माजी की ओर देखा. जिंस टी-शर्ट और टोपी में उनकी पर्सनेलीटी तो खुल रही थी. फ़िर भी नाराज से दिख रहे थे .मानो कह रहे हों----" बेकार ही मुझे देव-लोक से मृत्यु-लोक बुलाते हो. टी-शर्ट और जिंस पहनने से मैं अच्छा ही लगता हूं अपमानित नहीं होता......लेकिन तुमलोग मेरे प्रति आस्था का भी बाजारीकरण कर देते हो. कभी अपनी नाक बचाने के लिये तो कभी पैसा कमाने के लिये, कभी वोट के लिये तो कभी भावनाओं को भङकाने के लिये तुमलोग मेरा सहारा लेते हो. मैं इससे अपमानित होता हूं.
अगले भाग मे सासुमाँ का आगमन .. क्रमशः
Monday, November 8, 2010
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-९ (व्यंग्य)
कुछ ही दिन बाद मेरे ससुराल के कुछ अन्य गणमान्य लोगों का मेरे क्वार्टर पर आकर ठहरने का प्रोग्राम बन गया. जल्द ही मेरी सासू मां, साले महोदय और प्यारी सी सालीजी का आगमन होनेवाला था. थोङा सा चिन्तित था. वे लोग जब तक मेरे यहां ठहरेंगे मेरी जिन्दगी भी ठहरी सी हो जायेगी.श्रीमतीजी, ससुरजी और अन्य तीन मिलकर जब पांडव बनेंगे तो उसे मेरे जैस साधारण प्राणी कैसे झेल पायेगा.ये लोग मेरा तो चीर-हरण कर के ही दम लेंगे.
मैं परेशान था पर ससुरजी तो हर मामले में मेरे विपक्ष मे रहने की ठान ही ली है. वह मुस्कुरा रहे थे विश्वकर्मा पूजा मनाने की खुशी का बहाना लेकर. मेरे निकट आकर बैठ गये. वह मेरा लटका हुआ चेहरा एक-टक मुस्कुराते हुए देख रहे थे. फ़िर भी उनके चेहरे से याचक होने की बू तो आ ही रही थी और भले ही मांगनेवाला मुस्कुरा रहा हो महान तो लाचार होकर भी देनेवाला ही होता है. धीरे से आईटम्स जो पूजा के लिये जरूरी थे कि लिस्ट मेरे हाथ में थमा दी. उनके डिमांड की लिस्ट मेरे लिये पिक्चर के क्लाइमेक्स की तरह हुआ करता है. "जिंस पैंट, टी-शर्ट, टोपी, सलवार सूट..?????"---मैं उच्चारण करते हुए पढ रहा था.आइटम्स तो खुद ही ढेर सारे क्वेश्चन मार्क्स पैदा कर रहे थे. ससुरजी की कुशाग्र बुद्धि उन्हें उत्तर के साथ उपस्थित कर दिया----"दामादजी आज का जमाना इडियट्स और दबंगों का है ऐसे में पीला वस्त्र, पीली धोती और मुकुट न ही फ़ोर्मल लगता है और न ही इनफ़ोर्मल.पहले जमाने के कपङों में भगवान विश्वकर्माजी पुराने खयालोंवाले अबनोर्मल लगेंगे". मुझे तो ससुरजी अबनोर्मल लग रहे थे. जी तो कर रहा था कि वैचारिक रुप से उनकी धज्जियां उङा दूं लेकिन सम्मान ही इतना करता हूं कि कुछ भी न बोल पाया.
मैंने श्रीमतीजी से जाकर कहा-----" तुम्हारे पिताजी भगवान विश्वकर्मा जी को जींस और टी-शर्ट पहनाना चाहते है.....अबनोर्मल हो गये हैं " लेकिन एक महान बाप की वीरांगना बेटी यह कैसे बर्दास्त कर सकती थी. वह साउन्ड बोक्स की तरह ओन हो गयी---"पागल तो तुम हो गये हो. वह यदि नये ढंग से पूजा करना चाहते हैं तो हर्ज ही क्या है ? वह नये विचारवाले लोग हैं तुम्हारे जैसे पुराने खयाल के नहीं ".जिस तरह कोंग्रेस की सरकार को कोम्युनिस्ट विना शर्त समर्थन देते हैं उसी तरह वह अपने पिता के पक्ष में हो जाया करती है. मैं अल्पमत का विपक्ष बन जाया करता हूं. विपक्ष की तरह मत के साथ-साथ शांति, समृद्धि, खुशियां और बैंक बएलेन्स भी अल्प होता जा रहा था. काश सत्त पक्ष के गुण-गान के साथ-साथ विपक्ष के दर्द को भी लोग समझते. सत्ता की कुर्सी के इतना निकट होकर भी सत्ता से दूर होना और धीरता के साथ लालच की जीभ को बांधे रखना--आसान नहीं है.
अगले दिन सुबह ससुरजी टिंकू को पूजा करवाने लगे.पहले आवाहन होना चाहिये, मंत्र पढो----" O.. mighty..honourable god of works and your family, i tinku a ten year old child invite you to come here and have respective seats " .मेरे मुंह से तो oh my god निकल रहा था. पूजा इंगलिश में करवायी जा रही थी. देव-भाषा संस्कृत का घोर अपमान और आंग्ल-भाषा से यह प्यार मुझे अच्छा नहीं लगा. श्रीमतीजी सगर्व मुस्कुरा रही थी. उन्हें कुछ कहता तो बुरा मान जाती और खिसियाई बिल्ली की तरह झपट पङती. जब रहा न गया तो ससुरजी का भद्रतापूर्वक विरोध किया----"पूजा संस्कृत में करवायी जाती तो ज्यादा अच्छा होता". कहने लगे---"संस्कृत..?संस्कृत भाषा तो मृतक हो चुकी है. अब तो इंगलिश में ही लाईफ़ है"
अगले भाग में भी विश्वकर्मापूजा जारी रहेगा. क्रमशः
मैं परेशान था पर ससुरजी तो हर मामले में मेरे विपक्ष मे रहने की ठान ही ली है. वह मुस्कुरा रहे थे विश्वकर्मा पूजा मनाने की खुशी का बहाना लेकर. मेरे निकट आकर बैठ गये. वह मेरा लटका हुआ चेहरा एक-टक मुस्कुराते हुए देख रहे थे. फ़िर भी उनके चेहरे से याचक होने की बू तो आ ही रही थी और भले ही मांगनेवाला मुस्कुरा रहा हो महान तो लाचार होकर भी देनेवाला ही होता है. धीरे से आईटम्स जो पूजा के लिये जरूरी थे कि लिस्ट मेरे हाथ में थमा दी. उनके डिमांड की लिस्ट मेरे लिये पिक्चर के क्लाइमेक्स की तरह हुआ करता है. "जिंस पैंट, टी-शर्ट, टोपी, सलवार सूट..?????"---मैं उच्चारण करते हुए पढ रहा था.आइटम्स तो खुद ही ढेर सारे क्वेश्चन मार्क्स पैदा कर रहे थे. ससुरजी की कुशाग्र बुद्धि उन्हें उत्तर के साथ उपस्थित कर दिया----"दामादजी आज का जमाना इडियट्स और दबंगों का है ऐसे में पीला वस्त्र, पीली धोती और मुकुट न ही फ़ोर्मल लगता है और न ही इनफ़ोर्मल.पहले जमाने के कपङों में भगवान विश्वकर्माजी पुराने खयालोंवाले अबनोर्मल लगेंगे". मुझे तो ससुरजी अबनोर्मल लग रहे थे. जी तो कर रहा था कि वैचारिक रुप से उनकी धज्जियां उङा दूं लेकिन सम्मान ही इतना करता हूं कि कुछ भी न बोल पाया.
मैंने श्रीमतीजी से जाकर कहा-----" तुम्हारे पिताजी भगवान विश्वकर्मा जी को जींस और टी-शर्ट पहनाना चाहते है.....अबनोर्मल हो गये हैं " लेकिन एक महान बाप की वीरांगना बेटी यह कैसे बर्दास्त कर सकती थी. वह साउन्ड बोक्स की तरह ओन हो गयी---"पागल तो तुम हो गये हो. वह यदि नये ढंग से पूजा करना चाहते हैं तो हर्ज ही क्या है ? वह नये विचारवाले लोग हैं तुम्हारे जैसे पुराने खयाल के नहीं ".जिस तरह कोंग्रेस की सरकार को कोम्युनिस्ट विना शर्त समर्थन देते हैं उसी तरह वह अपने पिता के पक्ष में हो जाया करती है. मैं अल्पमत का विपक्ष बन जाया करता हूं. विपक्ष की तरह मत के साथ-साथ शांति, समृद्धि, खुशियां और बैंक बएलेन्स भी अल्प होता जा रहा था. काश सत्त पक्ष के गुण-गान के साथ-साथ विपक्ष के दर्द को भी लोग समझते. सत्ता की कुर्सी के इतना निकट होकर भी सत्ता से दूर होना और धीरता के साथ लालच की जीभ को बांधे रखना--आसान नहीं है.
अगले दिन सुबह ससुरजी टिंकू को पूजा करवाने लगे.पहले आवाहन होना चाहिये, मंत्र पढो----" O.. mighty..honourable god of works and your family, i tinku a ten year old child invite you to come here and have respective seats " .मेरे मुंह से तो oh my god निकल रहा था. पूजा इंगलिश में करवायी जा रही थी. देव-भाषा संस्कृत का घोर अपमान और आंग्ल-भाषा से यह प्यार मुझे अच्छा नहीं लगा. श्रीमतीजी सगर्व मुस्कुरा रही थी. उन्हें कुछ कहता तो बुरा मान जाती और खिसियाई बिल्ली की तरह झपट पङती. जब रहा न गया तो ससुरजी का भद्रतापूर्वक विरोध किया----"पूजा संस्कृत में करवायी जाती तो ज्यादा अच्छा होता". कहने लगे---"संस्कृत..?संस्कृत भाषा तो मृतक हो चुकी है. अब तो इंगलिश में ही लाईफ़ है"
अगले भाग में भी विश्वकर्मापूजा जारी रहेगा. क्रमशः
Thursday, October 28, 2010
जलनेवाले जलते जलते जल ही जाते हैं.
ईर्ष्या करनेवाले चाहें कि तुमको सुला दें
बिन बातों हंसते हो गर तुमको रुला दें
पांव खींचनेवाले तो खुद ही गिर जाते हैं
जलनेवाले जलते जलते जल ही जाते हैं
पथ भर तेरी राह रोकने वे बाधा लायेंगे
चाहेंगे तेरी हार पर वे जीत नहीं पायेंगे
बिन पानी पौधे भी जिंदा रह ही जाते हैं
पलनेवाले पलते पलते पल ही जाते हैं.
जलनेवाले जलते जलते जल ही जाते हैं.
छू न पाओ तुम उनको तुझे धकेलेंगे वे
पीछे गर पङ जाओ तो तुझे न देखेंगे वे
दुष्टों के सूरज शाम तक ढल ही जाते हैं
चढनेवाले चढते चढते चढ ही जाते हैं
जलनेवाले जलते जलते जल ही जाते हैं.
बिन बातों हंसते हो गर तुमको रुला दें
पांव खींचनेवाले तो खुद ही गिर जाते हैं
जलनेवाले जलते जलते जल ही जाते हैं
पथ भर तेरी राह रोकने वे बाधा लायेंगे
चाहेंगे तेरी हार पर वे जीत नहीं पायेंगे
बिन पानी पौधे भी जिंदा रह ही जाते हैं
पलनेवाले पलते पलते पल ही जाते हैं.
जलनेवाले जलते जलते जल ही जाते हैं.
छू न पाओ तुम उनको तुझे धकेलेंगे वे
पीछे गर पङ जाओ तो तुझे न देखेंगे वे
दुष्टों के सूरज शाम तक ढल ही जाते हैं
चढनेवाले चढते चढते चढ ही जाते हैं
जलनेवाले जलते जलते जल ही जाते हैं.
Wednesday, October 27, 2010
चांद तुझमें क्या कमी है
आज मैं बताऊंगा चांद तुझमें क्या कमी है
देखता हूं पार तेरे गगन में कितनी जमीं है.
काले बादल हैं मगर सन्नाटा भी पसरी हुई
तू अकेला है उदास , तेरी आंखों में नमी है.
तेरे दामन में लगे जो दाग दिख जाते ही हैं
तू अमावस को छिपा ,पूर्णिमा जैसी रमी है.
देखकर सबकी खुशी तू भी जलती है बहुत
मेरे गम से आंख पथरीली तेरी कब घमी है.
आशिकों की फ़ौज रुककर देखते तुमको सदा
पल-भर भी तेरी चाल अब तक कब थमी है.
देखता हूं पार तेरे गगन में कितनी जमीं है.
काले बादल हैं मगर सन्नाटा भी पसरी हुई
तू अकेला है उदास , तेरी आंखों में नमी है.
तेरे दामन में लगे जो दाग दिख जाते ही हैं
तू अमावस को छिपा ,पूर्णिमा जैसी रमी है.
देखकर सबकी खुशी तू भी जलती है बहुत
मेरे गम से आंख पथरीली तेरी कब घमी है.
आशिकों की फ़ौज रुककर देखते तुमको सदा
पल-भर भी तेरी चाल अब तक कब थमी है.
Monday, October 25, 2010
अक्सर ही बह जाता हूं.
नहीं जानता मैं रुक जाना
बाधाओं से डर झुक जाना
मैं तो पानी की धारा जैसे
अक्सर ही बह जाता हूं.
पता नहीं किसने कब रोका
मेरी छाती पर भाला भोंका
खुद ही अपनी मरहम बन
दुख सारी सह जाता हूं.
मेरे भी हजारो सपने हैं
हर कोई मेरे अपने हैं
मैं अपनों को दे ऊंचाई
चलता ही रह जाता हूं.
खामोशी मेरी आदत है
चुप रहना ही इबादत है
कलम की धार से ही मैं
सब कुछ कह जाता हूं.
बाधाओं से डर झुक जाना
मैं तो पानी की धारा जैसे
अक्सर ही बह जाता हूं.
पता नहीं किसने कब रोका
मेरी छाती पर भाला भोंका
खुद ही अपनी मरहम बन
दुख सारी सह जाता हूं.
मेरे भी हजारो सपने हैं
हर कोई मेरे अपने हैं
मैं अपनों को दे ऊंचाई
चलता ही रह जाता हूं.
खामोशी मेरी आदत है
चुप रहना ही इबादत है
कलम की धार से ही मैं
सब कुछ कह जाता हूं.
Friday, October 22, 2010
मैं और तू
बहुत गहरी है तू
लम्बी और चौङी भी.
तुम्हारी जवानी भी
ठहरी सी है.
एक-एक बूंद को
रोक कर रक्खी है.
साथ ही डाल चुकी हो
एक बेलनाकार लम्बा खूंटा
अपने केन्द्रक में.
मैं तुम्हारी तरह गहरी नहीं
बह जाती हूं.
जवानी है पर भागती हुई
एक एक बूंद छलकती है.
मेरी परिधि बदलती रहती है
बेलनाकार खूंटा
डालूं भी तो कहां.?
एक सी जवानी होते हुए भी
कितना विरोधावास..?
कितना भिन्न सत्चरित्र..?
मैं सरिता हूं तू तालाब जो ठहरी.
लम्बी और चौङी भी.
तुम्हारी जवानी भी
ठहरी सी है.
एक-एक बूंद को
रोक कर रक्खी है.
साथ ही डाल चुकी हो
एक बेलनाकार लम्बा खूंटा
अपने केन्द्रक में.
मैं तुम्हारी तरह गहरी नहीं
बह जाती हूं.
जवानी है पर भागती हुई
एक एक बूंद छलकती है.
मेरी परिधि बदलती रहती है
बेलनाकार खूंटा
डालूं भी तो कहां.?
एक सी जवानी होते हुए भी
कितना विरोधावास..?
कितना भिन्न सत्चरित्र..?
मैं सरिता हूं तू तालाब जो ठहरी.
Wednesday, October 20, 2010
आया नया जमाना है.
पांव बढाता हूं अब आगे , हृदय मेरा तनिक न हिलता
जाना है दूर क्षितिज तक जहां गगन धरती से मिलता.
छूना हमको वह उंचाई जहां ठंढी ओस की बूंदें बनती
सांझ जहां होती है रुककर ,सुबह जहां होली सी मनती
सागर की गहराई में जो बैठा वह मोती हमको चुनना है.
चिङिया रानी चूजों से जो बातें कहती है , वह सुनना है.
मिला हाथ आशा की किरणों से सूरज सी आभा पाना है
कहती है बहती हवा की धारा ......"आया नया जमाना" है.
जाना है दूर क्षितिज तक जहां गगन धरती से मिलता.
छूना हमको वह उंचाई जहां ठंढी ओस की बूंदें बनती
सांझ जहां होती है रुककर ,सुबह जहां होली सी मनती
सागर की गहराई में जो बैठा वह मोती हमको चुनना है.
चिङिया रानी चूजों से जो बातें कहती है , वह सुनना है.
मिला हाथ आशा की किरणों से सूरज सी आभा पाना है
कहती है बहती हवा की धारा ......"आया नया जमाना" है.
Thursday, October 7, 2010
तीसरी ताकत का सच
आज भी ठेकेदार ने काम देने से मना कर दिया. ठेकेदार के तो सौ में से पचास रुपये कमीशन देने में खर्च हो जाते हैं. इमानदारे से उसे काम मिलता ही कहां है. लेकिन बेचारा मजदूर तो पिस रहा है. सात दिनों से काम नहीं. आज तो घर में खाने के लिये अनाज भी नहीं है. जिसकी औकात नहीं होती उसे बैंक भी कर्ज नहीं देता. वह परेशान होकर घर लौटा और बैठ गया चेहरे को हाथों में लेकर. पत्नी चांदिया सामने आकर खङी हो गयी.आंखों में आंसू की दो बूंदों के सिवा कुछ ना कह सकी. होठ फङफ़ङाये जरूर लेकिन शब्दहीन स्वर भूख की त्रासदी के सिवा कुछ भी बय़ां नहीं कर पाये. वह बोला----"जाता हूं चौराहे पर....सभी को जमा करता हूं और कहता हूं कि हमें भी रोटी पाने का हक है. यदि हमें रोटी नहीं मिला तो मैं दुनियां में आग लगा दूंगा." चांदिया बोली----" तमाशा करने की कोई जरुरत नहीं हैं.बाहर के लोग समझते हैं हमारा देश दुनियां की तीसरी ताकत है. यह क्यों नहीं सोचते कि सच बोलोगे तो हमारी तीसरी ताकत की छवि का क्या होगा...".
चांदिया की तीन साल की भूखी बेटी मुस्कुरा कर अपनी मां को मौन समर्थन दे रही थी.
चांदिया की तीन साल की भूखी बेटी मुस्कुरा कर अपनी मां को मौन समर्थन दे रही थी.
Monday, October 4, 2010
ट्रांसफ़र (लघुकथा)
(ससुरजी तो घर पर रह ही रहे है. उनसे बातचीत नोंक-झोंक चलता ही रहता है.आपको एक और खुशखबरी दे रहा हूं कि मेरी सासू मां, मेरे सालेजी और प्यारी साली भी जल्द ही मेरे घर पधार रही हैं....इसलिये अभी थोङा सा विराम लेता हूं कुछ दिनों के बाद पुन: यह व्यन्ग्य श्रृंखला लेकर उपस्थित हो जाउंगा)
ट्रांसफ़र (लघुकथा)
डी.जी.पी साहब ने पदभार संभालते ही डाटा मंगवाया. अस्सी आई.पी.एस अधिकारी और मालदार पोस्ट सिर्फ़ बीस.क्या करते ....? बीस सबसे भ्रष्ट अधिकारियों को मालदार पोस्टों पर ट्रांसफ़र कर दिया गया. सबसे मालदार पोस्ट पर जिस एस.पी ने ज्वायन किया उसने डाटा लेकर सभी डी.एस.पी और थाना प्रभारियो के मालदार पोस्टों पर भ्रष्ट पुलिसवालों को ट्रांसफ़र कर दिया. सबसे मालदार थाना का प्रभारी सबसे भ्रष्ट पुलिस को चुना गया.सबसे भ्रष्ट थाना प्रभारी ने हवलदारों और अन्य पुलिसवालों को बुलाकर समझाया---"हमे पुलिस विभाग मे शिष्टाचार और भ्रष्टाचार दोनो चाहिये. यदि ठीक से नौकरी करना है तो कहीं से भी दस लाख रुपये का प्रबंध करो. इतना मालदार पोस्ट मुफ़्त में नहीं मिलता.....हमें अच्छी कुर्सी पाने की कसौटी पर खरा उतरना है."
ट्रांसफ़र (लघुकथा)
डी.जी.पी साहब ने पदभार संभालते ही डाटा मंगवाया. अस्सी आई.पी.एस अधिकारी और मालदार पोस्ट सिर्फ़ बीस.क्या करते ....? बीस सबसे भ्रष्ट अधिकारियों को मालदार पोस्टों पर ट्रांसफ़र कर दिया गया. सबसे मालदार पोस्ट पर जिस एस.पी ने ज्वायन किया उसने डाटा लेकर सभी डी.एस.पी और थाना प्रभारियो के मालदार पोस्टों पर भ्रष्ट पुलिसवालों को ट्रांसफ़र कर दिया. सबसे मालदार थाना का प्रभारी सबसे भ्रष्ट पुलिस को चुना गया.सबसे भ्रष्ट थाना प्रभारी ने हवलदारों और अन्य पुलिसवालों को बुलाकर समझाया---"हमे पुलिस विभाग मे शिष्टाचार और भ्रष्टाचार दोनो चाहिये. यदि ठीक से नौकरी करना है तो कहीं से भी दस लाख रुपये का प्रबंध करो. इतना मालदार पोस्ट मुफ़्त में नहीं मिलता.....हमें अच्छी कुर्सी पाने की कसौटी पर खरा उतरना है."
Friday, October 1, 2010
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-८ (व्यंग्य)
अचानक एक दिन थाइलैंड से ससुरजी के लिये दो लाख भात( थाइ करेन्सी) प्रति महिना वेतन का एक ओफ़र आया. ये आइडिया मुझे काफ़ी पसन्द आया. सोचा एक दो सप्ताह में समझा - बुझाकर पासपोर्ट और वीसा बनवाकर थाइलैंड भेज देन्गे....सप्ताह-दो सप्ताह तक ब्लोग के लिये कविता लिखवाते हैं क्योंकि अब मैं उन्हें बिल्कुल ही झेल पाने की स्थिति मे नहीं था. कविता लिखने कर ब्लोग पर देने की सलाह से काफ़ी खुश हुए. कहने लगे मैं कविता गाता हूं आप पोस्ट करते जाइये--
गरीबी और लाचारी की एक सोंग गा रहा हूं.
पता नहीं मुझको कि राइट या रोंग गा रहा हूं
पल में ही नेताजी आकर गीत गाकर चले गये.
एक मैं ही हूं जो गाना इतना लोंग गा रहा हूं.
भ्रष्टता के गीत गाते सभा में बैठे सभी सभासद
क्या करूं , लाचार हूं .कोन्ग-कोन्ग गा रहा हूं.
( Congress)
भजन गा रहे हैं देश और दिल्ली की पब्लिक.
मैं ही हूं जो पेरिस और होन्गकोंग गा रहा हूं.
लोग झोली भरकर भी गीत गाकर मांगते हैं.
मैं भूखा "मांग" के बदले मोंग-मोंग गा रहा हूं.
भरे पेट होते हैं जिनके वे सच्चे गाने गाते हैं.
नकली खुशियां झूठी आवाज में ढोंग गा रहा हूं."
ससुरजी तो गाना गा रहे थे मैं मुश्किल से झेल पा रहा था. उनके गीत को ब्लोग पे डालता तो मेरे ब्लोगर मित्र स्याम भाई मेरा बाजा फ़ोङ देते और बिगुलवाले सोनीजी चिन्दी-चिन्दी कर देते. सोच ही रहा था कि पूछने लगे----
" कैसा लगा दामादजी यह गजल ?"
"गजल तो इतना बढिया बना है कि शब्द ही नहीं हैं---बिल्कुल नयी फ़सल है यह गजल. क्या लय है ....सोंग....रोंग.. लोंग...वाह"---- प्रशंसा तो हर किसी के कविता पर करनी चाहिये और ये तो मेरे ससुर थे. अच्छा मौका था. मैंने कहा---- "पापाजी थाईलैंड से मेरे एक ब्लोगर मित्र ने आपको एक काम के लिये ओफ़र दिया है. रोजगार भी मिलेगा और विदेश घूमने का मौका भी."
"वेतन कितना मिलेगा"---ससुरजी ने पूछा. मैंने जबाव दिया---"दो लाख भात प्रति महिना"
ससुरजी बोले---" दो लाख भात../? अगली कविता पोस्ट कीजिये----
खाने के लिये चाव चाहिये.
भात नहीं मुझे भाव चाहिये.
बहुत प्यार दिया दुनियां ने
एक - दो छोटे घाव चाहिये.
भूखे को जिसने दी रोटी
उसी ने लूटी उसकी बेटी
पहले तो दे दोगे भात
फ़िर मारोगे पीछे लात
अपनी दुनिया रौशन है
मुझको थोङा छाव चाहिये.
भात नहीं मुझे भाव चाहिये."
मैंने कहा---" वाह (कहना ही पङता है)....लेकिन यह ओफ़र बहुत ही अच्छा है पापाजी"
तभी बीच मे आकर श्रीमतीजी बोलने लगी------
"छिन रहे उनकी आजादी
वाह रे वाह तेरी दामादी
कहीं नहीं जायेंगे पापाजी
छोङकर घर सीधी- सादी."
वह भी आज कविता में ही बात कर रही थी लेकिन रस में फ़र्क था ससुरजी करुण रस और श्रीमतीजी वीर रस गा रहे थे. मेरे लिये तो उस समय दोनो रस विष बन चुका था.
अगले भाग में नौकरी के ओफ़र पर विचार जारी रहेगा.... क्रमश
गरीबी और लाचारी की एक सोंग गा रहा हूं.
पता नहीं मुझको कि राइट या रोंग गा रहा हूं
पल में ही नेताजी आकर गीत गाकर चले गये.
एक मैं ही हूं जो गाना इतना लोंग गा रहा हूं.
भ्रष्टता के गीत गाते सभा में बैठे सभी सभासद
क्या करूं , लाचार हूं .कोन्ग-कोन्ग गा रहा हूं.
( Congress)
भजन गा रहे हैं देश और दिल्ली की पब्लिक.
मैं ही हूं जो पेरिस और होन्गकोंग गा रहा हूं.
लोग झोली भरकर भी गीत गाकर मांगते हैं.
मैं भूखा "मांग" के बदले मोंग-मोंग गा रहा हूं.
भरे पेट होते हैं जिनके वे सच्चे गाने गाते हैं.
नकली खुशियां झूठी आवाज में ढोंग गा रहा हूं."
ससुरजी तो गाना गा रहे थे मैं मुश्किल से झेल पा रहा था. उनके गीत को ब्लोग पे डालता तो मेरे ब्लोगर मित्र स्याम भाई मेरा बाजा फ़ोङ देते और बिगुलवाले सोनीजी चिन्दी-चिन्दी कर देते. सोच ही रहा था कि पूछने लगे----
" कैसा लगा दामादजी यह गजल ?"
"गजल तो इतना बढिया बना है कि शब्द ही नहीं हैं---बिल्कुल नयी फ़सल है यह गजल. क्या लय है ....सोंग....रोंग.. लोंग...वाह"---- प्रशंसा तो हर किसी के कविता पर करनी चाहिये और ये तो मेरे ससुर थे. अच्छा मौका था. मैंने कहा---- "पापाजी थाईलैंड से मेरे एक ब्लोगर मित्र ने आपको एक काम के लिये ओफ़र दिया है. रोजगार भी मिलेगा और विदेश घूमने का मौका भी."
"वेतन कितना मिलेगा"---ससुरजी ने पूछा. मैंने जबाव दिया---"दो लाख भात प्रति महिना"
ससुरजी बोले---" दो लाख भात../? अगली कविता पोस्ट कीजिये----
खाने के लिये चाव चाहिये.
भात नहीं मुझे भाव चाहिये.
बहुत प्यार दिया दुनियां ने
एक - दो छोटे घाव चाहिये.
भूखे को जिसने दी रोटी
उसी ने लूटी उसकी बेटी
पहले तो दे दोगे भात
फ़िर मारोगे पीछे लात
अपनी दुनिया रौशन है
मुझको थोङा छाव चाहिये.
भात नहीं मुझे भाव चाहिये."
मैंने कहा---" वाह (कहना ही पङता है)....लेकिन यह ओफ़र बहुत ही अच्छा है पापाजी"
तभी बीच मे आकर श्रीमतीजी बोलने लगी------
"छिन रहे उनकी आजादी
वाह रे वाह तेरी दामादी
कहीं नहीं जायेंगे पापाजी
छोङकर घर सीधी- सादी."
वह भी आज कविता में ही बात कर रही थी लेकिन रस में फ़र्क था ससुरजी करुण रस और श्रीमतीजी वीर रस गा रहे थे. मेरे लिये तो उस समय दोनो रस विष बन चुका था.
अगले भाग में नौकरी के ओफ़र पर विचार जारी रहेगा.... क्रमश
Wednesday, September 29, 2010
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-७ (व्यंग्य)
मैं काफ़ी परेशान था. अब तो आप भी जान गये होंगे कि बच्चे को पढाने कहा तो किस तरह की शिक्षा दी गयी. शोपिन्ग के लिये भेजा तो गांधी की जगह मल्लिका शेरावत का फ़ोटो ले आये .उपर से फ़ास्ट-फ़ूड का सुपरफ़ास्ट अफ़ेक्ट देखने को मिला. अगले दिन जैसे ही घर लौटा जिद करने लगे----"दामादजी मुझे कोमनवेल्थ गेम दिखाईये."
मैंने कहा----"यह गेम तो ३ अक्तुबर से होनेवाला है."
हंसने लगे...बोले----"उस खेल में तो जो होनेवाला है वो सबको पता है. खेल तो अभी मजेदार हो रहा है. खुद मनमोहन सिंह भी झूम रहे होंगे. वाह.... क्या व्यवस्था किया है. दिल्ली में कोमनवेल्थ के नाम पर अभूतपुर्व विकास हुए हैं. इसके लिये शीला दिक्षीतजी को गोल्ड मेडल मिलना चाहिये."
"गोल्ड मेडल...? सङकों की गड्ढों में पानी भरे हुए हैं इसके लिये...?"
"दामादजी गड्ढे तो कहीं भी हो सकते हैं. शीलाजी ने अपने नहाने के लिये कोई तालाब नहीं खुदवा दिया जो लोग हल्ला मचा रहे हैं. उपर से इन्द्र देवता की कृपा से बारिश हुई है तो गड्ढे में पानी तो भरेंगे ही. इसके लिये राजनीति नहीं विज्ञान जिम्मेवार है जिसके चलते पानी गड्ढे में भर गये. जितने गहरे गड्ढे हैं उससे ज्यादा गहरी चिंता शीलाजी के चेहरे पर साफ़ दिख रही है. उपर से आशा कि किरणें दिखाई दे रही है कि भविष्य में गड्ढों में भी सङकें बनायी जा सकेंगी."
गुस्सा तो बहुत आया. जिस शीला दीदी के व्यवस्था पर पूरा देश थू-थू कर रही है उसे ससुरजी दाद दे रहे थे.मैंने पूछा "और ओवर-ब्रिज जो ढह गया उसके किये किसे गोल्ड देंगे ?"
"श्री सुरेश कलमाडी जी को. उनका पूरा ध्यान गेम पर है न कि ओवरब्रिज पर. कोई भी खेल सिर्फ़ खिलाङियों से ही आगे नहीं बढता. कोच, मैनेजर, खेल संघ के अधिकारी, खेल मंत्री, ठेकेदार और सट्टेबाजों की भी भूमिका होती है. इनमें से कोई भी ओवर-ब्रिज को ढाहने नहीं गया था. यदि ढह गया तो ईंजिनियर से पूछा जाना चाहिये कि पुल क्यों ढहा.."
" तो सारा दोष आप ईंजिनियर को देते हैं ?"
" नहीं...बिल्कुल नहीं. लोहे-सिमेंट की ब्रिज हो या आदमी--किसी के लाइफ़ की गारंटी कोई कैसे दे सकता है."
"लेकिन पापाजी फ़ुट-ओवरब्रिज के ढहने से तेइस लोग मामुली रुप से घायल हो गये और चार लोग जिन्दगी-मौत के बीच झूल रहे हैं"
" दिल्ली में तो बस में चढे लोग भी मामुली रुप से घायल हो जाते हैं. जो लोग जिन्दगी-मौत के बीच झूल रहे हैं उन्हें बधाई देता हूं---झूला झूलने का आनन्द उठावें. झूला झूलना तो हम भारतियों का प्रिय शौक रहा है. इसमें तो हमें मजा ही आता है."
" फ़िर आप किसको दोषी मानते हैं..?"
" किसी को भी नहीं. देश को कोई नुकसान नहीं हो रहा जो किसी को गलत मानूं..अपने देश का पैसा था देश के लोगों ने खाया. कोई चार्ल्स शोभराज तो पैसा नहीं लूट गया. देश की छवि भी सुधरी है."
"देश की छवि सुधरी है ? "
"बिल्कुल...अब तक अमेरिका और पश्चिमी देश कहते थे भारत गरीबों का देश है, यह सपेरों का देश है ,यहां के लोग जादू-टोना में यकीन करते हैं. अब देखियेगा दामादजी ...यही लोग कहेंगे भारत चालाकों और धूर्तों का देश है. इतना अमीर है कि सत्तर हजार करोङ रुपये फ़ूंककर सङकों पर गड्ढे बनवाती है. करोङो रुपयों से ओवरब्रिज बनवाती है जिसके रोतो-रात ढह जाने से किसी को दुख नहीं होता"
"और सुरक्षा व्यवस्था...?"
"सुरक्षा व्यवस्था तो इतनी अच्छी है कि विस्फ़ोटक लेकर भी एक ओस्ट्रेलियाई सकुशल स्टेडियम तक पहुंच गया. दिल्ली में खुलेआम बिक रहा है लेकिन विस्फ़ोटक बेचनेवाले, खरीदनेवाले और दिल्ली की देखनेवाली जनता सभी सुरक्षित हैं....इससे बढकर सुरक्षा व्यवस्था क्या होगी."
"ऐसे में खेल चलने लगेगा और सीमा-पार से आतंकवादी घुस आये तो...?"
"कौन सी सीमा. कहीं आप भारत पाक सीमा की बात तो नहीं कर रहे. जब आतंकवादी और विस्फ़ोटक इधर भी है और उधर भी...तो सीमा बीच में कैसे हो गयी. सीमा तो अफ़गानिस्तान के आस पास होनी चाहिये.दूसरी बात हम सात साल से गेम की तैयारी कर रहे हैं तो पाकिस्तान गेम चालू हो जाने के बाद तैयारी करेगा..?"..........वैसे पाकिस्तान तो शान्ति-प्रिय देश है जहां कोई भी आतंकवादी नहीं है."
"क्या कह रहे हैं आप...पाकिस्तान में कोई आतंकवादी नहीं है."
"बिल्कुल नहीं. वहां के लोग तो सिर्फ़ युद्ध का प्रशिक्षण लेते है. प्रशिक्षण के बाद वे अमेरिका, औस्ट्रेलिया और इंगलैंड चले जाते हैं...जो बाच जाते है ईंडिया आ जाते है. पाकिस्तान में तो कोई रहता नहीं...बेकार लोग बदनाम करते हैं"
"अभी तो मणिशंकर अय्यर जी कह रहे थे कि खेल का अयोजन होना चाहिये जिससे हमारा हुंह काला न हो..."
"मणिशंकरजी खुद गोरे हैं क्या जो मुंह काला हो जायेगा. गोरे तो अंग्रेज थे..हम भारतियों को तो वे लोग सदा से काले समझते रहे. जितना लूटना था लूट गये और इस हाल में छोङ गये कि और भी मुह काला होने की नौबत आ गयी है."
अब मैं नहीं सह पा रहा था. हर गलत बात को ससुरजी जस्टिफ़ाइ कर रहे थे. पुन: मेरे दिल का दर्द जुबां से निकला
"इंगलैंड और आस्ट्रेलिया के कई एथलीट भारत नहीं आ रहे हैं......?,,,,,,"
"इससे क्या फ़र्क पङता है .यहां डेंगू के सिवा उन्हें कुछ भी हाथ नहीं लगता. दौङ में मेडल नहीं जीत पाते. हमारे देश की जनता दिल्ली दौङती ही रहती है ...न ही कभी नेताजी के दर्शन होते हैं और न ही मेडल मिलता है...इसलिये दौङ का मेडल तो हमारे देश में ही रहेगा."
"बांकी खेलों में..?"
"बांकी कौनसी खेल...? स्वीमिंग....? दिल्ली में बाढ आयी हुई है. देश के तैराकों के पास प्रेक्टिस का सुनहाल मौका है...देखियेगा ये सारे मेडल देश में ही रहेंगे.जिस तरह से तैयारी चल रही है. कोई भी खेलने दिल्ली नहीं आयेंगे....अपने देश के खिलाङी भी नहीं.फ़िर सुरेश कलमाडीजी शुटिंग करेंगे, शीला दीदी तैराकी में भाग लेंगी, खेल मंत्री एथलीट बनेंगे और मनमोहन सिंहजी गोला फ़ेकेंगे. सारे के सारे मेडल देश में ही रह जायेगा. इतिहास बन जायेगा.
"मुझे नहीं लगता कि कोई भी खिलाङी खेलने नहीं आयेगा.."
"आयेंगे तो आयें...हमने मना थोङे ही किया है. यमुना का जल स्तर बढ ही रहा है. कुछ दिनों के बाद एयर-पोर्ट और बस अड्डे पर भी पानी होगा... लंदन से नई दिल्ली पानी के जहाज से आ सकें तो आयें.....उपर से यदि कहीं सङक धंस गया तो हम जिम्मेवारी नहीं लेगें और......डेंगू फ़ैलानेवाले मच्छर हमारी बात नहीं मानते ये भी जान लें. हम अच्छा खेलने पर गोल्ड की गारंटी दे सकते है...लाइफ़ की नही."
अगले भाग में ससुर जी थाइलैन्ड से मिले नौकरी के ओफर का जवाब देंगे .... क्रमश
मैंने कहा----"यह गेम तो ३ अक्तुबर से होनेवाला है."
हंसने लगे...बोले----"उस खेल में तो जो होनेवाला है वो सबको पता है. खेल तो अभी मजेदार हो रहा है. खुद मनमोहन सिंह भी झूम रहे होंगे. वाह.... क्या व्यवस्था किया है. दिल्ली में कोमनवेल्थ के नाम पर अभूतपुर्व विकास हुए हैं. इसके लिये शीला दिक्षीतजी को गोल्ड मेडल मिलना चाहिये."
"गोल्ड मेडल...? सङकों की गड्ढों में पानी भरे हुए हैं इसके लिये...?"
"दामादजी गड्ढे तो कहीं भी हो सकते हैं. शीलाजी ने अपने नहाने के लिये कोई तालाब नहीं खुदवा दिया जो लोग हल्ला मचा रहे हैं. उपर से इन्द्र देवता की कृपा से बारिश हुई है तो गड्ढे में पानी तो भरेंगे ही. इसके लिये राजनीति नहीं विज्ञान जिम्मेवार है जिसके चलते पानी गड्ढे में भर गये. जितने गहरे गड्ढे हैं उससे ज्यादा गहरी चिंता शीलाजी के चेहरे पर साफ़ दिख रही है. उपर से आशा कि किरणें दिखाई दे रही है कि भविष्य में गड्ढों में भी सङकें बनायी जा सकेंगी."
गुस्सा तो बहुत आया. जिस शीला दीदी के व्यवस्था पर पूरा देश थू-थू कर रही है उसे ससुरजी दाद दे रहे थे.मैंने पूछा "और ओवर-ब्रिज जो ढह गया उसके किये किसे गोल्ड देंगे ?"
"श्री सुरेश कलमाडी जी को. उनका पूरा ध्यान गेम पर है न कि ओवरब्रिज पर. कोई भी खेल सिर्फ़ खिलाङियों से ही आगे नहीं बढता. कोच, मैनेजर, खेल संघ के अधिकारी, खेल मंत्री, ठेकेदार और सट्टेबाजों की भी भूमिका होती है. इनमें से कोई भी ओवर-ब्रिज को ढाहने नहीं गया था. यदि ढह गया तो ईंजिनियर से पूछा जाना चाहिये कि पुल क्यों ढहा.."
" तो सारा दोष आप ईंजिनियर को देते हैं ?"
" नहीं...बिल्कुल नहीं. लोहे-सिमेंट की ब्रिज हो या आदमी--किसी के लाइफ़ की गारंटी कोई कैसे दे सकता है."
"लेकिन पापाजी फ़ुट-ओवरब्रिज के ढहने से तेइस लोग मामुली रुप से घायल हो गये और चार लोग जिन्दगी-मौत के बीच झूल रहे हैं"
" दिल्ली में तो बस में चढे लोग भी मामुली रुप से घायल हो जाते हैं. जो लोग जिन्दगी-मौत के बीच झूल रहे हैं उन्हें बधाई देता हूं---झूला झूलने का आनन्द उठावें. झूला झूलना तो हम भारतियों का प्रिय शौक रहा है. इसमें तो हमें मजा ही आता है."
" फ़िर आप किसको दोषी मानते हैं..?"
" किसी को भी नहीं. देश को कोई नुकसान नहीं हो रहा जो किसी को गलत मानूं..अपने देश का पैसा था देश के लोगों ने खाया. कोई चार्ल्स शोभराज तो पैसा नहीं लूट गया. देश की छवि भी सुधरी है."
"देश की छवि सुधरी है ? "
"बिल्कुल...अब तक अमेरिका और पश्चिमी देश कहते थे भारत गरीबों का देश है, यह सपेरों का देश है ,यहां के लोग जादू-टोना में यकीन करते हैं. अब देखियेगा दामादजी ...यही लोग कहेंगे भारत चालाकों और धूर्तों का देश है. इतना अमीर है कि सत्तर हजार करोङ रुपये फ़ूंककर सङकों पर गड्ढे बनवाती है. करोङो रुपयों से ओवरब्रिज बनवाती है जिसके रोतो-रात ढह जाने से किसी को दुख नहीं होता"
"और सुरक्षा व्यवस्था...?"
"सुरक्षा व्यवस्था तो इतनी अच्छी है कि विस्फ़ोटक लेकर भी एक ओस्ट्रेलियाई सकुशल स्टेडियम तक पहुंच गया. दिल्ली में खुलेआम बिक रहा है लेकिन विस्फ़ोटक बेचनेवाले, खरीदनेवाले और दिल्ली की देखनेवाली जनता सभी सुरक्षित हैं....इससे बढकर सुरक्षा व्यवस्था क्या होगी."
"ऐसे में खेल चलने लगेगा और सीमा-पार से आतंकवादी घुस आये तो...?"
"कौन सी सीमा. कहीं आप भारत पाक सीमा की बात तो नहीं कर रहे. जब आतंकवादी और विस्फ़ोटक इधर भी है और उधर भी...तो सीमा बीच में कैसे हो गयी. सीमा तो अफ़गानिस्तान के आस पास होनी चाहिये.दूसरी बात हम सात साल से गेम की तैयारी कर रहे हैं तो पाकिस्तान गेम चालू हो जाने के बाद तैयारी करेगा..?"..........वैसे पाकिस्तान तो शान्ति-प्रिय देश है जहां कोई भी आतंकवादी नहीं है."
"क्या कह रहे हैं आप...पाकिस्तान में कोई आतंकवादी नहीं है."
"बिल्कुल नहीं. वहां के लोग तो सिर्फ़ युद्ध का प्रशिक्षण लेते है. प्रशिक्षण के बाद वे अमेरिका, औस्ट्रेलिया और इंगलैंड चले जाते हैं...जो बाच जाते है ईंडिया आ जाते है. पाकिस्तान में तो कोई रहता नहीं...बेकार लोग बदनाम करते हैं"
"अभी तो मणिशंकर अय्यर जी कह रहे थे कि खेल का अयोजन होना चाहिये जिससे हमारा हुंह काला न हो..."
"मणिशंकरजी खुद गोरे हैं क्या जो मुंह काला हो जायेगा. गोरे तो अंग्रेज थे..हम भारतियों को तो वे लोग सदा से काले समझते रहे. जितना लूटना था लूट गये और इस हाल में छोङ गये कि और भी मुह काला होने की नौबत आ गयी है."
अब मैं नहीं सह पा रहा था. हर गलत बात को ससुरजी जस्टिफ़ाइ कर रहे थे. पुन: मेरे दिल का दर्द जुबां से निकला
"इंगलैंड और आस्ट्रेलिया के कई एथलीट भारत नहीं आ रहे हैं......?,,,,,,"
"इससे क्या फ़र्क पङता है .यहां डेंगू के सिवा उन्हें कुछ भी हाथ नहीं लगता. दौङ में मेडल नहीं जीत पाते. हमारे देश की जनता दिल्ली दौङती ही रहती है ...न ही कभी नेताजी के दर्शन होते हैं और न ही मेडल मिलता है...इसलिये दौङ का मेडल तो हमारे देश में ही रहेगा."
"बांकी खेलों में..?"
"बांकी कौनसी खेल...? स्वीमिंग....? दिल्ली में बाढ आयी हुई है. देश के तैराकों के पास प्रेक्टिस का सुनहाल मौका है...देखियेगा ये सारे मेडल देश में ही रहेंगे.जिस तरह से तैयारी चल रही है. कोई भी खेलने दिल्ली नहीं आयेंगे....अपने देश के खिलाङी भी नहीं.फ़िर सुरेश कलमाडीजी शुटिंग करेंगे, शीला दीदी तैराकी में भाग लेंगी, खेल मंत्री एथलीट बनेंगे और मनमोहन सिंहजी गोला फ़ेकेंगे. सारे के सारे मेडल देश में ही रह जायेगा. इतिहास बन जायेगा.
"मुझे नहीं लगता कि कोई भी खिलाङी खेलने नहीं आयेगा.."
"आयेंगे तो आयें...हमने मना थोङे ही किया है. यमुना का जल स्तर बढ ही रहा है. कुछ दिनों के बाद एयर-पोर्ट और बस अड्डे पर भी पानी होगा... लंदन से नई दिल्ली पानी के जहाज से आ सकें तो आयें.....उपर से यदि कहीं सङक धंस गया तो हम जिम्मेवारी नहीं लेगें और......डेंगू फ़ैलानेवाले मच्छर हमारी बात नहीं मानते ये भी जान लें. हम अच्छा खेलने पर गोल्ड की गारंटी दे सकते है...लाइफ़ की नही."
अगले भाग में ससुर जी थाइलैन्ड से मिले नौकरी के ओफर का जवाब देंगे .... क्रमश
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-4,5,6 (व्यंग्य)
मैं चुपके से सुन रहा था. उनके रेखा गणित में गणित कहीं नहीं था सिर्फ़ रेखा ही रेखा दिख रही थी. ससुरजी को कैसे समझाया जाये गणित में भी बहकी बातें ही पढाते हैं. वह कभी भी गलत नहीं बोलते लेकिन बच्चों पर तो इसका दुष्प्रभाव ही पङेगा न ?. मैंने सोचा देव-भाषा संस्कृत के साथ छेङखानी नहीं करेंगे.इसलिये मैंने उन्हें टिंकू को संस्कृत पढाने का आग्रह किया.अगले दिन आकर दरबाजे पर ठहर गया. ससुरालवालों ने सुनने की क्षमता तो बढा ही दिया है.सुनने लगा------
"विद्या ददाति लोभम , लोभम ददाति धूर्तताम
धूर्तत्वा धनमाप्नोति,धनात पाप: तत: दुखम.
अर्थ बाद मे बताउंगा पहले श्लोक लिखो.
"उत्तमा कारं ईच्छन्ति , मोटर सायकिलं मध्यमा
अधमा सायकिलं ईच्छान्ति सायकिलं महती धनं.
"असत्यं वद प्रियं वद न वद असत्यं अप्रियं
विना विलम्बे सत्यम प्रियम वद अवश्यम.
अगला श्लोक: नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र नेता ".
तभी मेरे मुंह से निकल गया---"नेता नहीं देवता.". ससुरजी बोलने लगे---" दामादजी मैंने जान-बूझकर मोडिफ़ाइ करके बताया है.आज के बच्चे देवी-देवता के बारे में नहीं जानते और देवता और नेता में अब फ़र्क ही कहां है. अब तो सुर-असुर साथ-साथ बैठकर पक्ष और विपक्ष की भूमिका निबाहते हैं. दोनो मिलकर सत्ता का अमृत पीते हैं. उपर से संसार का विष इतना विषैला हो चुका है कि आज के महादेव विष पीकर कोमा में जा चुके हैं....देखियेगा जल्दी ही कोमा से फ़ुल-स्टोप लग जायेगा ".
ओह कोमा में तो मेरी जिंदगी चली गयी थी. ससुरजी के रहते टिंकू का भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा था. अंधकार में तो रोशनी डाला जा सकता है लेकिन इसी तरह वह पढाते रहे तो उसका भविष्य गर्त में चला जायेगा.मैंने फ़िर से उस ब्लोगर मित्र से सलाह लिया तो उसने कहा कि उनसे शोपिन्ग-वोपिंग करवाओ.मेरी बात को मानते हुए ससुरजी सायंकाल टिंकू के साथ शोपिंग के लिये चले गये.
अब घर में मैं और श्रीमतीजी ही बच गये थे.कुछ ही देर में मौका देखकर अपने पिता के सेवा और सत्कार में हुई कमी से आहत होकर पानी से भरा हुआ श्रीमतीजी की आंखों का स्टोर हाउस रिसने लगा----"जानते हो जब मेरे पापा शोपिंग के लिये जाने लगे मैंने रुपयों के लिये ड्रावर खोला.उसमे गांधी जी के फ़ोटो वाला एक भी नोट नहीं निकला.मेरी आंखों मे आंसू तैर गये....पापा क्या सोचे होंगे....उन्हें कितना बुरा लगा होगा ".
मैंने कहा---" इसमे बुरा लगनेवाली क्या बात है...मेरे ससुरजी ग्रेट हैं. उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगा होगा "
" हां..वह कहने लगे कि कोई बात नहीं है, जो लोग आज के जमाने में सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलते हैं, गांधीजी उनसे दूर ही रहते हैं. आजकल वह भी उन बन्दरों से नफ़रत करते है जो उनके कहे अनुसार जीवन जीते थे. क्योंकि उन्हीं बन्दरों के चलते उन्हें गोली मारा गया था..."
मैंने समझाया----" डार्लिंग कहां से कहां बात ले जा रही हो. नोटों पर गांधीजी की तस्वीर होती है गांधीजी थोङे ही होते हैं.".वह फ़िर रोने लगी----"उनको तो गोडसे मरवाया गया था. अब तो उनकी तस्वीर ही बची है न ? ".
मैंने कहा---" स्वीटहर्ट गांधीजी तो हमारे दिल में रहते हैं ".
वह झला उठी---" मुझे बेवकूफ़ मत बनाओ छोटे से दिल में तो हर अच्छे लोग रहते हैं जिनसे हम प्यार करते हैं. लेकिन इतने महान हैं तो हमारे बङे से पेट में क्यों नहीं समा जाते जो खाली है."
मैं उछल पङा----" ब्लोग पे डालुंगा...डार्लिंग तुमने ऐसी बात कह दी जो आजतक बङे से बङे नेता भी नहीं कह पाये....मैं लिखुंगा कि जिसका पेट खाली है उसके पेट को भरो सिर्फ़ उसके दिल में ही जगह बनाने से क्या होगा.सबसे बङा सत्य तो ये है कि आज भी लोगों का पेट खाली है और सबसे बङी अहिंसा यह है कि भूखे पेट रहकर भी जिससे प्यार होता है हम उसे दिल में जगह दे देते हैं. जिसने हमारे लिये वस्त्र तक का त्याग कर दिया उसे हम दिल में जगह क्यों न दें चाहे वह महात्मा गांधी हों या मल्लिका शेरावत ".
"दामादजी बिल्कुल सही कह रहे हैं "----- तब तक ससुरजी शोपिंग कर लौट आये थे------" आज मैंने महात्मा गांधी की तस्वीर खोजी.....नहीं मिली फ़िर चिर-यौवना मल्लिका शेरावतजी की तस्वीर ले आया. यह सोचकर कि किन हालातों में इस लङकी ने अपने वस्त्र का त्याग किया होगा ?"
मैंने समानपूर्वक उन्हें समझाया---" पिताजी ये फ़िल्म की हिरोईन है. अपने शरीर को दिखाकर ये करोङो रुपये कमाती है". वह चौंक गये------" शरीर को दिखाकर करोङो रुपये ..? कैसे..?"
"लोग इनके शरीर को देखना चाहते हैं इसलिये.."
" वाह जन-इच्छा का कितना सम्मान करती है यह अबला "
" पापाजी आप गलत समझ रहे हैं. इन हिरोइन को तो एक्टिंग करना चाहिये न ? "
" ये अच्छा एक्टिंग नहीं करती क्या..?"
" अच्छा एक्टिंग करती है लेकिन आज-कल के लोग सिर्फ़ आंग-प्रदर्शन देखना चाहते हैं. "
"फ़िर.......मैं तो इसी हालात की बात कर रहा था. हालात ही ऐसे हो गये हैं जिससे इस बेचारी मल्लिका शेरावत को स्वयं अपना चीर-हरण करना पङा. कौरव- पांडव सभी एक जैसे हो गये. द्रौपदी करे भी तो क्या. महाभारत की पांचाली...आधुनिक भारत की सहस्त्रचाली बन गयी. धृतराष्ट्र तब भी अंधा था और आज भी अंधा है."---ससुरजी कुछ देर तक शांत रहे फ़िर अपनी बेटी से कहने लगे-----" अब तो बाजार भी बहुत बदल गया है. पहले सत्तु खोजा जब नहीं मिला तो कोल्ड-ड्रींक पी आया. लिट्टी-चोखा भी बाजार से गायब हो गया है .इसलिये मैंने फ़ास्ट फ़ूड पैक करवा लिया ."
हमलोगों ने काफ़ी फ़ास्टली फ़ास्ट-फ़ूड खाया और अपने कामों मे लग गये. मक्के की रोटी---सरसो का साग और आलू चोखा---सत्तु लिट्टी जैसे विशुद्ध भारतीय खानों पर आजकल फ़ास्ट-फ़ूड और कोल्ड ड्रींक हावी है. यदि इस समय आप लंच या डीनर न कर रहे हों तो मैं उस फ़ास्ट फ़ूड का एफ़ेक्ट बताना चाहुंगा. कुछ देर में खतरनाक रुप से घर में प्रदुषण भी फ़ैला और ग्लोबल वार्मिंग भी बढता चला गया. ससुर दामाद का हमारा संबंध ही इतना मधुर रहा है कि हम दोनों में से किसी ने एक दूसरे पर उंगलिया नहीं उठायी. जबकि घर में फ़ैल रहे प्रदुषण में हम दोनों के योगदान के बारे में हम कन्फ़र्म थे. विडंबना देखिये कि हमारी उंगलियां वायु ग्रहण और त्याग स्थलों के इर्द-गिर्द मंडराता रही. प्रकृर्ति के नियम के मुताबिक इन छिद्रों को बंद भी नहीं किया जा सकता. हमारा पेट तो गैस का सिलिंडर बन ही चुका था. वो तो अच्छा था कि किसी ने माचिस की तिल्ली नहीं जलायी. हम दोनों ससुर दामाद एक दूसरे की समस्या को जान रहे थे लेकिन एक दूसरे से कहते भी तो क्या..इसी बीच टिकू आकर पूछने लगा----"नानाजी ग्लोबल वार्मिंग से क्या होता है ?" पता नहीं टिंकू खुद इस समस्या से परेशान था या शरारत कर रहा था. जो भी हो ससुरजी ने उन्हें समझाना चालू किया----" ग्लोबल वार्मिंग से तापमान बढ जाता है. घर को ठंढा रखो तो सब ठीक है....लेकिन यदि ग्लेशियर पिघले लगे तो जीना मुश्किल हो जाता है."----- अचानक ससुरजी का चेहरा लाल हो गया----" कल विस्तार से बताउंगा." कहते हुए दीर्घशंका के लिये लघु कक्ष में प्रवेश कर गये. जब उनका पुराना ग्लेशियर पिघलने लगा था तो पता नहीं मेरे ग्लेशियर का क्या होनेवाला था.
भीतर से तो मेरा भी तापमान बढ गया था उपर से गैस का दवाब भी. मेरा भी जी करने लगा और स्वत: मेरे पांव ससुरजी के पद-चिह्नों पर आगे बढता चला गया.ऐसे अवसरों पर चाह कर भी शिष्टता का ख्याल रखना कठिन होता है, लेकिन मैं उनका सम्मान ही इतना करता हूं कि शौचालय के द्वार तक जाकर ठिठक गया. विपरीत परिस्थितियों में भी शिष्टता का पालन अवश्य होना चाहिये लेकिन हालात बहुत ज्यादा विपरीत होने लगी थी. उपर से ससुरजी बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहे थे. अब मैं और रोकता तो प्राण निकल जाते. घर के शौचालय में ऐसी समस्या कभी-कभी हो जाती है लेकिन सार्वजनिक शौचालयों में ऐसी समस्या नहीं आती. वहां कई कमरे होते हैं जिससे यह कार्य सुलभता से हो जाती है.. इसीलिये उसे सुलभ शौचालय कहते है. तभी दरबाजा खोलकर ससुरजी बाहर आये जैसे ओलम्पिक का मेडल लेकर आये हों. मैं भी बिना धैर्य का प्रदर्शन किये शौचालय में प्रवेश कर गया.
कुछ देर के बाद मैं भी सामान्य महसूस करने लगा. काम हो जाने के बाद यही शौचालय सोचालय बन जाता है. नींचे की ओर पीले तरल को देखकर मैं सोचने के लिये बाध्य हो गया कि किन हालातों में यमुना का नीला पानी आज पीला हो चुका है----दिल्लीवालों ने फ़ास्ट-फ़ूड और विदेशी कंपनियों के कोका कोला को पीकर यमुना का ये हाल कर दिया होगा. देवी -देवता ही अच्छे हैं जो लाख गंगा प्रदुषित हो जाये गंगाजल ही चढवाते हैं पेप्सी और थम्स-अप नहीं..अन्यथा वे भी गैस-ट्रीक के शिकार हो जाते. देश की करोङो जनता के पास एक वक्त के खाने के लिये दस रुपये नहीं हैं वहीं लोग खुद को आधुनिक दिखाने के चक्कर में मात्र २५० मिली कोल्ड ड्रींक बारह रुपये में खरीदकर पी जाते हैं.देशी-खाना, देशी-पेय पीनेवाले लोगों को बेवकूफ़ ही समझा जाता है पर बुद्धिमान तो वही है जो ५० पैसे के निंबू और १-२ रुपये के चीनी का शर्बत पीता है.
तब मैं जिस कुर्सी पर बठा था उसके नींचे लग रहा था फ़ास्ट-फ़ूड को मिक्सी में पीसकर डाल दिया गया हो. उपर से बास भी मार रहा था. मैंने तो दोनो हाथों से कान पकङ लिया था. देशी-खाना, देशी-पेय ही खाउंगा. लग रहा था जैसे पेट से ठक-ठक की आवाज आ रही थी---बाद में जाना कि ससुरजी दरबाजा ठकठका रहे थे. वह पुन: शौचालय पधारना चाहते थे. मैंने इतना समय लगा दिया कि वह न ही ठीक से दरबाजा बंद कर पाये और न ही बैठ पाये थे. कार्य स्वत: हो गया. जैसे ही बाहर आया श्रीमतीजी कहने लगी---"सो गये थे क्या? जल्दी से जाकर डाक्टर को बुला लाओ...पापा को दिखा दो". समस्या तो हम दोनो ससुर दामाद की एक ही थी लेकिन केन्द्र की सरकार की तरह श्रीमतीजी का दोहरा मापदंड मुझे अजीब सा लगा. इलाज के बाद ससुरजी स्वस्थ हो गये.
अगले भाग में कोमनवेल्थ गेम्स पर ससुरजी विचार प्रगट करेंगे.... क्रमश
भाग-४ एवं भाग-५ क्रमश: kaduasach.blogspot.com , sanjaybhaskar.blogspot.com पर भी देख सकते हैं.
"विद्या ददाति लोभम , लोभम ददाति धूर्तताम
धूर्तत्वा धनमाप्नोति,धनात पाप: तत: दुखम.
अर्थ बाद मे बताउंगा पहले श्लोक लिखो.
"उत्तमा कारं ईच्छन्ति , मोटर सायकिलं मध्यमा
अधमा सायकिलं ईच्छान्ति सायकिलं महती धनं.
"असत्यं वद प्रियं वद न वद असत्यं अप्रियं
विना विलम्बे सत्यम प्रियम वद अवश्यम.
अगला श्लोक: नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र नेता ".
तभी मेरे मुंह से निकल गया---"नेता नहीं देवता.". ससुरजी बोलने लगे---" दामादजी मैंने जान-बूझकर मोडिफ़ाइ करके बताया है.आज के बच्चे देवी-देवता के बारे में नहीं जानते और देवता और नेता में अब फ़र्क ही कहां है. अब तो सुर-असुर साथ-साथ बैठकर पक्ष और विपक्ष की भूमिका निबाहते हैं. दोनो मिलकर सत्ता का अमृत पीते हैं. उपर से संसार का विष इतना विषैला हो चुका है कि आज के महादेव विष पीकर कोमा में जा चुके हैं....देखियेगा जल्दी ही कोमा से फ़ुल-स्टोप लग जायेगा ".
ओह कोमा में तो मेरी जिंदगी चली गयी थी. ससुरजी के रहते टिंकू का भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा था. अंधकार में तो रोशनी डाला जा सकता है लेकिन इसी तरह वह पढाते रहे तो उसका भविष्य गर्त में चला जायेगा.मैंने फ़िर से उस ब्लोगर मित्र से सलाह लिया तो उसने कहा कि उनसे शोपिन्ग-वोपिंग करवाओ.मेरी बात को मानते हुए ससुरजी सायंकाल टिंकू के साथ शोपिंग के लिये चले गये.
अब घर में मैं और श्रीमतीजी ही बच गये थे.कुछ ही देर में मौका देखकर अपने पिता के सेवा और सत्कार में हुई कमी से आहत होकर पानी से भरा हुआ श्रीमतीजी की आंखों का स्टोर हाउस रिसने लगा----"जानते हो जब मेरे पापा शोपिंग के लिये जाने लगे मैंने रुपयों के लिये ड्रावर खोला.उसमे गांधी जी के फ़ोटो वाला एक भी नोट नहीं निकला.मेरी आंखों मे आंसू तैर गये....पापा क्या सोचे होंगे....उन्हें कितना बुरा लगा होगा ".
मैंने कहा---" इसमे बुरा लगनेवाली क्या बात है...मेरे ससुरजी ग्रेट हैं. उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगा होगा "
" हां..वह कहने लगे कि कोई बात नहीं है, जो लोग आज के जमाने में सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलते हैं, गांधीजी उनसे दूर ही रहते हैं. आजकल वह भी उन बन्दरों से नफ़रत करते है जो उनके कहे अनुसार जीवन जीते थे. क्योंकि उन्हीं बन्दरों के चलते उन्हें गोली मारा गया था..."
मैंने समझाया----" डार्लिंग कहां से कहां बात ले जा रही हो. नोटों पर गांधीजी की तस्वीर होती है गांधीजी थोङे ही होते हैं.".वह फ़िर रोने लगी----"उनको तो गोडसे मरवाया गया था. अब तो उनकी तस्वीर ही बची है न ? ".
मैंने कहा---" स्वीटहर्ट गांधीजी तो हमारे दिल में रहते हैं ".
वह झला उठी---" मुझे बेवकूफ़ मत बनाओ छोटे से दिल में तो हर अच्छे लोग रहते हैं जिनसे हम प्यार करते हैं. लेकिन इतने महान हैं तो हमारे बङे से पेट में क्यों नहीं समा जाते जो खाली है."
मैं उछल पङा----" ब्लोग पे डालुंगा...डार्लिंग तुमने ऐसी बात कह दी जो आजतक बङे से बङे नेता भी नहीं कह पाये....मैं लिखुंगा कि जिसका पेट खाली है उसके पेट को भरो सिर्फ़ उसके दिल में ही जगह बनाने से क्या होगा.सबसे बङा सत्य तो ये है कि आज भी लोगों का पेट खाली है और सबसे बङी अहिंसा यह है कि भूखे पेट रहकर भी जिससे प्यार होता है हम उसे दिल में जगह दे देते हैं. जिसने हमारे लिये वस्त्र तक का त्याग कर दिया उसे हम दिल में जगह क्यों न दें चाहे वह महात्मा गांधी हों या मल्लिका शेरावत ".
"दामादजी बिल्कुल सही कह रहे हैं "----- तब तक ससुरजी शोपिंग कर लौट आये थे------" आज मैंने महात्मा गांधी की तस्वीर खोजी.....नहीं मिली फ़िर चिर-यौवना मल्लिका शेरावतजी की तस्वीर ले आया. यह सोचकर कि किन हालातों में इस लङकी ने अपने वस्त्र का त्याग किया होगा ?"
मैंने समानपूर्वक उन्हें समझाया---" पिताजी ये फ़िल्म की हिरोईन है. अपने शरीर को दिखाकर ये करोङो रुपये कमाती है". वह चौंक गये------" शरीर को दिखाकर करोङो रुपये ..? कैसे..?"
"लोग इनके शरीर को देखना चाहते हैं इसलिये.."
" वाह जन-इच्छा का कितना सम्मान करती है यह अबला "
" पापाजी आप गलत समझ रहे हैं. इन हिरोइन को तो एक्टिंग करना चाहिये न ? "
" ये अच्छा एक्टिंग नहीं करती क्या..?"
" अच्छा एक्टिंग करती है लेकिन आज-कल के लोग सिर्फ़ आंग-प्रदर्शन देखना चाहते हैं. "
"फ़िर.......मैं तो इसी हालात की बात कर रहा था. हालात ही ऐसे हो गये हैं जिससे इस बेचारी मल्लिका शेरावत को स्वयं अपना चीर-हरण करना पङा. कौरव- पांडव सभी एक जैसे हो गये. द्रौपदी करे भी तो क्या. महाभारत की पांचाली...आधुनिक भारत की सहस्त्रचाली बन गयी. धृतराष्ट्र तब भी अंधा था और आज भी अंधा है."---ससुरजी कुछ देर तक शांत रहे फ़िर अपनी बेटी से कहने लगे-----" अब तो बाजार भी बहुत बदल गया है. पहले सत्तु खोजा जब नहीं मिला तो कोल्ड-ड्रींक पी आया. लिट्टी-चोखा भी बाजार से गायब हो गया है .इसलिये मैंने फ़ास्ट फ़ूड पैक करवा लिया ."
हमलोगों ने काफ़ी फ़ास्टली फ़ास्ट-फ़ूड खाया और अपने कामों मे लग गये. मक्के की रोटी---सरसो का साग और आलू चोखा---सत्तु लिट्टी जैसे विशुद्ध भारतीय खानों पर आजकल फ़ास्ट-फ़ूड और कोल्ड ड्रींक हावी है. यदि इस समय आप लंच या डीनर न कर रहे हों तो मैं उस फ़ास्ट फ़ूड का एफ़ेक्ट बताना चाहुंगा. कुछ देर में खतरनाक रुप से घर में प्रदुषण भी फ़ैला और ग्लोबल वार्मिंग भी बढता चला गया. ससुर दामाद का हमारा संबंध ही इतना मधुर रहा है कि हम दोनों में से किसी ने एक दूसरे पर उंगलिया नहीं उठायी. जबकि घर में फ़ैल रहे प्रदुषण में हम दोनों के योगदान के बारे में हम कन्फ़र्म थे. विडंबना देखिये कि हमारी उंगलियां वायु ग्रहण और त्याग स्थलों के इर्द-गिर्द मंडराता रही. प्रकृर्ति के नियम के मुताबिक इन छिद्रों को बंद भी नहीं किया जा सकता. हमारा पेट तो गैस का सिलिंडर बन ही चुका था. वो तो अच्छा था कि किसी ने माचिस की तिल्ली नहीं जलायी. हम दोनों ससुर दामाद एक दूसरे की समस्या को जान रहे थे लेकिन एक दूसरे से कहते भी तो क्या..इसी बीच टिकू आकर पूछने लगा----"नानाजी ग्लोबल वार्मिंग से क्या होता है ?" पता नहीं टिंकू खुद इस समस्या से परेशान था या शरारत कर रहा था. जो भी हो ससुरजी ने उन्हें समझाना चालू किया----" ग्लोबल वार्मिंग से तापमान बढ जाता है. घर को ठंढा रखो तो सब ठीक है....लेकिन यदि ग्लेशियर पिघले लगे तो जीना मुश्किल हो जाता है."----- अचानक ससुरजी का चेहरा लाल हो गया----" कल विस्तार से बताउंगा." कहते हुए दीर्घशंका के लिये लघु कक्ष में प्रवेश कर गये. जब उनका पुराना ग्लेशियर पिघलने लगा था तो पता नहीं मेरे ग्लेशियर का क्या होनेवाला था.
भीतर से तो मेरा भी तापमान बढ गया था उपर से गैस का दवाब भी. मेरा भी जी करने लगा और स्वत: मेरे पांव ससुरजी के पद-चिह्नों पर आगे बढता चला गया.ऐसे अवसरों पर चाह कर भी शिष्टता का ख्याल रखना कठिन होता है, लेकिन मैं उनका सम्मान ही इतना करता हूं कि शौचालय के द्वार तक जाकर ठिठक गया. विपरीत परिस्थितियों में भी शिष्टता का पालन अवश्य होना चाहिये लेकिन हालात बहुत ज्यादा विपरीत होने लगी थी. उपर से ससुरजी बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहे थे. अब मैं और रोकता तो प्राण निकल जाते. घर के शौचालय में ऐसी समस्या कभी-कभी हो जाती है लेकिन सार्वजनिक शौचालयों में ऐसी समस्या नहीं आती. वहां कई कमरे होते हैं जिससे यह कार्य सुलभता से हो जाती है.. इसीलिये उसे सुलभ शौचालय कहते है. तभी दरबाजा खोलकर ससुरजी बाहर आये जैसे ओलम्पिक का मेडल लेकर आये हों. मैं भी बिना धैर्य का प्रदर्शन किये शौचालय में प्रवेश कर गया.
कुछ देर के बाद मैं भी सामान्य महसूस करने लगा. काम हो जाने के बाद यही शौचालय सोचालय बन जाता है. नींचे की ओर पीले तरल को देखकर मैं सोचने के लिये बाध्य हो गया कि किन हालातों में यमुना का नीला पानी आज पीला हो चुका है----दिल्लीवालों ने फ़ास्ट-फ़ूड और विदेशी कंपनियों के कोका कोला को पीकर यमुना का ये हाल कर दिया होगा. देवी -देवता ही अच्छे हैं जो लाख गंगा प्रदुषित हो जाये गंगाजल ही चढवाते हैं पेप्सी और थम्स-अप नहीं..अन्यथा वे भी गैस-ट्रीक के शिकार हो जाते. देश की करोङो जनता के पास एक वक्त के खाने के लिये दस रुपये नहीं हैं वहीं लोग खुद को आधुनिक दिखाने के चक्कर में मात्र २५० मिली कोल्ड ड्रींक बारह रुपये में खरीदकर पी जाते हैं.देशी-खाना, देशी-पेय पीनेवाले लोगों को बेवकूफ़ ही समझा जाता है पर बुद्धिमान तो वही है जो ५० पैसे के निंबू और १-२ रुपये के चीनी का शर्बत पीता है.
तब मैं जिस कुर्सी पर बठा था उसके नींचे लग रहा था फ़ास्ट-फ़ूड को मिक्सी में पीसकर डाल दिया गया हो. उपर से बास भी मार रहा था. मैंने तो दोनो हाथों से कान पकङ लिया था. देशी-खाना, देशी-पेय ही खाउंगा. लग रहा था जैसे पेट से ठक-ठक की आवाज आ रही थी---बाद में जाना कि ससुरजी दरबाजा ठकठका रहे थे. वह पुन: शौचालय पधारना चाहते थे. मैंने इतना समय लगा दिया कि वह न ही ठीक से दरबाजा बंद कर पाये और न ही बैठ पाये थे. कार्य स्वत: हो गया. जैसे ही बाहर आया श्रीमतीजी कहने लगी---"सो गये थे क्या? जल्दी से जाकर डाक्टर को बुला लाओ...पापा को दिखा दो". समस्या तो हम दोनो ससुर दामाद की एक ही थी लेकिन केन्द्र की सरकार की तरह श्रीमतीजी का दोहरा मापदंड मुझे अजीब सा लगा. इलाज के बाद ससुरजी स्वस्थ हो गये.
अगले भाग में कोमनवेल्थ गेम्स पर ससुरजी विचार प्रगट करेंगे.... क्रमश
भाग-४ एवं भाग-५ क्रमश: kaduasach.blogspot.com , sanjaybhaskar.blogspot.com पर भी देख सकते हैं.
Sunday, September 19, 2010
मैं ,श्रीमतीजी और..........भाग ३ (व्यंग्य)
उसने अपना भाषण जारी रखा ---" शान्ति का सन्देश देने से भले ही पब्लिक न माने लेकिन नेता , पुलिस , अपराधी सबके साथ आपके सम्बन्ध अच्छे हो जायेंगे ......लेकिन क्रान्ति के नाम पर तो ये लोग मुझे विधवा कर देंगे .फिर बिना परेशानी के मैं अपनी जिन्दगी कैसे काट पाउंगी ?".
अब मुझे वर्दास्त नहीं हो रहा था----" तो क्या तुम्हारी परेशानी मैं हूँ ?"
" नहीं जी ये तो मेरे पापा के विचार थे .मैंने तो सिर्फ उनका समर्थन किया था "
" समर्थन...?"---अब मैं सहन नहीं कर पा रहा था---" समर्थन किस बात के लिए ?'.
"इस बात के लिए की वह महिलाओं का दर्द समझते हैं.".
"क्या बहकी बातें कर रही हो ? तुम्हारे कहने का मतलब महिलाओं का दर्द पुरुषों के चलते है ?"
" नहीं जी. मैंने ऐसा कब कहा. यदि पुरुषों ने महिलाओं को दर्द दिया है तो चूड़ी और बिंदी लाकर खुश भी तो कर देता है और यदि डांटते -पीटते हो तो शाम को पिज्जा भी तो खिलाते हो"----श्रीमतीजी के हंसी में दर्द के छीटे साफ़ दिखाई दे रहे थे. मैं जान रहा था जल्दी ही उसकी आँखों में घरियाली आंसू के सैलाब आनेवाले हैं.
ससुरजी जब भी आते हैं चाहे तो सैलाब आता है या तूफ़ान.अगले दिन मेरे एक ब्लोगर मित्र ने सुझाव दिया की ससुरजी को बच्चे को पढ़ाने के काम में लगा दिया करो. मैंने ऐसा ही किया.जब शाम को घर पहुंचा तो चुप चाप खिड़की से झांककर देखा वह टिंकू को पढ़ा रहे थे---" पढो...ए फॉर अमीर , बी फॉर बेईमान.
टिंकू ने टोका---" लेकिन पापा तो ए फॉर एप्पल पढ़ाते हैं....."
"बेटे एप्पल से तुम याद नहीं रख पाओगे ...आजकल एप्पल कहीं दिखता नहीं अस्सी रुपये किलो चल रहा है और आज के महगाई के दौर में अमीर लोग तो फुटपाथ पर भी मिल जायेंगे. पढो सी फॉर करप्सन " टिंकू ने फिर टोका------"नानाजी ....ये भी एप्पल और बनाना की तरह कोई फल होता है क्या ?".
" नहीं..करप्सन पौधे का नाम है जिसे आजकल हर डिपार्टमेंट में लगा दिया गया है.इसका फल सीधे कैश के रूप में निकलता है." ओह गोड ससुरजी बच्चे को पढ़ाने के बदले बिगार रहे थे.मैं कमरे में घुसा और बोला-----" पापाजी चलिए दूसरे रूम में बैठकर बात करते हैं ". वह बोले---" नहीं दामादजी मुझे अपने नाती को पढ़ाने दीजिये----पढो डी फॉर दंगा ". अब उनको रोकना बहुत जरुरी था.सो मैंने कहा---" पापाजी मुझे आपसे बहुत जरुरी सलाह लेना है." इसबार वह मान गए.
मैंने सोचा गणित में बहकी बातें करने की संभावना नहीं है इसलिए मैंने उनसे आग्रह किया की टिंकू को गणित पढ़ाया करें. अगले दिन शाम को वह टिंकू को रेखा-गणित पढ़ाने लगे ------- ---
" रखा-गणित को समझाने के लिए पहले रेखा को जानो.पहले लोग बिंदु से शुरू करते थे तब जाकर रेखा के बारे में जान पाते थे.आजकल लोग रेखा से शुरू कर रेखा पर ही गणित समाप्त कर देते हैं.रेखा को जानने के प्रयास में कई विद्वान् स्वर्ग सिधार गए.मेरे जैसे कई लोग जिन्हें रेखा से लगाव रहा युवा से वृद्ध होते गए लेकिन रेखा जस की तस बनी रही.उसका महत्व कभी भी कम नहीं हुआ. गणित, वाणिज्य और कला के क्षेत्र में रेखा के योगदान को कभी भी नहीं भूला जा सकेगा.यदि रेखा न होती तो आज से तीस चालीस वर्ष पूर्व ही कला दम तोड़ देती, मुंबई जैसी महानगरी का वाणिज्य रसातल में चला जाता और कई लोगों का जीवन गणित कागजी बनाकर रह जाता.रेखा को आधार बनाकर जितने भी थ्योरेम्स लिखे गए लोगों के बीच हिट हुए.आधार ही नहीं वह लम्ब और कर्ण भी बनी ऊपर से सौन्दर्य तो उसमें है ही. बड़े से बड़े नटवरलाल भी सरल रेखा के खेल के सामने बौने सावित होते रहे .मुकद्दर के सिकंदर भी अपने मुकद्दर की रेखा को बदल नहीं पाए .मुझे लगता है रेखा की प्रासंगिकता कभी भी कम नहीं होगी. कभी अंतहीन सीधी रेखा लोगों के अग्निपथ को सरल -पथ बनाती रही तो कभी शराब के प्याले की परिधि की तरह किसी वृत्त का रूप लेती रही जिसके क्रन्द्रक में मयखाना ही समा जाया करता था. सत्तर के दशक में आज की तरह ना ही कैट हुआ करती थी न ही करिश्मा होती थी.तब पढ़ाई का माहौल अच्छा था. वह रेखा का स्वर्णकाल था.उस समय सभी छात्र रेखा के अध्ययन में लगे रहते थे.....लेकिन कोई भी रेखा को नहीं जान पाया.
अगले भाग में ससुरजी टिंकू को संस्कृत के श्लोक पढ़ाएंगे.............क्रमश:
अब मुझे वर्दास्त नहीं हो रहा था----" तो क्या तुम्हारी परेशानी मैं हूँ ?"
" नहीं जी ये तो मेरे पापा के विचार थे .मैंने तो सिर्फ उनका समर्थन किया था "
" समर्थन...?"---अब मैं सहन नहीं कर पा रहा था---" समर्थन किस बात के लिए ?'.
"इस बात के लिए की वह महिलाओं का दर्द समझते हैं.".
"क्या बहकी बातें कर रही हो ? तुम्हारे कहने का मतलब महिलाओं का दर्द पुरुषों के चलते है ?"
" नहीं जी. मैंने ऐसा कब कहा. यदि पुरुषों ने महिलाओं को दर्द दिया है तो चूड़ी और बिंदी लाकर खुश भी तो कर देता है और यदि डांटते -पीटते हो तो शाम को पिज्जा भी तो खिलाते हो"----श्रीमतीजी के हंसी में दर्द के छीटे साफ़ दिखाई दे रहे थे. मैं जान रहा था जल्दी ही उसकी आँखों में घरियाली आंसू के सैलाब आनेवाले हैं.
ससुरजी जब भी आते हैं चाहे तो सैलाब आता है या तूफ़ान.अगले दिन मेरे एक ब्लोगर मित्र ने सुझाव दिया की ससुरजी को बच्चे को पढ़ाने के काम में लगा दिया करो. मैंने ऐसा ही किया.जब शाम को घर पहुंचा तो चुप चाप खिड़की से झांककर देखा वह टिंकू को पढ़ा रहे थे---" पढो...ए फॉर अमीर , बी फॉर बेईमान.
टिंकू ने टोका---" लेकिन पापा तो ए फॉर एप्पल पढ़ाते हैं....."
"बेटे एप्पल से तुम याद नहीं रख पाओगे ...आजकल एप्पल कहीं दिखता नहीं अस्सी रुपये किलो चल रहा है और आज के महगाई के दौर में अमीर लोग तो फुटपाथ पर भी मिल जायेंगे. पढो सी फॉर करप्सन " टिंकू ने फिर टोका------"नानाजी ....ये भी एप्पल और बनाना की तरह कोई फल होता है क्या ?".
" नहीं..करप्सन पौधे का नाम है जिसे आजकल हर डिपार्टमेंट में लगा दिया गया है.इसका फल सीधे कैश के रूप में निकलता है." ओह गोड ससुरजी बच्चे को पढ़ाने के बदले बिगार रहे थे.मैं कमरे में घुसा और बोला-----" पापाजी चलिए दूसरे रूम में बैठकर बात करते हैं ". वह बोले---" नहीं दामादजी मुझे अपने नाती को पढ़ाने दीजिये----पढो डी फॉर दंगा ". अब उनको रोकना बहुत जरुरी था.सो मैंने कहा---" पापाजी मुझे आपसे बहुत जरुरी सलाह लेना है." इसबार वह मान गए.
मैंने सोचा गणित में बहकी बातें करने की संभावना नहीं है इसलिए मैंने उनसे आग्रह किया की टिंकू को गणित पढ़ाया करें. अगले दिन शाम को वह टिंकू को रेखा-गणित पढ़ाने लगे ------- ---
" रखा-गणित को समझाने के लिए पहले रेखा को जानो.पहले लोग बिंदु से शुरू करते थे तब जाकर रेखा के बारे में जान पाते थे.आजकल लोग रेखा से शुरू कर रेखा पर ही गणित समाप्त कर देते हैं.रेखा को जानने के प्रयास में कई विद्वान् स्वर्ग सिधार गए.मेरे जैसे कई लोग जिन्हें रेखा से लगाव रहा युवा से वृद्ध होते गए लेकिन रेखा जस की तस बनी रही.उसका महत्व कभी भी कम नहीं हुआ. गणित, वाणिज्य और कला के क्षेत्र में रेखा के योगदान को कभी भी नहीं भूला जा सकेगा.यदि रेखा न होती तो आज से तीस चालीस वर्ष पूर्व ही कला दम तोड़ देती, मुंबई जैसी महानगरी का वाणिज्य रसातल में चला जाता और कई लोगों का जीवन गणित कागजी बनाकर रह जाता.रेखा को आधार बनाकर जितने भी थ्योरेम्स लिखे गए लोगों के बीच हिट हुए.आधार ही नहीं वह लम्ब और कर्ण भी बनी ऊपर से सौन्दर्य तो उसमें है ही. बड़े से बड़े नटवरलाल भी सरल रेखा के खेल के सामने बौने सावित होते रहे .मुकद्दर के सिकंदर भी अपने मुकद्दर की रेखा को बदल नहीं पाए .मुझे लगता है रेखा की प्रासंगिकता कभी भी कम नहीं होगी. कभी अंतहीन सीधी रेखा लोगों के अग्निपथ को सरल -पथ बनाती रही तो कभी शराब के प्याले की परिधि की तरह किसी वृत्त का रूप लेती रही जिसके क्रन्द्रक में मयखाना ही समा जाया करता था. सत्तर के दशक में आज की तरह ना ही कैट हुआ करती थी न ही करिश्मा होती थी.तब पढ़ाई का माहौल अच्छा था. वह रेखा का स्वर्णकाल था.उस समय सभी छात्र रेखा के अध्ययन में लगे रहते थे.....लेकिन कोई भी रेखा को नहीं जान पाया.
अगले भाग में ससुरजी टिंकू को संस्कृत के श्लोक पढ़ाएंगे.............क्रमश:
Thursday, September 16, 2010
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-2(व्यंग्य)
)
सोचते सोचते मैं "ससुर" शब्द का लैंगिक विश्लेषण करने लगा. यह शब्द पुलिंग होता है और आजीवन पुलिंग ही बना रहता है यदि और केवल यदि दामाद शब्द को स्त्रीलिंग शब्द की भांति अर्थ दे.कभी-कभी पुलिंग से स्त्रीलिंग शब्द बनाने पर शब्द एक दूसरे के विपरीतार्थक भी हो जाते है.....मेरे मामले मे यह बिल्कुल सही बैठता है.जहां ससुरजी असुर की तरह पेश आते हैं वहीं मेरी सासू मां साक्षात देवी हैं यदि नागिन बनकर मेरी श्रीमतीजी के कानों में फ़ूंक न मारा करें तो.
मैं यह सब सोच ही रहा था.तभी अचानक श्रीमतीजी आकर बोली----"लगता है मेरे पापा के आने से तुम खुश नहीं हुए...". मैंने अपने भाव पर नियंत्रण करते हुए कहा---
" ऐसी बात नहीं है. मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं है. वैसे तुम्हारे पापा किस वक्त आ टपके..?".वह गुस्सा गयी---
"ऐसे क्यों बोल रहे हो जी ?".भाव को कंट्रोल करने के चक्कर में मैं भाषा पर कंट्रोल ही नहीं रख पाया था.मैं पूरा ध्यान भाषा पर फ़ोकस करते हुए कहा...."प्रिये...तुम्हारे परम पूज्य पिताश्री किस सुकाल में पधारे थे ?"
उसने कहा--"तीन घंटे हो गये....". "तीन घंटे...?"---मेरे जवाब प्रश्न कम विस्मयादिबोधक थे.----"तीन घंटे में तो तुम उन्हें घर के इतिहास से लेकर मनोविज्ञान तक बता दिया हिगा..?"
"हां, मैंने तुम्हारे ब्लोग के बारे में भी बताया. बहुत खुश हुए. कहने लगे कि फ़ालतु लोगों के लिये फ़ालतु समय का इससे अच्छा उपयोग कुछ भी नहीं हो सकता. मैंने जब कहा कि टिप्पनियां कम मिल रही है तो उन्होंने मशविरा दिया कि भिखारियों की तरह भगवान या अल्लाह के नाम पे मांगेंगे तो जरुर मिलेगा. नहीं तो आजकल लोग देह का मैल भी मुफ़्त में नहीं देते.लेकिन तुम्हारे ब्लोग "क्रांतिदूत" से वह चिंतित है.कहने लगे क्रांति तो अपने आप आयेगी दूत बननें की जरुरत नहीं है.क्रांति के दूत के साथ कभी अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता. दूत ही बनना है तो शांतिदूत बनें."
मैंने कहा---"तुमने यह नहीं पूछा कि शान्तिदूत बनुंगा तो लिखुंगा क्या..?"
"हां..पूछा...कहने लगे......देश के महान नेता लोग, मंत्री महोदय भले ही खुलेआम खजाना लूट रहे हों---फ़िर भी शांति बनाये रखें.......खुलेआम चौराहे पर किसी की इज्जत लूटी जा रही हो---फ़िर भी शांति बनाये रखें.....आतंकवादी और नक्सली खुलकर लोगों को मार रहे हों---फ़िर भी शांति बनाये रखें...खुलेआम मजहब के नाम पर नफ़रत फ़ैलाये जा रहे हों---फ़िर भी शांति बनाये रखें.....भ्रष्टाचार और मंहगाई बेलगाम हो जाये--फ़िर भी शांति बनाये रखें. उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि देश भांङ में जाये---फ़िर भी शांति बनाये रखें.......
क्रमश:
सोचते सोचते मैं "ससुर" शब्द का लैंगिक विश्लेषण करने लगा. यह शब्द पुलिंग होता है और आजीवन पुलिंग ही बना रहता है यदि और केवल यदि दामाद शब्द को स्त्रीलिंग शब्द की भांति अर्थ दे.कभी-कभी पुलिंग से स्त्रीलिंग शब्द बनाने पर शब्द एक दूसरे के विपरीतार्थक भी हो जाते है.....मेरे मामले मे यह बिल्कुल सही बैठता है.जहां ससुरजी असुर की तरह पेश आते हैं वहीं मेरी सासू मां साक्षात देवी हैं यदि नागिन बनकर मेरी श्रीमतीजी के कानों में फ़ूंक न मारा करें तो.
मैं यह सब सोच ही रहा था.तभी अचानक श्रीमतीजी आकर बोली----"लगता है मेरे पापा के आने से तुम खुश नहीं हुए...". मैंने अपने भाव पर नियंत्रण करते हुए कहा---
" ऐसी बात नहीं है. मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं है. वैसे तुम्हारे पापा किस वक्त आ टपके..?".वह गुस्सा गयी---
"ऐसे क्यों बोल रहे हो जी ?".भाव को कंट्रोल करने के चक्कर में मैं भाषा पर कंट्रोल ही नहीं रख पाया था.मैं पूरा ध्यान भाषा पर फ़ोकस करते हुए कहा...."प्रिये...तुम्हारे परम पूज्य पिताश्री किस सुकाल में पधारे थे ?"
उसने कहा--"तीन घंटे हो गये....". "तीन घंटे...?"---मेरे जवाब प्रश्न कम विस्मयादिबोधक थे.----"तीन घंटे में तो तुम उन्हें घर के इतिहास से लेकर मनोविज्ञान तक बता दिया हिगा..?"
"हां, मैंने तुम्हारे ब्लोग के बारे में भी बताया. बहुत खुश हुए. कहने लगे कि फ़ालतु लोगों के लिये फ़ालतु समय का इससे अच्छा उपयोग कुछ भी नहीं हो सकता. मैंने जब कहा कि टिप्पनियां कम मिल रही है तो उन्होंने मशविरा दिया कि भिखारियों की तरह भगवान या अल्लाह के नाम पे मांगेंगे तो जरुर मिलेगा. नहीं तो आजकल लोग देह का मैल भी मुफ़्त में नहीं देते.लेकिन तुम्हारे ब्लोग "क्रांतिदूत" से वह चिंतित है.कहने लगे क्रांति तो अपने आप आयेगी दूत बननें की जरुरत नहीं है.क्रांति के दूत के साथ कभी अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता. दूत ही बनना है तो शांतिदूत बनें."
मैंने कहा---"तुमने यह नहीं पूछा कि शान्तिदूत बनुंगा तो लिखुंगा क्या..?"
"हां..पूछा...कहने लगे......देश के महान नेता लोग, मंत्री महोदय भले ही खुलेआम खजाना लूट रहे हों---फ़िर भी शांति बनाये रखें.......खुलेआम चौराहे पर किसी की इज्जत लूटी जा रही हो---फ़िर भी शांति बनाये रखें.....आतंकवादी और नक्सली खुलकर लोगों को मार रहे हों---फ़िर भी शांति बनाये रखें...खुलेआम मजहब के नाम पर नफ़रत फ़ैलाये जा रहे हों---फ़िर भी शांति बनाये रखें.....भ्रष्टाचार और मंहगाई बेलगाम हो जाये--फ़िर भी शांति बनाये रखें. उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि देश भांङ में जाये---फ़िर भी शांति बनाये रखें.......
क्रमश:
Wednesday, September 15, 2010
मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१(व्यंग्य)
कार्यालय से प्रस्थान कर घर पहुंचने ही वाला था ,आज फ़िर श्रीमतीजी द्वार पर प्रतीक्षा कर रही थी.मैंने गहरी सांसें ली अवश्य कोई अशुभ क्षण आ गया है.
"जानते हो आज मेरे पापा घर आये हैं "--वह बोली.
"तो कौन सा दिन में चांद निकल आया है. जो इतनी खुश हो रही हो. यह समाचार कुछ देर के बाद नहीं दे सकती थी."---मैं स्वयं को नियंत्रित नहीं रख पाया था. वह बोली---"मैं सरप्राइज दे रही हूं और तुम..........."
" सरप्राइज दे रही हो या हार्ट अटेक करवाना चाहती हो...?जिससे जमकर रेल्वे का पेंशन खा सको......ये सब समाचार कम से कम दस दिन पहले बता दिया करो........."----मैं तब भी सहज नहीं हो पाया था. कमरे में जाकर चुप-चाप बैठ गया.
तीन अक्षरों से बना यह शब्द "ससुर" आकारान्त में आते ही ससुरा (गाली) बन जाता है अर्थात एक संज्ञा से दूसरी संज्ञा या संबोधन बन जाता है.संधि विच्छेद करें तो स+सुर ,लेकिन अक्सर ये दामाद के सुर को बिगाङ दिया करते है.बिना कोई कुसूर किये ही यह दामाद के साथ असुरों सा व्यवहार करते हैं जो ससुर का व्याकरण कि दृष्टि से विपरीतार्थक है.वैयाकरणाचार्यों को चुनौती देते हुए मेरे हिसाब से तो ससुर,असुर और कुसूर समानार्थक शब्द हैं.समानार्थक ही नहीं एकार्थक कहिये. हिन्दी के जन्म-दाताओं ने यदि इन तीनों शब्दों के बदले एक ही शब्द बनाया होता तो मातृ-भाषा हिन्दी भी सरला होती और लोगों का जीवन भी कुशल होता.
साहित्य और व्याकरण से हटना नहीं चाहता. मूल शब्द सुर ही है अर्थात देवता, वीर आदि.अब "अ" पहले लगा दें तो असुर अर्थात राक्षस....लेकिन दामादों का दुर्भाग्य देखिये सुर में स लगाकर ससुरा क्षमा करें ससुर बनाया गया. यदि वे सचमुच देवता या वीर होते तो सीधे सुर कहा जाता.यहां सुर में ’स’ लगाकर पूर्व के विद्वानों ने सीधे संकेत किया है कि ससुर अर्थात कन्या के पिता उतने ही सुर हैं जितना उनमें स लगा है बांकी उतने ही असुर जितना स नहीं लगा है. अर्थात उनके विशेषण ससुरत्व या ससुरता से उनके योग्यता को मांपना चाहिये.यह शब्द अक्सर करण कारक बनकर संबंध कारक को बुरी तरह से प्रभावित करते हैं. कर्ता , कर्म और सम्बोधन कारकों में बिना गलती किये सम्प्रदान कारक पर कार्य करें तो संबंध कारक सुरक्षित रहेंगे ,अन्यथा शनि सहित अन्य सभी ग्रहों के अच्छे प्रभाव भी उन्हें करण कारक बनने से नहीं रोक सकते. लाख भाषा और साहित्य को मधुर कर लें ससुर के मामले में तो व्याकरण का ही चलता है.......
अगले भाग मे इस शब्द का लैंगिक विश्लेषण करेंगे........क्रमश:
"जानते हो आज मेरे पापा घर आये हैं "--वह बोली.
"तो कौन सा दिन में चांद निकल आया है. जो इतनी खुश हो रही हो. यह समाचार कुछ देर के बाद नहीं दे सकती थी."---मैं स्वयं को नियंत्रित नहीं रख पाया था. वह बोली---"मैं सरप्राइज दे रही हूं और तुम..........."
" सरप्राइज दे रही हो या हार्ट अटेक करवाना चाहती हो...?जिससे जमकर रेल्वे का पेंशन खा सको......ये सब समाचार कम से कम दस दिन पहले बता दिया करो........."----मैं तब भी सहज नहीं हो पाया था. कमरे में जाकर चुप-चाप बैठ गया.
तीन अक्षरों से बना यह शब्द "ससुर" आकारान्त में आते ही ससुरा (गाली) बन जाता है अर्थात एक संज्ञा से दूसरी संज्ञा या संबोधन बन जाता है.संधि विच्छेद करें तो स+सुर ,लेकिन अक्सर ये दामाद के सुर को बिगाङ दिया करते है.बिना कोई कुसूर किये ही यह दामाद के साथ असुरों सा व्यवहार करते हैं जो ससुर का व्याकरण कि दृष्टि से विपरीतार्थक है.वैयाकरणाचार्यों को चुनौती देते हुए मेरे हिसाब से तो ससुर,असुर और कुसूर समानार्थक शब्द हैं.समानार्थक ही नहीं एकार्थक कहिये. हिन्दी के जन्म-दाताओं ने यदि इन तीनों शब्दों के बदले एक ही शब्द बनाया होता तो मातृ-भाषा हिन्दी भी सरला होती और लोगों का जीवन भी कुशल होता.
साहित्य और व्याकरण से हटना नहीं चाहता. मूल शब्द सुर ही है अर्थात देवता, वीर आदि.अब "अ" पहले लगा दें तो असुर अर्थात राक्षस....लेकिन दामादों का दुर्भाग्य देखिये सुर में स लगाकर ससुरा क्षमा करें ससुर बनाया गया. यदि वे सचमुच देवता या वीर होते तो सीधे सुर कहा जाता.यहां सुर में ’स’ लगाकर पूर्व के विद्वानों ने सीधे संकेत किया है कि ससुर अर्थात कन्या के पिता उतने ही सुर हैं जितना उनमें स लगा है बांकी उतने ही असुर जितना स नहीं लगा है. अर्थात उनके विशेषण ससुरत्व या ससुरता से उनके योग्यता को मांपना चाहिये.यह शब्द अक्सर करण कारक बनकर संबंध कारक को बुरी तरह से प्रभावित करते हैं. कर्ता , कर्म और सम्बोधन कारकों में बिना गलती किये सम्प्रदान कारक पर कार्य करें तो संबंध कारक सुरक्षित रहेंगे ,अन्यथा शनि सहित अन्य सभी ग्रहों के अच्छे प्रभाव भी उन्हें करण कारक बनने से नहीं रोक सकते. लाख भाषा और साहित्य को मधुर कर लें ससुर के मामले में तो व्याकरण का ही चलता है.......
अगले भाग मे इस शब्द का लैंगिक विश्लेषण करेंगे........क्रमश:
Tuesday, September 14, 2010
मदर लेंग्वेज--व्यंग्य
डिपार्टमेंट के एच ओ डी का फ़ोन आया.."गुड मोर्निंग...आज से सभी वर्क मदर लेंग्वेज में करना है"---लगा जैसे साहब रोमन स्क्रिप्ट पढ रहे हों----"जी. एम साहब का ओर्डर है कि सारा काम आन लेंग्वेज में करना है.आजकल हिन्दी काफ़ी वीक चल रहा है". मैंने रिप्लाई किया.."यस सर...,हिन्दी वीक तो चल ही रहा है दिनों-दिन और भी वीकर होती जा रही है."---मैं अपनी स्मार्टनेस का प्रूफ़ दे रहा था लेकिन टाइम के प्रोबलेम के चलते साहब ने फ़ोन हेंग ओफ़ कर दिया.मैं सिरियसली सोचने लगा .अभी तो हिन्दी वीक से वीकर हुई है यदि सिचुएशन को कंट्रोल नहीं किया गया तो हिन्दी वीकर से वीकेस्ट हो जायेगी. एक बार यदि सुपरलेटिव डिग्री में पहुंच गयी तो कोई भी इस पूअर लेंग्वेज को रिस्पोंस नहीं देगा....सभी लोग ’द’ लगाकर छोङ देंगे.
नेक्स्ट डे डेली की तरह सनराइज होते ही विन्डो से लाइट आने लगी. जब से मेडम शेक अप नहीं देती सनलाइट ही मुझे जगाती है. फ़्रेश होकर ब्रेकफ़ास्ट और काफ़ी ले लिया. हिन्दी आखिर मदर लेंग्वेज है उसके वेलफ़ेयर के लिये सोचना हमारी ड्युटी है.क्वार्टर से सीटी की ओर निकल पङा. एक औटोवाले से पूछा--" सी. एम.डी कालेज का कितना लोगे..?.उसने अपना दाहिना हाथ उपर किया और सारे फ़िंगर्स फ़ैला दिये.आजकल ये लोग काफ़ी चिटिंग करते हैं.मैंने कहा..."फ़िंगर्स क्यों दिखा रहे हो ? मुंह से बोलो." वह अपने फ़िंगर्स को काउंट करने लगा---"वन, टू...फ़ाइव".मैंने कहा--"हिन्दी में नहीं कह सकते..?" उसने सीधा जवाब दिया---"ईशारा तो हिन्दी में ही किया था. लेकिन लोग तो हिन्दी का ईशारा समझते ही नहीं, इंगलिश से अफ़ेयर चला रहे हैं और हिन्दी के साथ एमोशनल अत्याचार कर रहे हैं. उसके फ़ीलिंग्स को हर्ट करते हैं जिससे उसका हार्ट पिसेज में ब्रेक अप हो जाता है. इस पूअर लेडी के लीवर को तो अंग्रेजों ने ही डैमेज कर दिया था. उपर से इमप्युरिटी को फ़िल्टर करने के चक्कर में किडनी भी चोक हो गयी है. रेस्ट तो पूरे वर्ल्ड के सामने विजिबुल है.."..उसके स्पीच ने मुझे स्पीचलेस कर दिया था. वह ड्राइवर कम स्कोलर था.हम सी. एम.डी कालेज पहुंच गये थे.
वहां पहुंचते ही वह ट्वेंटी फ़ाइव रुपये का डिमांड करने लगा. मैंने कहा--"तुमनें तो फ़ाइव रुपीज ही कहा था..?" उसने जवाब दिया--"आपने तो मेरा दूसरा हाथ देखा ही नहीं था. मैंने लेफ़्ट हेन्ड का मिडिल और फ़ोर फ़िंगर भी फ़ैलाया था. ".उसके रिप्लाइ से मेरा बी.पी हाइ हो गया--" तो...फ़ाइव प्लस टू सेवेन ही हुआ ना, मल्टिप्लाइ भी करोगे तो टेन हुआ". वह हंसते हुए बोला--" मैंने स्क्वायर किया था." मेरे साथ चीटिंग तो हो ही गयी थी. मैं बुदबुदाया---"ओफ़, करप्शन का रूट (मूल) कितना गहरा हो गया है" वह झट से बोला--"एक्चुअली साहेब अभी फ़्लाइ ओवर से नींचे आये न इसलिये रूट गहरा लग रहा है."
"शट अप..मैं करप्शन के रूट की बात कर रहा हूं....तुम्हारे रूट (रास्ता) की नहीं."
"मैं भी उसी रूट की बात कर रहा हूं साहेब. इंडिपेंडेस के बाद हम लोग लैंड को छोङकर फ़्लाइ ओवर पे उङने लगे थे. अंग्रेजों के सब कुछ चुराये लेकिन उसका दिया हुआ ओनेस्टी बेच दिया. अब तो कोई डिपार्टमेंट नहीं बचा है जहां यह रूट नहीं जाता. इस रूट से आप जहां कहेंगे पहुंचा दुंगा...ये रूट तो आजकल नेशनल हाइ वे बन चुका है."
वह सही कह रहा था. हम करप्शन के रूट (मूल) के बारे में बेकार सोच रहे हैं हमें उसके रूट (रास्ते) को ही बंद कर देना चाहिये. वह फ़िर शुरु हो गया--"बिल्कुल सही सोच रहे हैं आप. लेकिन नजरिया बदलने की जरुरत है. यदि मैं पांच के बदले पच्चीस ले रहा हूं तो आप पूछिये क्यों. मेरे पास जवाब है. उनके पास क्या जवाब है जो लाख रुपये वेतन पाते हैं और करोङो रुपये संदूक में भरकर रखते हैं.......दूसरी बात हिन्दी को..तो आजकल लोग हिन्दी के साथ बलात्कार कर रहे हैं और आप भी कम छिनाल नहीं हैं कहने को हिन्दी बोलते हैं पर बीच-बीच में अंग्रेजी ठूस देते है. हम गरीब क्या करें आपकी भाषा नहीं बोलेंगे तो आप जुबान नहीं काट लेंगे हमारी..?"..अब वह शुद्ध हिन्दी बोल रहा था.मैं आत्म-ग्लानि से भर गया था.मैंने भी सोच लिया कि अब शुद्ध हिन्दी में ही बातें करुंगा.
नेक्स्ट डे डेली की तरह सनराइज होते ही विन्डो से लाइट आने लगी. जब से मेडम शेक अप नहीं देती सनलाइट ही मुझे जगाती है. फ़्रेश होकर ब्रेकफ़ास्ट और काफ़ी ले लिया. हिन्दी आखिर मदर लेंग्वेज है उसके वेलफ़ेयर के लिये सोचना हमारी ड्युटी है.क्वार्टर से सीटी की ओर निकल पङा. एक औटोवाले से पूछा--" सी. एम.डी कालेज का कितना लोगे..?.उसने अपना दाहिना हाथ उपर किया और सारे फ़िंगर्स फ़ैला दिये.आजकल ये लोग काफ़ी चिटिंग करते हैं.मैंने कहा..."फ़िंगर्स क्यों दिखा रहे हो ? मुंह से बोलो." वह अपने फ़िंगर्स को काउंट करने लगा---"वन, टू...फ़ाइव".मैंने कहा--"हिन्दी में नहीं कह सकते..?" उसने सीधा जवाब दिया---"ईशारा तो हिन्दी में ही किया था. लेकिन लोग तो हिन्दी का ईशारा समझते ही नहीं, इंगलिश से अफ़ेयर चला रहे हैं और हिन्दी के साथ एमोशनल अत्याचार कर रहे हैं. उसके फ़ीलिंग्स को हर्ट करते हैं जिससे उसका हार्ट पिसेज में ब्रेक अप हो जाता है. इस पूअर लेडी के लीवर को तो अंग्रेजों ने ही डैमेज कर दिया था. उपर से इमप्युरिटी को फ़िल्टर करने के चक्कर में किडनी भी चोक हो गयी है. रेस्ट तो पूरे वर्ल्ड के सामने विजिबुल है.."..उसके स्पीच ने मुझे स्पीचलेस कर दिया था. वह ड्राइवर कम स्कोलर था.हम सी. एम.डी कालेज पहुंच गये थे.
वहां पहुंचते ही वह ट्वेंटी फ़ाइव रुपये का डिमांड करने लगा. मैंने कहा--"तुमनें तो फ़ाइव रुपीज ही कहा था..?" उसने जवाब दिया--"आपने तो मेरा दूसरा हाथ देखा ही नहीं था. मैंने लेफ़्ट हेन्ड का मिडिल और फ़ोर फ़िंगर भी फ़ैलाया था. ".उसके रिप्लाइ से मेरा बी.पी हाइ हो गया--" तो...फ़ाइव प्लस टू सेवेन ही हुआ ना, मल्टिप्लाइ भी करोगे तो टेन हुआ". वह हंसते हुए बोला--" मैंने स्क्वायर किया था." मेरे साथ चीटिंग तो हो ही गयी थी. मैं बुदबुदाया---"ओफ़, करप्शन का रूट (मूल) कितना गहरा हो गया है" वह झट से बोला--"एक्चुअली साहेब अभी फ़्लाइ ओवर से नींचे आये न इसलिये रूट गहरा लग रहा है."
"शट अप..मैं करप्शन के रूट की बात कर रहा हूं....तुम्हारे रूट (रास्ता) की नहीं."
"मैं भी उसी रूट की बात कर रहा हूं साहेब. इंडिपेंडेस के बाद हम लोग लैंड को छोङकर फ़्लाइ ओवर पे उङने लगे थे. अंग्रेजों के सब कुछ चुराये लेकिन उसका दिया हुआ ओनेस्टी बेच दिया. अब तो कोई डिपार्टमेंट नहीं बचा है जहां यह रूट नहीं जाता. इस रूट से आप जहां कहेंगे पहुंचा दुंगा...ये रूट तो आजकल नेशनल हाइ वे बन चुका है."
वह सही कह रहा था. हम करप्शन के रूट (मूल) के बारे में बेकार सोच रहे हैं हमें उसके रूट (रास्ते) को ही बंद कर देना चाहिये. वह फ़िर शुरु हो गया--"बिल्कुल सही सोच रहे हैं आप. लेकिन नजरिया बदलने की जरुरत है. यदि मैं पांच के बदले पच्चीस ले रहा हूं तो आप पूछिये क्यों. मेरे पास जवाब है. उनके पास क्या जवाब है जो लाख रुपये वेतन पाते हैं और करोङो रुपये संदूक में भरकर रखते हैं.......दूसरी बात हिन्दी को..तो आजकल लोग हिन्दी के साथ बलात्कार कर रहे हैं और आप भी कम छिनाल नहीं हैं कहने को हिन्दी बोलते हैं पर बीच-बीच में अंग्रेजी ठूस देते है. हम गरीब क्या करें आपकी भाषा नहीं बोलेंगे तो आप जुबान नहीं काट लेंगे हमारी..?"..अब वह शुद्ध हिन्दी बोल रहा था.मैं आत्म-ग्लानि से भर गया था.मैंने भी सोच लिया कि अब शुद्ध हिन्दी में ही बातें करुंगा.
Monday, September 13, 2010
हिन्दी हम हिन्दी की भाषा
मत भूलें, हम हिन्दुस्तानी
हिन्दी हम हिन्दी की भाषा
इसके स्वर हों सारे जग में
हों पुर्ण हम सबकी आशा
मां के मुख से सुना है जिसको
कैसे भूल सकेंगे उसको..?
रची बसी जो अस्थि रक्त में
कैसे दूर करेंगे उसको..?
हर कण में हों इसकी प्रतिध्वनि
यही एक अपनी अभिलाषा
मत भूलें, हम हिन्दुस्तानी
हिन्दी हम हिन्दी की भाषा
कहता पर्वतराज हिमालय
सागर की लहरें कहती है.
बिन बदले अपने स्वर लय को
गंगा की धारा बहती है.
आओ हम भी आज करें प्रण
न बदलें अपनी लय भाषा.
मत भूलें, हम हिन्दुस्तानी
हिन्दी हम हिन्दी की भाषा
हिन्दी हम हिन्दी की भाषा
इसके स्वर हों सारे जग में
हों पुर्ण हम सबकी आशा
मां के मुख से सुना है जिसको
कैसे भूल सकेंगे उसको..?
रची बसी जो अस्थि रक्त में
कैसे दूर करेंगे उसको..?
हर कण में हों इसकी प्रतिध्वनि
यही एक अपनी अभिलाषा
मत भूलें, हम हिन्दुस्तानी
हिन्दी हम हिन्दी की भाषा
कहता पर्वतराज हिमालय
सागर की लहरें कहती है.
बिन बदले अपने स्वर लय को
गंगा की धारा बहती है.
आओ हम भी आज करें प्रण
न बदलें अपनी लय भाषा.
मत भूलें, हम हिन्दुस्तानी
हिन्दी हम हिन्दी की भाषा
Tuesday, September 7, 2010
क्या सोचा था क्या ये लोकतंत्र हो गया !
सत्ता पाना ही भ्रष्टों का मूलमंत्र हो गया,
क्या सोचा था क्या ये लोकतंत्र हो गया !
परदे के पीछे से चल रहा आज छद्म-राज है,
कुर्सी पर बैठी कठपुतली एक यंत्र हो गया !!
युवराज यूं घूमता है अपने इस साम्राज्य में,
मानो यह प्रजातंत्र नहीं राजतंत्र हो गया !
चाटुकार लूटता खूब, उसके लिए तो यह देश,
नोट उत्पादन का एक खासा सयंत्र हो गया !!
क्या सोचा था क्या ये लोकतंत्र हो गया !
परदे के पीछे से चल रहा आज छद्म-राज है,
कुर्सी पर बैठी कठपुतली एक यंत्र हो गया !!
युवराज यूं घूमता है अपने इस साम्राज्य में,
मानो यह प्रजातंत्र नहीं राजतंत्र हो गया !
चाटुकार लूटता खूब, उसके लिए तो यह देश,
नोट उत्पादन का एक खासा सयंत्र हो गया !!
Monday, September 6, 2010
आज चांदनी घर आयी है.
सपने भी न देख सका था,
भरकर पेट सोया ही कब था
खाकर घाव हमने कांटों से
जी भरकर रोया ही तब था.
उसे जो उपर बैठा प्रति पल
आज मेरी दुनियां भायी है
आज चांदनी घर आयी है.
पूनम की रौशन रातों में
हमने देखा था गुप्प अंधेरा
हर रात अमावस जैसी थी
उजङा था हम सब का बसेरा
आज हवा गुनगुना रही है
दर्द दिलों के शरमायी है
आज चांदनी घर आयी है.
बहुत दिनों के बाद आज
चावल के दाने घर आये
खुशियां सबके दिल में छायी
हंसे, चेहरे जो थे मुरझाये
मां की पथरीली आंखों में
गजब आज चमक छायी है.
आज चांदनी घर आयी है.
भरकर पेट सोया ही कब था
खाकर घाव हमने कांटों से
जी भरकर रोया ही तब था.
उसे जो उपर बैठा प्रति पल
आज मेरी दुनियां भायी है
आज चांदनी घर आयी है.
पूनम की रौशन रातों में
हमने देखा था गुप्प अंधेरा
हर रात अमावस जैसी थी
उजङा था हम सब का बसेरा
आज हवा गुनगुना रही है
दर्द दिलों के शरमायी है
आज चांदनी घर आयी है.
बहुत दिनों के बाद आज
चावल के दाने घर आये
खुशियां सबके दिल में छायी
हंसे, चेहरे जो थे मुरझाये
मां की पथरीली आंखों में
गजब आज चमक छायी है.
आज चांदनी घर आयी है.
Friday, September 3, 2010
मेरी बिटिया सो रही है
आज सुलाकर चिर-निद्रा में
उसे गर्भ में दफ़न करेंगे.
मां का आंचल ही बेटी के
शव ढकने को कफ़न बनेंगे.
अपनी प्यारी माता को वह
डायन कहकर रो रही है.
मेरी बिटिया सो रही है
मां की गोद का पता नहीं
उसे यह दुनियां नहीं दिखेगी
नहीं बनेगी कभी वो बहना
उसकी डोली नहीं सजेगी.
उसको कुछ भी नहीं मिला है
फ़िर जानें क्या खो रही है.
मेरी बिटिया सो रही है
जा रही वह नील गगन में
कोस रही है अपने बाप को
कभी नहीं अब वह लौटेगी
जान गयी वह जग के पाप को
बहुत दूर है मेरी बिटिया
कितने दुख वह ढो रही है
मेरी बिटिया सो रही है
उसे गर्भ में दफ़न करेंगे.
मां का आंचल ही बेटी के
शव ढकने को कफ़न बनेंगे.
अपनी प्यारी माता को वह
डायन कहकर रो रही है.
मेरी बिटिया सो रही है
मां की गोद का पता नहीं
उसे यह दुनियां नहीं दिखेगी
नहीं बनेगी कभी वो बहना
उसकी डोली नहीं सजेगी.
उसको कुछ भी नहीं मिला है
फ़िर जानें क्या खो रही है.
मेरी बिटिया सो रही है
जा रही वह नील गगन में
कोस रही है अपने बाप को
कभी नहीं अब वह लौटेगी
जान गयी वह जग के पाप को
बहुत दूर है मेरी बिटिया
कितने दुख वह ढो रही है
मेरी बिटिया सो रही है
Wednesday, September 1, 2010
कृष्ण--क्यों जनम लेते हो तुम (व्यंग्य)
कृष्ण--क्यों जनम लेते हो तुम (व्यंग्य)
अब कौन सी देवकी इतना रिश्क लेकर तुम्हे जनम देगी ? जिस मां लक्ष्मी से तुम्हें जन्म के साथ ही एक्सचेंज किया गया था उसे भ्रुण में ही मार नहीं दिया गया होगा..?. अब तो गायों के चारे लोग खुलकर खाने लगे हैं. क्या खिलाओगे अपनी गैया को ? राधा जैसी हजारो गोपियों के साथ जात और उम्र की परवाह किये बगैर इश्क करने पर चौराहे पर टांगकर जिंदा नहीं जला दिये जाओगे?. आज की औरतें जो फ़िगर के लिये अपने बच्चों को भी अपना दूध नहीं पिलाती , मक्खन चोरी करने पर तुम्हारा फ़िगर नहीं बिगार देंगी....? उपर से मक्खन आइ एस ओ सर्टिफ़ाइड तो होगा नहीं.मिलावट भी हो सकती है...यदि जहरीला निकला तो...? सुदामा जैसे जो छोकङा लोग तुम्हारे साथ गायें चराया करते थे..आज के डेट में चाइल्ड लेबर बने हुए हैं, जो अच्छे घर के थे ईंगलिश स्कूल में पढ रहे हैं. किसके साथ खेलोगे..? तुम्हीं बताओ तुम्हारा एडुकेशन कैसे होगा..? तुम्हारे पापा बसुदेव के पास कोई खजाना तो है नहीं कि लाखो रुपये डोनेशन दे देन्गे..रही बात नन्दराज की तो सुन लो आजकल पूरे भारत में राजा कंस की चलती है.
अब तुम यमुना में नहा भी नहीं सकते. दिल्ली की सङकों का हाल ऐसा है कि द्वारका से यमुना तक जाने में ही दिन से रात हो जायेगी.....पता भी नहीं चलेगा कि यमुना किधर है और गड्ढा किधर..यदि मेट्रो बगैरह से पहुंच भी गये तो काले तो पहले से हो पीले होकर निकलोगे. दिल्ली की पब्लिक ने यमुना का वो हाल कर दिया है. कलर तो मोडिफ़ाइ हो जायेगा लेकिन इतने गंदे हो जाओगे कि मां यशोदा भी गोद नहीं लेगी. आखिर कहां कहां हगीज पहनायेगी.?
रही बात राधा की...तो सुनो आजकल के कै साधु-संत और तुम्हारे भक्त राधाओं के चक्कर में कानुनी धाराओं के साथ बह गये. स्वामी सत्यानन्दवाली हाल हो जायेगी.आखिर जन्म लेने का कुछ परपस तो होगा ? महाभारत करोगे..? कोमनवेल्थ से बढकर कोई महाभारत क्या होगा..? आज्कल अर्जुन भी इतना बीजी रहता है कि टाईम नहीं देगा.युधिष्ठिर सट्टेबाजी में लगा रहता है और भीम को होटलबाजी से फ़ूर्सत नहीं मिलता. बचा नकुल और सहदेव तो इन्हें आज के जमाने में खेल संघों के अधिकारी ग्राउन्ड तक पहुंचने भी नहीं देते.. किसको सुनाओगे अपनी गीता..? तुम्हारी गीता अब कौन सुनता है. अब तो वह अदालतों में लेटी रहती है जिस पर जब जी चाहे दुर्योधन अपनी हाथ फ़ेर आता है.
इसलिये मैं दिल से कह रहा हूं...बेकार जन्म ले रहे हो. इसबार जेल में ही पैदा
होओगे और उसी में सङते रहोगे.....तुम्हें कभी जमानत नहीं मिलेगी. कानून चोरों और छिनालों के प्रति काफ़ी सख्त हो गयी है.यहां गद्दारों, डकैतों और बलात्कारियों को ही जमानत दी जाती है. मैं मानता हूं कि तुम छिनाल नहीण हो लेकिन जहां लङकियों को देखकर सीटी बजाना अपराध है वहां पांवों से ट्रेंगिल बनाकर बांसुरी बजाओगे तो जूते पङेंगे.उपर से बदनामी अलग.
सारी बातें सोच लो. अबकी बार हर आदमी में तुम्हें कंस नजर आयेगा.पर्पस डेफ़ाईन कर लो और किसी अच्छे होस्पीटल मे जन्म लो.मक्खन के बदले..आइस-क्रीम खाओ. पिक्चर-विक्चर देखो और लाइफ़ को एन्जोय करो.......अब किसी धर्म की ग्लानि नहीं होती, धर्म तो कब का मर चुका है.
अब कौन सी देवकी इतना रिश्क लेकर तुम्हे जनम देगी ? जिस मां लक्ष्मी से तुम्हें जन्म के साथ ही एक्सचेंज किया गया था उसे भ्रुण में ही मार नहीं दिया गया होगा..?. अब तो गायों के चारे लोग खुलकर खाने लगे हैं. क्या खिलाओगे अपनी गैया को ? राधा जैसी हजारो गोपियों के साथ जात और उम्र की परवाह किये बगैर इश्क करने पर चौराहे पर टांगकर जिंदा नहीं जला दिये जाओगे?. आज की औरतें जो फ़िगर के लिये अपने बच्चों को भी अपना दूध नहीं पिलाती , मक्खन चोरी करने पर तुम्हारा फ़िगर नहीं बिगार देंगी....? उपर से मक्खन आइ एस ओ सर्टिफ़ाइड तो होगा नहीं.मिलावट भी हो सकती है...यदि जहरीला निकला तो...? सुदामा जैसे जो छोकङा लोग तुम्हारे साथ गायें चराया करते थे..आज के डेट में चाइल्ड लेबर बने हुए हैं, जो अच्छे घर के थे ईंगलिश स्कूल में पढ रहे हैं. किसके साथ खेलोगे..? तुम्हीं बताओ तुम्हारा एडुकेशन कैसे होगा..? तुम्हारे पापा बसुदेव के पास कोई खजाना तो है नहीं कि लाखो रुपये डोनेशन दे देन्गे..रही बात नन्दराज की तो सुन लो आजकल पूरे भारत में राजा कंस की चलती है.
अब तुम यमुना में नहा भी नहीं सकते. दिल्ली की सङकों का हाल ऐसा है कि द्वारका से यमुना तक जाने में ही दिन से रात हो जायेगी.....पता भी नहीं चलेगा कि यमुना किधर है और गड्ढा किधर..यदि मेट्रो बगैरह से पहुंच भी गये तो काले तो पहले से हो पीले होकर निकलोगे. दिल्ली की पब्लिक ने यमुना का वो हाल कर दिया है. कलर तो मोडिफ़ाइ हो जायेगा लेकिन इतने गंदे हो जाओगे कि मां यशोदा भी गोद नहीं लेगी. आखिर कहां कहां हगीज पहनायेगी.?
रही बात राधा की...तो सुनो आजकल के कै साधु-संत और तुम्हारे भक्त राधाओं के चक्कर में कानुनी धाराओं के साथ बह गये. स्वामी सत्यानन्दवाली हाल हो जायेगी.आखिर जन्म लेने का कुछ परपस तो होगा ? महाभारत करोगे..? कोमनवेल्थ से बढकर कोई महाभारत क्या होगा..? आज्कल अर्जुन भी इतना बीजी रहता है कि टाईम नहीं देगा.युधिष्ठिर सट्टेबाजी में लगा रहता है और भीम को होटलबाजी से फ़ूर्सत नहीं मिलता. बचा नकुल और सहदेव तो इन्हें आज के जमाने में खेल संघों के अधिकारी ग्राउन्ड तक पहुंचने भी नहीं देते.. किसको सुनाओगे अपनी गीता..? तुम्हारी गीता अब कौन सुनता है. अब तो वह अदालतों में लेटी रहती है जिस पर जब जी चाहे दुर्योधन अपनी हाथ फ़ेर आता है.
इसलिये मैं दिल से कह रहा हूं...बेकार जन्म ले रहे हो. इसबार जेल में ही पैदा
होओगे और उसी में सङते रहोगे.....तुम्हें कभी जमानत नहीं मिलेगी. कानून चोरों और छिनालों के प्रति काफ़ी सख्त हो गयी है.यहां गद्दारों, डकैतों और बलात्कारियों को ही जमानत दी जाती है. मैं मानता हूं कि तुम छिनाल नहीण हो लेकिन जहां लङकियों को देखकर सीटी बजाना अपराध है वहां पांवों से ट्रेंगिल बनाकर बांसुरी बजाओगे तो जूते पङेंगे.उपर से बदनामी अलग.
सारी बातें सोच लो. अबकी बार हर आदमी में तुम्हें कंस नजर आयेगा.पर्पस डेफ़ाईन कर लो और किसी अच्छे होस्पीटल मे जन्म लो.मक्खन के बदले..आइस-क्रीम खाओ. पिक्चर-विक्चर देखो और लाइफ़ को एन्जोय करो.......अब किसी धर्म की ग्लानि नहीं होती, धर्म तो कब का मर चुका है.
Monday, August 30, 2010
चांद बहुत भूखा लगता है
आज है खाली नभ का आंगन
चांद बहुत भूखा लगता है.
आज फ़ूस की छत से छनकर
काला धुआं नहीं निकला है.
आज नहीं है चमकी आंखें
घर का चुल्हा नहीं जला है.
वे लेट गये हैं पानी पीकर
फ़िर क्यों चेहरा सूखा लगता है.
आज है खाली नभ का आंगन
चांद बहुत भूखा लगता है.
उसकी मां भी गले लगाकर
आज बहुत रोयी होगी.
आज भी गायी होगी लोरी
पर वह नहीं सोयी होगी.
घने बादल, शीतल पुरवाई
क्यों इतना रूखा लगता है
आज है खाली नभ का आंगन
चांद बहुत भूखा लगता है.
चांद बहुत भूखा लगता है.
आज फ़ूस की छत से छनकर
काला धुआं नहीं निकला है.
आज नहीं है चमकी आंखें
घर का चुल्हा नहीं जला है.
वे लेट गये हैं पानी पीकर
फ़िर क्यों चेहरा सूखा लगता है.
आज है खाली नभ का आंगन
चांद बहुत भूखा लगता है.
उसकी मां भी गले लगाकर
आज बहुत रोयी होगी.
आज भी गायी होगी लोरी
पर वह नहीं सोयी होगी.
घने बादल, शीतल पुरवाई
क्यों इतना रूखा लगता है
आज है खाली नभ का आंगन
चांद बहुत भूखा लगता है.
Friday, August 27, 2010
काम और मृत्यु
तुम्हारे कामुक वक्षों को
मेरे कर्मठ हाथों ने
कभी श्पर्ष नहीं किया.
न ही मदहोश कर देनेवाली
तुम्हारी होठ
मेरे जीवन-प्रवाह को
चूम सकी.
तुम्हारा यौवन
मेरे निकट आकर भी
मेरे पुरुषार्थ को
भोग न सका.
क्योंकि
जीवन का प्रति-पल
सुखद संभोग की तरह
खुशियों से भरा था.
फ़िर उसी जीवन के लिये
बांध लो मेरे जिस्म को
अपनी वफ़ादार बांहों से
क्षण भर के लिये
रोक दो मेरी सांसें
मेरे साथ लेट जाओ
नंगी जमीन पर
मेरे साथ संभोग कर
मुझे निष्काम कर दो.
....
....
मृत्यु,
मेरा आलिंगन करो.
मेरे कर्मठ हाथों ने
कभी श्पर्ष नहीं किया.
न ही मदहोश कर देनेवाली
तुम्हारी होठ
मेरे जीवन-प्रवाह को
चूम सकी.
तुम्हारा यौवन
मेरे निकट आकर भी
मेरे पुरुषार्थ को
भोग न सका.
क्योंकि
जीवन का प्रति-पल
सुखद संभोग की तरह
खुशियों से भरा था.
फ़िर उसी जीवन के लिये
बांध लो मेरे जिस्म को
अपनी वफ़ादार बांहों से
क्षण भर के लिये
रोक दो मेरी सांसें
मेरे साथ लेट जाओ
नंगी जमीन पर
मेरे साथ संभोग कर
मुझे निष्काम कर दो.
....
....
मृत्यु,
मेरा आलिंगन करो.
Wednesday, August 25, 2010
अपने देश का कानून तो महान है
अपने देश का कानून तो महान है
पर कलमुंही व्यवस्था ही बेईमान है.
खाकीवाले रक्षा की कसम खाते हैं
मौका मिलते ही लूटकर ले जाते हैं
भोली - जनता बहुत ही नादान है.
अपने देश का कानून तो महान है
चुनाव में भी वे लाखो वोट पाते हैं
बैठे-बैठे तिगुना वेतन खा जाते है
उनकी जेब में घोटालों की खान है
अपने देश का कानून तो महान है
खुलकर निर्दोषों को फ़ांसी चढाते है
पैसेवाले गुंडों को जमानत दिलाते है
अदालत भी अब पाप का वरदान है
अपने देश का कानून तो महान है
गद्दार देश के तीन स्तंभ चलाते हैं
मीडिया को वे ईशारों पर नचाते है
अब चौथा स्तंभ बन गया शैतान है
अपने देश का कानून तो महान है
पर कलमुंही व्यवस्था ही बेईमान है.
खाकीवाले रक्षा की कसम खाते हैं
मौका मिलते ही लूटकर ले जाते हैं
भोली - जनता बहुत ही नादान है.
अपने देश का कानून तो महान है
चुनाव में भी वे लाखो वोट पाते हैं
बैठे-बैठे तिगुना वेतन खा जाते है
उनकी जेब में घोटालों की खान है
अपने देश का कानून तो महान है
खुलकर निर्दोषों को फ़ांसी चढाते है
पैसेवाले गुंडों को जमानत दिलाते है
अदालत भी अब पाप का वरदान है
अपने देश का कानून तो महान है
गद्दार देश के तीन स्तंभ चलाते हैं
मीडिया को वे ईशारों पर नचाते है
अब चौथा स्तंभ बन गया शैतान है
अपने देश का कानून तो महान है
Monday, August 23, 2010
अब तो उल्लू बैठ गया है पेंङ की हर डाल मियां
मुझसे ना पूछो कामन वेल्थ गेम का हाल मियां
अब तो उल्लू बैठ गया है पेंङ की हर डाल मियां
नेताजी तो अपना झोली भरकर ही भाषण देते हैं
साथ में अब अधिकारी भी चूस रहे हैं माल मियां
कभी नहीं भर पायेंगे दिल्ली की सङकों का गड्ढा
शीला दीदी ने मन में फ़हमी लिया है पाल मियां
खच्चरों, गदहों से ढुलवायी जा रही सिमेंट की बोरी
सियार इतने शातिर हैं कि लगने न देते गाल मियां
स्वीमिंग पूल की जगह बनी हुई है झील बरसाती
प्रेक्टिस करनेवालों का हो गया है चेहरा लाल मियां
अंदर से यह महाघोटाला उपर से आतंक का खतरा
आजाद हो चुके राष्ट्रकुल अब जान रहे हैं चाल मियां
खेल खेल में खेल हो रहा खेल का यह गजब खेल
लूटो जिसको जितना चाहो बांका न होगा बाल मियां
अब तो उल्लू बैठ गया है पेंङ की हर डाल मियां
नेताजी तो अपना झोली भरकर ही भाषण देते हैं
साथ में अब अधिकारी भी चूस रहे हैं माल मियां
कभी नहीं भर पायेंगे दिल्ली की सङकों का गड्ढा
शीला दीदी ने मन में फ़हमी लिया है पाल मियां
खच्चरों, गदहों से ढुलवायी जा रही सिमेंट की बोरी
सियार इतने शातिर हैं कि लगने न देते गाल मियां
स्वीमिंग पूल की जगह बनी हुई है झील बरसाती
प्रेक्टिस करनेवालों का हो गया है चेहरा लाल मियां
अंदर से यह महाघोटाला उपर से आतंक का खतरा
आजाद हो चुके राष्ट्रकुल अब जान रहे हैं चाल मियां
खेल खेल में खेल हो रहा खेल का यह गजब खेल
लूटो जिसको जितना चाहो बांका न होगा बाल मियां
Wednesday, August 11, 2010
प्रणय आवेदन
प्रणय आवेदन
सेवा में
सौन्दर्य समृद्धि के स्वामिनी
प्रेमलोक
द्वारा
मित्रसेतु
महोदया
परिचयहीन स्नेही
अयोग्य होते हुए भी
प्रतिवेदन के अनुसार
असफ़ल स्नेहियों में
सर्वश्रष्ठता के आधार पर
क्षण भर के लिये
दृष्टिपात कर
धन्य करने की
याचना करता है.
आपका विश्वासी
प्रेम.
सेवा में
सौन्दर्य समृद्धि के स्वामिनी
प्रेमलोक
द्वारा
मित्रसेतु
महोदया
परिचयहीन स्नेही
अयोग्य होते हुए भी
प्रतिवेदन के अनुसार
असफ़ल स्नेहियों में
सर्वश्रष्ठता के आधार पर
क्षण भर के लिये
दृष्टिपात कर
धन्य करने की
याचना करता है.
आपका विश्वासी
प्रेम.
Monday, August 9, 2010
व्यंग्य------- वक्रतुण्ड
आज सबेरे नहा धोकर पूजा किया--"वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभा निर्विघ्नं कुरुमे देव सर्व कार्येशु सर्वदा". तब मुझे पता नहीं था कि वत्रतुण्ड मेरे आज का दिन बिगाङने वाले हैं.अब तक चलो यदि बाधाएं दूर नहीं करते थे तो कम से कम बिगाङते भी नहीं थे. आज रविवार था और रविवार तो सप्ताह भर के तपस्या का फ़ल होता है. इस एक दिन कुछ समय के लिये मेरे घर के टीवी का रिमोट मेरे हाथ में हुआ करता है.मैं रिमोट लेकर बैठा और टीवी ओन कर दिया.
न्यूज आ रहा था---" आज बिलासपुर शहर के बारा खोली क्षेत्र में काफ़ी दिनों से बिमार चल रहे हाथी ने अंतिम सांस ली. मैंने चेन्ज करना चाहा.
"रुको....क्यों बदल रहे हो ?."--श्रीमतीजी ने मना किया.
"ये भी कोई न्यूज है. कोई बङी खबर देखते हैं."
"इससे बद्गकर न्यूज क्या होगा कि साक्षात गणेशजी मृत्यु लोक आकर अपना प्राणोत्सर्ग कर गये."
"अच्छा तो वे गणेशजी थे?"--मेरा यह प्रश्न श्रीमतीजी को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा.
" मानो तो देव नहीं तो पत्थर. तुम तो ये सब नहीं मानते हो इसलिये गणेशजी कभी सहाय नहीं होते.....लेकिन मैं कुछ नहीं सुनुंगी बस आज यही न्यूज चलेगा. ये गणेशजी के लिये हमारी श्रद्धांजलि होगी.."
" डार्लिंग. भारत श्रीलंका का क्रिकेट टेस्ट मैच चल रहा है. मुझे मैच देखने दो."
" क्रिकेट मैच क्या देखोगे...क्रिकेट का तो ये हाल है कि युवराज सिंह जैसे होनहार महान क्रिकेटर से ग्राउंड पर पानी मंगाकर पीते हैं सारे खिलाङी. मैंने तो कसम खा ली है जबतक मेरा युवराज वापस नहीं आयेगा मैं मैच नहीं देखुंगी"---श्रीमतीजी ने सीधा जवाब दे दिया.
" अब तो वो लाख रिवाइटल खा ले धोनी उसे बाईक पे बिठानेवाला नहीं है."
" जो भी हो..जब तक युवराज वापस नहीं होगा मेरे घर में क्रिकेट नहीं चलेगा."
" चलो ठीक है क्रिकेट नहीं पाकिस्तान के बाढ का न्यूज देखता हूं. सुना है लाखो लोग बेघर हो गये हैं."
" पहले तो कहते थे पाकिस्तानी आतंकवादी हैं. फ़िर ये हमदर्दी कबसे होने लगी?"----श्रीमती जी का प्रश्न उचित था.
"बाढ से बर्बाद हुए लोगों से मुझे हमदर्दी है चाहे वे भारत के हों या पाकिस्तान के"---मैंने भी मंजे हुए डिप्लोमेट की तरह उत्तर दिया.
" रहने दो वहां का बाढ भी वैसा ही होगा जैसा हमारे देश में होता है. जितनी तेजी से पानी बहकर चला जाता है उतनी ही तेजी से हमदर्दी और मुआवजा भी...कहां जाता है पता नहीं...बाढ का पानी और पैसा".
मैंने सोचा थोङा सा तेल लगाना अच्छा रहेगा नहीं तो आज ये काली माता मुझे गणेशजी के सिवा कुछ भी नहीं देखने देगी.
मैंने कहा---" वैसे तुम्हारा कहना बिल्कुल सही है. तुम्हारे सोच की मैं दाद देता हूं. वाह..." श्रीमतीजी मुस्कुराने लगी.मुझे एक तरह से कन्फ़र्म कर रही थी कि अब जो भी कहुंगा मान लेगी. मैने भी सोचा कि मौका देखकर अब मुझे चौका मार ही देना चाहिये.---""लोकसभा में मंहगाई पर चर्चा होनेवाली है...यही न्यूज..."
" मत करो चर्चा मंहगाई कि. लोग आजकल उसे डायन कहने लगे हैं. अब ये डायन लोक सभा में भी पहुंच गयी है तभी तो जब इसपर चर्चा होती है तांत्रिक-मंत्री लोग वहां से हट जाते हैं....मेरे घर मे डायन जोगिन की चर्चा नहीं होगी"
"स्वीटहर्ट ये वो डायन नहीं है जो तुम समझ रही हो."
"तुम नहीं समझ रहे हो ये वही डायन है. जो लोग झाङ-फ़ूक टोटका करते हैं वे इससे बच जाते हैं बांकी लोगों का तो ये डायन कलेजा ही निकाल लेती है."......श्रीमतीजी भी अपने जिद से थोङा भी पीछे हटने के लिये तैयार नहीं थी.इधर लोकल न्यूज चैनल पर मरे हुए हाथी को लोग नारियल चढा रहे थे
" ठीक है फ़िल्म कान्यूज देखते हैं..?..."
"फ़िल्म का न्यूज क्या देखोगे...मुझसे पूछो...कैटरीना ने भी सलमान से शादी के लिय हां बोल दिया है"
" उसके भी बुरे दिन आ गये हैं जो बुड्ढे से शादी कर रही है"
"ऐसा मत कहो. सलमान को कौन बुड्ढा कहेगा...वो तो अभी भी कुंवारा है."
"सलमान कुंवारा है.....????. कौन नहीं जानता है बहुत ऐश किये हैं उसने. कैटरीना को किसी जेन्टलमैन से शादी करना चाहिये जो कभी किसी बेचारी हिरण का शिकार न करे, कभी गरीबों को फ़ुटपाठ पर ना कुचले और विवेक जैसे किसी विवेकशील प्राणी को भयभीत न करे.."...मेरे पास मुद्दा तो और भी था लेकिन यह ध्यान रखना जरुरी था कि श्रीमतीजी सलमान खान के बहुत बङ फ़ैन हैं.अब कोमन्वेल्थ गेम ही बचा था.
" प्रिये...कोमन्वेल्थ गेम एक दो महिने मे होनेवाला है..."
" तो उसमे देखनेवाली बात क्या है. उसका तो नाम ही कोमन्वेल्थ गेम है.अपने देश के वेल्थ को कुछ लोग कोमन कर रहे हैं. इससे हमारा कौन सा वेल्थ बढनेवाला है. अभी प्रीकोमन्वेल्थ गेम फ़िर कोमन्वेल्थ गेम और उसके बाद पोस्ट कोमन्वेल्थ गेम . इतना सारा गेम तो कोई बेवकूफ़ ही देखना चाहेगा....."-----श्रीमतीजी मरे हुए हाथी को हाथ जोङते हुए भाषण जारी रखा----" हे गणेशजी मेरे पति को सुबद्धि देना. बेवकूफ़ी के कारण उन्होनें तुम्हारा जो अपमान किया उसके लिये उनहें अबोध समझक्र माफ़ कर देना.उनकी रक्षा करना."
मैंने झट से कहा---" जब खुद की रक्षा नहीं कर पाये तो.....".
अब अंतिम संस्कार के लिये हाथी को ट्रक पर डाला जा रहा था. श्रीमतीजी ने बताया कि लोगों ने फ़ैसला किया है कि रेलवे से भूमि लेकर हाथी का अंतिम संस्कार किया जायेगा और वहां पर गणेशजी का एक भव्य मंदिर बनाया जायेगा.इसके लिये लाखो लोगों ने दान दिया है.
चैनल लगातार यह न्यूज दिखा रही थी जिसे मेरी श्रीमतीजी पाण कर रही थी. मेरा ध्यान वक्रतुण्ड पर केन्द्रित हो गया था. कभी बाल गंगाधर तिलक ने आजादी की लङाई के लिये गणेशोत्सव की शुरुआत की थी. आज किसी बंदर के मरने पर हनुमान मंदिर और हाथी के मरने पर गणेश मंदिर आम बात हो गयी है. बीच बीच में गणेशजी दूध भी पी लिया करते हैं....ये हाल है हमारी आस्था का. आस्था और अंधविश्वास के बीच की गहरी रेखा मिट चुकी है.
न्यूज आ रहा था---" आज बिलासपुर शहर के बारा खोली क्षेत्र में काफ़ी दिनों से बिमार चल रहे हाथी ने अंतिम सांस ली. मैंने चेन्ज करना चाहा.
"रुको....क्यों बदल रहे हो ?."--श्रीमतीजी ने मना किया.
"ये भी कोई न्यूज है. कोई बङी खबर देखते हैं."
"इससे बद्गकर न्यूज क्या होगा कि साक्षात गणेशजी मृत्यु लोक आकर अपना प्राणोत्सर्ग कर गये."
"अच्छा तो वे गणेशजी थे?"--मेरा यह प्रश्न श्रीमतीजी को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा.
" मानो तो देव नहीं तो पत्थर. तुम तो ये सब नहीं मानते हो इसलिये गणेशजी कभी सहाय नहीं होते.....लेकिन मैं कुछ नहीं सुनुंगी बस आज यही न्यूज चलेगा. ये गणेशजी के लिये हमारी श्रद्धांजलि होगी.."
" डार्लिंग. भारत श्रीलंका का क्रिकेट टेस्ट मैच चल रहा है. मुझे मैच देखने दो."
" क्रिकेट मैच क्या देखोगे...क्रिकेट का तो ये हाल है कि युवराज सिंह जैसे होनहार महान क्रिकेटर से ग्राउंड पर पानी मंगाकर पीते हैं सारे खिलाङी. मैंने तो कसम खा ली है जबतक मेरा युवराज वापस नहीं आयेगा मैं मैच नहीं देखुंगी"---श्रीमतीजी ने सीधा जवाब दे दिया.
" अब तो वो लाख रिवाइटल खा ले धोनी उसे बाईक पे बिठानेवाला नहीं है."
" जो भी हो..जब तक युवराज वापस नहीं होगा मेरे घर में क्रिकेट नहीं चलेगा."
" चलो ठीक है क्रिकेट नहीं पाकिस्तान के बाढ का न्यूज देखता हूं. सुना है लाखो लोग बेघर हो गये हैं."
" पहले तो कहते थे पाकिस्तानी आतंकवादी हैं. फ़िर ये हमदर्दी कबसे होने लगी?"----श्रीमती जी का प्रश्न उचित था.
"बाढ से बर्बाद हुए लोगों से मुझे हमदर्दी है चाहे वे भारत के हों या पाकिस्तान के"---मैंने भी मंजे हुए डिप्लोमेट की तरह उत्तर दिया.
" रहने दो वहां का बाढ भी वैसा ही होगा जैसा हमारे देश में होता है. जितनी तेजी से पानी बहकर चला जाता है उतनी ही तेजी से हमदर्दी और मुआवजा भी...कहां जाता है पता नहीं...बाढ का पानी और पैसा".
मैंने सोचा थोङा सा तेल लगाना अच्छा रहेगा नहीं तो आज ये काली माता मुझे गणेशजी के सिवा कुछ भी नहीं देखने देगी.
मैंने कहा---" वैसे तुम्हारा कहना बिल्कुल सही है. तुम्हारे सोच की मैं दाद देता हूं. वाह..." श्रीमतीजी मुस्कुराने लगी.मुझे एक तरह से कन्फ़र्म कर रही थी कि अब जो भी कहुंगा मान लेगी. मैने भी सोचा कि मौका देखकर अब मुझे चौका मार ही देना चाहिये.---""लोकसभा में मंहगाई पर चर्चा होनेवाली है...यही न्यूज..."
" मत करो चर्चा मंहगाई कि. लोग आजकल उसे डायन कहने लगे हैं. अब ये डायन लोक सभा में भी पहुंच गयी है तभी तो जब इसपर चर्चा होती है तांत्रिक-मंत्री लोग वहां से हट जाते हैं....मेरे घर मे डायन जोगिन की चर्चा नहीं होगी"
"स्वीटहर्ट ये वो डायन नहीं है जो तुम समझ रही हो."
"तुम नहीं समझ रहे हो ये वही डायन है. जो लोग झाङ-फ़ूक टोटका करते हैं वे इससे बच जाते हैं बांकी लोगों का तो ये डायन कलेजा ही निकाल लेती है."......श्रीमतीजी भी अपने जिद से थोङा भी पीछे हटने के लिये तैयार नहीं थी.इधर लोकल न्यूज चैनल पर मरे हुए हाथी को लोग नारियल चढा रहे थे
" ठीक है फ़िल्म कान्यूज देखते हैं..?..."
"फ़िल्म का न्यूज क्या देखोगे...मुझसे पूछो...कैटरीना ने भी सलमान से शादी के लिय हां बोल दिया है"
" उसके भी बुरे दिन आ गये हैं जो बुड्ढे से शादी कर रही है"
"ऐसा मत कहो. सलमान को कौन बुड्ढा कहेगा...वो तो अभी भी कुंवारा है."
"सलमान कुंवारा है.....????. कौन नहीं जानता है बहुत ऐश किये हैं उसने. कैटरीना को किसी जेन्टलमैन से शादी करना चाहिये जो कभी किसी बेचारी हिरण का शिकार न करे, कभी गरीबों को फ़ुटपाठ पर ना कुचले और विवेक जैसे किसी विवेकशील प्राणी को भयभीत न करे.."...मेरे पास मुद्दा तो और भी था लेकिन यह ध्यान रखना जरुरी था कि श्रीमतीजी सलमान खान के बहुत बङ फ़ैन हैं.अब कोमन्वेल्थ गेम ही बचा था.
" प्रिये...कोमन्वेल्थ गेम एक दो महिने मे होनेवाला है..."
" तो उसमे देखनेवाली बात क्या है. उसका तो नाम ही कोमन्वेल्थ गेम है.अपने देश के वेल्थ को कुछ लोग कोमन कर रहे हैं. इससे हमारा कौन सा वेल्थ बढनेवाला है. अभी प्रीकोमन्वेल्थ गेम फ़िर कोमन्वेल्थ गेम और उसके बाद पोस्ट कोमन्वेल्थ गेम . इतना सारा गेम तो कोई बेवकूफ़ ही देखना चाहेगा....."-----श्रीमतीजी मरे हुए हाथी को हाथ जोङते हुए भाषण जारी रखा----" हे गणेशजी मेरे पति को सुबद्धि देना. बेवकूफ़ी के कारण उन्होनें तुम्हारा जो अपमान किया उसके लिये उनहें अबोध समझक्र माफ़ कर देना.उनकी रक्षा करना."
मैंने झट से कहा---" जब खुद की रक्षा नहीं कर पाये तो.....".
अब अंतिम संस्कार के लिये हाथी को ट्रक पर डाला जा रहा था. श्रीमतीजी ने बताया कि लोगों ने फ़ैसला किया है कि रेलवे से भूमि लेकर हाथी का अंतिम संस्कार किया जायेगा और वहां पर गणेशजी का एक भव्य मंदिर बनाया जायेगा.इसके लिये लाखो लोगों ने दान दिया है.
चैनल लगातार यह न्यूज दिखा रही थी जिसे मेरी श्रीमतीजी पाण कर रही थी. मेरा ध्यान वक्रतुण्ड पर केन्द्रित हो गया था. कभी बाल गंगाधर तिलक ने आजादी की लङाई के लिये गणेशोत्सव की शुरुआत की थी. आज किसी बंदर के मरने पर हनुमान मंदिर और हाथी के मरने पर गणेश मंदिर आम बात हो गयी है. बीच बीच में गणेशजी दूध भी पी लिया करते हैं....ये हाल है हमारी आस्था का. आस्था और अंधविश्वास के बीच की गहरी रेखा मिट चुकी है.
Thursday, August 5, 2010
प्रतिशोध
"काट डाल उसको.....सब्जी के माफ़िक काट डाल"---अन्ना भाई से फ़ोन पर बात कर रहा था----"साला हमारे धंधे में टाग अङाता है....क्या बोलता था हमारे अड्डे में आग लगायेगा...अच्छा...ऐसा कर उसके घर में आग लगा उसपे बरतन पिन्हा और उसमें तेल को उबाल.....साला हरामी कहींके.......बोल्ता है हिंसा नहीं होने देगा....अब उसकी धुलाइ कर और तेल में टुकङे-टुकङे कर के डाल दे..........उछलेगा....उछलेगा जानता हूं......मसाला डालकर उसे ढक दे.....अब देख जितना उछलेगा आग और तेल में उतना ही पकेगा.....साला खूब उछलता था......और सुन बाहर के लोग कुछ बोले तो नमक-मिर्च लगाकर उसको भी डाल दे उसी में......साला डिश बन जायेगा....."तभी बीच में कुक ने टोका....."साहेब खाना बन चुका है लगा दूं ?" अन्ना ने सिर हिला दिया.----"आज तो लाजवाब डिश बनाया है रे....कहां से सीखा...?
कुक ने कहा---"आज तो साहेब आपके कहे मुताबिक ही बनाया है.मैं रसोई से आपकी बात सुन रहा था.मेरे बेटे के बारे मे बात हो रही थी इसलिये मेरा तो दिमाग ही काम नहीं कर रहा था...बस हाथ आपकी जुबान के आर्डर पर काम कर रहे थे डिश तैयार हो गया. आज मेरे घर में भी ऐसा ही डिश बना होगा". अन्ना बङे चाव से खाना खाने लगा फ़िर अचानक वह पत्थर सा हो गया जब देखा कि उसका पांच साल का बेटा घर से गायब था.
नैतिक शिक्षा--प्रतिशोध का परिणाम बहुत बुरा होता है, इससे किसी की भलाई नहीं होती.विपरीत परिस्थितियों के लिये समय को दोषी मानकर शोध करना चाहिये प्रतिशोध नहीं.प्रतिशोध का डिश बार बार नहीं पका सकते....पर प्रक्रिया निरन्तर रहती है.
कुक ने कहा---"आज तो साहेब आपके कहे मुताबिक ही बनाया है.मैं रसोई से आपकी बात सुन रहा था.मेरे बेटे के बारे मे बात हो रही थी इसलिये मेरा तो दिमाग ही काम नहीं कर रहा था...बस हाथ आपकी जुबान के आर्डर पर काम कर रहे थे डिश तैयार हो गया. आज मेरे घर में भी ऐसा ही डिश बना होगा". अन्ना बङे चाव से खाना खाने लगा फ़िर अचानक वह पत्थर सा हो गया जब देखा कि उसका पांच साल का बेटा घर से गायब था.
नैतिक शिक्षा--प्रतिशोध का परिणाम बहुत बुरा होता है, इससे किसी की भलाई नहीं होती.विपरीत परिस्थितियों के लिये समय को दोषी मानकर शोध करना चाहिये प्रतिशोध नहीं.प्रतिशोध का डिश बार बार नहीं पका सकते....पर प्रक्रिया निरन्तर रहती है.
Monday, August 2, 2010
बाढ की आशा
"हल्लो...नमस्ते बाबूजी."
"हां बेटा, कईसे हो?"
"बहुत बढियां बाबूजी."
"नोकरिया मिली ?"
"नहीं बाबूजी, पर चिन्ता के कोनो बात नाहीं. इस बार हम पूरा तैयारी में है.अतना पैसा कमायेंगे कि कोनो जरुरते नहीं रहेगी."
"वाह,...कैसे बेटा?"
"अरे बाबूजी बिहार में बाढ आनेवाली है न.इस बार बाढ एक सप्ताह लेट आ रहा है लेकिन पिछले साल जैसा ही होगा."
"बाढ आनेवाली है..?"
"लो उ तो हर साल आता है. दस कोठलीवाला जो मकान बनाये थे उसमे पहले से क्रेक डलवा दिया है. टी भी वाले को भी बता के रखा हूं.मंत्रीजी को पहले से तैयार कर दिया है. इस बार गरीब लोगों के लिये बहुत पईसा मिलेगा."
"तो उ पैसा तुमको कैसे मिलेगा"
"बाबूजी सरकार गरीबॊं के लिये पैसा देती है लेकिन गरीब सब तो दहा जाता है आ उनका झोपङिया तो पानी मे इधर से उधर हो जाता है. उसका कोनो प्रुफ़े नहीं बचता है. अंत में हमलोग अपने घर के मरम्मत के लिये पईसा रख लेते हैं. ."
"ठीक है लेकिन गरीब लोगन के लिये घर बनवा देना."
"बाबूजी गरीब के घर बनवाइयो देन्गे तभियो अगला साल त दहाइये जायेगा. भगवान एतना अन्याय थोङे ही करेगा कि अगिला साल बाढ नहीं आयेगा."
"हां बेटा, कईसे हो?"
"बहुत बढियां बाबूजी."
"नोकरिया मिली ?"
"नहीं बाबूजी, पर चिन्ता के कोनो बात नाहीं. इस बार हम पूरा तैयारी में है.अतना पैसा कमायेंगे कि कोनो जरुरते नहीं रहेगी."
"वाह,...कैसे बेटा?"
"अरे बाबूजी बिहार में बाढ आनेवाली है न.इस बार बाढ एक सप्ताह लेट आ रहा है लेकिन पिछले साल जैसा ही होगा."
"बाढ आनेवाली है..?"
"लो उ तो हर साल आता है. दस कोठलीवाला जो मकान बनाये थे उसमे पहले से क्रेक डलवा दिया है. टी भी वाले को भी बता के रखा हूं.मंत्रीजी को पहले से तैयार कर दिया है. इस बार गरीब लोगों के लिये बहुत पईसा मिलेगा."
"तो उ पैसा तुमको कैसे मिलेगा"
"बाबूजी सरकार गरीबॊं के लिये पैसा देती है लेकिन गरीब सब तो दहा जाता है आ उनका झोपङिया तो पानी मे इधर से उधर हो जाता है. उसका कोनो प्रुफ़े नहीं बचता है. अंत में हमलोग अपने घर के मरम्मत के लिये पईसा रख लेते हैं. ."
"ठीक है लेकिन गरीब लोगन के लिये घर बनवा देना."
"बाबूजी गरीब के घर बनवाइयो देन्गे तभियो अगला साल त दहाइये जायेगा. भगवान एतना अन्याय थोङे ही करेगा कि अगिला साल बाढ नहीं आयेगा."
Thursday, July 29, 2010
व्यंग्य-- टमाटर गिफ़्ट करें
कार्यालय से घर जा रहा था तो सोचा सब्जियां खरीद लूं. जेब मे हाथ डाला तो पांच रुपये का एक सिक्का निकला.वैसे ही मेरा जेब इतना तंग रहता है कि आजकल कपङे सिलवाते समय मेरी धर्मपत्नी छोटा सा एक ही जेब डलवाती है ताकि यह खाली-खाली न लगे. आज के मंहगाई के जमाने में पांच रुपये की सब्जी क्या होती, सोचा टमाटर ले लेते है. मैंने पांच रुपये देकर दुकानदार को टमाटर देने को कहा. वह मुझे घुरकर देखने लगा मानो कच्चा चबा जायेगा.लगा जैसे वह कह रहा हो अच्छे परिवार के दिखते हि इसलिये छोङ दिया वरना कमर पे ऐसे लात मारता कि उन लोगों के बीच गिरते जिनका मंहगाइ के चलते पहले ही कमर टूट चुका है.लेकिन मैंने स्वयं को संयत रखा.
कहा--"कृपया जितना होता है उतना ही दे दीजिये".
वह मुझे ऐसे देखने लगा जैसे मैं पागल होऊं..
मैंने धीरे से कहा- "प्लीज...."
अब वह लगा जैसे मेरे पागल होने के बारे मे कन्फ़र्म था. उसने धीरे एक बङा टमाटर उठाया और मेरी हथेली पर रख दिया.,मैं चकित हुआ.
"सिर्फ़ एक टमाटर ?"
"अस्सी रुपये किलो चल रहा है.खुदरा लोगे तो सौ रुपये. आपके पचास ग्राम बनते हैं और इस टमाटर का वजन कम से कम साठ ग्राम होंगे. चाकू नहीं है नहीं तो दस ग्राम काटकर निकाल लेता."
मैं उस टमाटर को दोनो हाथों में लेकर वहीं खङा हो गया....उसे देखता रहा जैसे यह टमाटर नहीं कोई कीमती हीरा हो.फ़िर धीरे से उसे जेब में डाल लिया.घर पहुंचा तो श्रीमती जी दर्बाजे पर खङी मेरा रास्ता देख रही थी. उसका दरबाजे पर इंतजार करना मेरे लिये सदा ही अशुभ रहा है.इससे पहले कई बार ऐसी घटना मुझे कंगाल बना चुकी थी. लेकिन चुकी आज मैं पहले से लुटा हुआ था इसलिये यह सोचकर खुश हुआ कि आज यह डायन भी मेरा कुछ नहीं बिगाङ पायेगी..घर पहुंचते ही मुस्कुराहट का आदान-प्रदान हुआ. उसकी यही मुस्कुराहट पहले द्वितिया के चांद की तरह नेचुरल हुआ करती थी आजकल प्लास्टिक के बने लाल-मिर्च की तरह आर्टिफ़िसियल हो गयी है.
वह बोली---- "आज क्या है.?."
"महिने का अंतिम दिन है और क्या."
"मेरा जन्म-दिन भी है. तुम्हें तो मेरा जन्म-दिन याद ही नहीं रहता."
" मुबारक हो...हैप्पी बर्डे टू यू......मेनी मेनी रिटर्न्स ओफ़ द डे....." मैने थोङा सा एक्टिंग किया.सच तो यह है उसके जन्म-दिन इतने खर्चीले होते हैं कि दो तीन महिने तक मुझे होश नही रहता.फ़िर सदा की तरह उसने गिफ़्ट मांगा. मना करता तो पानीपत की लङाई पक्की थी.. इसलिये जेब में हाथ डाला और टमाटर निकालकर अपना गिफ़्ट प्रस्तुत कर दिया.प्रस्तुतिकरण रोचक था और प्रतिक्रिया भी देखने लायक थी.
" टमाटर........???? ये टमाटर मुझे गिफ़्ट दे रहे हो ?? तुम्हारा दिमाग तो नहीं फ़िर गया है ?....तुम तो दुनियां के पहले आदमी हो जो टमाटर गिफ़्ट कर रहे हो?
गलती तो हो ही गयी थी. पर ब्लोगिंग और निस्वार्थ साहित्य की सेवा इतना कुशल तो बना ही दिया था कि अपने कार्य को हर समय जस्टिफ़ाइ कर सकुं.
" प्रिये..गिफ़्ट तो अनोखा होना चाहिये और यह तुम स्वयं कह चुकी हो कि मैं पहला आदमी हूं जो टमाटर गिफ़्ट कर रहा हूं"
वह बोली-------" कोई प्यारा सा गिफ़्ट देना चाहिये जो हर कोई देखना चाहे"
मैंने कहा--------" प्रिये. देश की सवा सौ करोङ जनता इस टमाटर पे नजर रख रही है. पता नहीं इसे किसकी नजर लग गयी कि ये आजकल मुश्किल से नजर आ रहा है..पत्र पत्रिकाओं की सुर्खियों में यह टमाटर छाया हुआ है.सब्जी मंडियों में इसे देखने के लिये लोग लालायित रहते हैं.इस टमाटर ने सरकार के चेहरे का रंग लाल कर दिया है. अब विपक्ष भी राम और रोटी के बदले राम और टमाटर का नारा लगाने लगी है.देखना इस टमाटर की कीमत जाननेवाले मेरे जैसे लोग अब दिल्ली पर राज करेंगे.अब अमीर लोग उंगलेयों में हीरे की अंगूठी के बदले गले मे टमाटर की हार पहनेंगे.बङे-बङे नेताओं को सोने के सिक्कों के बदले टमाटर से तौला जायेगा,.मंदिरों मे फ़ल और मिठाइयां चढानेवाले भक्त अब माता के चरणों में टमाटर चढाया करेंगे. अब तो बैंक ओफ़ इंडिया के तर्ज पर बैंक ओफ़ टमाटर..."
उसने बीच में ही टोका---" पागल हो गये हो तुम"
"भविष्य में टमाटर पाने की चाह में बहुत से लोग पागल भी हो जायेंगे"
वह बोली------------"मजाक मत करो सही सही बताओ कि तुमने टमाटर क्यों गिफ़्ट किया..?
मेरे सारे तर्क बेकार गये थे. औरतें बहुत ही व्यवहारिक होती हैं....लेकिन उसके सूरत की झूठी प्रशंसा उसे इतना अच्छा लगता है कि वह सहज ही विश्वास कर लेती है. मैंने इसी हथियार का सहारा लिया.
मैंने कहा------"प्रिये मैं तुम्हें ऐसा गिफ़्ट देना चाहता था जिसका रंग तुम्हारे होठों की तरह लाल और गालों की तरह फ़ुला हुआ हो.तुम्हारे शरीर में जितना यौवन रस भरा हुआ है वह उतना ही रसीला हो. वह तुम्हारी तरह मुलायम हो और तुम्हारे सौंदर्य में ईजाफ़ा करने के लिये उसमे पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी भरा हुआ हो.....यही सब सोचकर मैं तुम्हें यह गिफ़्ट कर रहा हूं."
तीर निशाने पर लगा था. श्रीमतिजी ने टमाटर अपने हाथ में लेकर उसे चूम लिया था
कहा--"कृपया जितना होता है उतना ही दे दीजिये".
वह मुझे ऐसे देखने लगा जैसे मैं पागल होऊं..
मैंने धीरे से कहा- "प्लीज...."
अब वह लगा जैसे मेरे पागल होने के बारे मे कन्फ़र्म था. उसने धीरे एक बङा टमाटर उठाया और मेरी हथेली पर रख दिया.,मैं चकित हुआ.
"सिर्फ़ एक टमाटर ?"
"अस्सी रुपये किलो चल रहा है.खुदरा लोगे तो सौ रुपये. आपके पचास ग्राम बनते हैं और इस टमाटर का वजन कम से कम साठ ग्राम होंगे. चाकू नहीं है नहीं तो दस ग्राम काटकर निकाल लेता."
मैं उस टमाटर को दोनो हाथों में लेकर वहीं खङा हो गया....उसे देखता रहा जैसे यह टमाटर नहीं कोई कीमती हीरा हो.फ़िर धीरे से उसे जेब में डाल लिया.घर पहुंचा तो श्रीमती जी दर्बाजे पर खङी मेरा रास्ता देख रही थी. उसका दरबाजे पर इंतजार करना मेरे लिये सदा ही अशुभ रहा है.इससे पहले कई बार ऐसी घटना मुझे कंगाल बना चुकी थी. लेकिन चुकी आज मैं पहले से लुटा हुआ था इसलिये यह सोचकर खुश हुआ कि आज यह डायन भी मेरा कुछ नहीं बिगाङ पायेगी..घर पहुंचते ही मुस्कुराहट का आदान-प्रदान हुआ. उसकी यही मुस्कुराहट पहले द्वितिया के चांद की तरह नेचुरल हुआ करती थी आजकल प्लास्टिक के बने लाल-मिर्च की तरह आर्टिफ़िसियल हो गयी है.
वह बोली---- "आज क्या है.?."
"महिने का अंतिम दिन है और क्या."
"मेरा जन्म-दिन भी है. तुम्हें तो मेरा जन्म-दिन याद ही नहीं रहता."
" मुबारक हो...हैप्पी बर्डे टू यू......मेनी मेनी रिटर्न्स ओफ़ द डे....." मैने थोङा सा एक्टिंग किया.सच तो यह है उसके जन्म-दिन इतने खर्चीले होते हैं कि दो तीन महिने तक मुझे होश नही रहता.फ़िर सदा की तरह उसने गिफ़्ट मांगा. मना करता तो पानीपत की लङाई पक्की थी.. इसलिये जेब में हाथ डाला और टमाटर निकालकर अपना गिफ़्ट प्रस्तुत कर दिया.प्रस्तुतिकरण रोचक था और प्रतिक्रिया भी देखने लायक थी.
" टमाटर........???? ये टमाटर मुझे गिफ़्ट दे रहे हो ?? तुम्हारा दिमाग तो नहीं फ़िर गया है ?....तुम तो दुनियां के पहले आदमी हो जो टमाटर गिफ़्ट कर रहे हो?
गलती तो हो ही गयी थी. पर ब्लोगिंग और निस्वार्थ साहित्य की सेवा इतना कुशल तो बना ही दिया था कि अपने कार्य को हर समय जस्टिफ़ाइ कर सकुं.
" प्रिये..गिफ़्ट तो अनोखा होना चाहिये और यह तुम स्वयं कह चुकी हो कि मैं पहला आदमी हूं जो टमाटर गिफ़्ट कर रहा हूं"
वह बोली-------" कोई प्यारा सा गिफ़्ट देना चाहिये जो हर कोई देखना चाहे"
मैंने कहा--------" प्रिये. देश की सवा सौ करोङ जनता इस टमाटर पे नजर रख रही है. पता नहीं इसे किसकी नजर लग गयी कि ये आजकल मुश्किल से नजर आ रहा है..पत्र पत्रिकाओं की सुर्खियों में यह टमाटर छाया हुआ है.सब्जी मंडियों में इसे देखने के लिये लोग लालायित रहते हैं.इस टमाटर ने सरकार के चेहरे का रंग लाल कर दिया है. अब विपक्ष भी राम और रोटी के बदले राम और टमाटर का नारा लगाने लगी है.देखना इस टमाटर की कीमत जाननेवाले मेरे जैसे लोग अब दिल्ली पर राज करेंगे.अब अमीर लोग उंगलेयों में हीरे की अंगूठी के बदले गले मे टमाटर की हार पहनेंगे.बङे-बङे नेताओं को सोने के सिक्कों के बदले टमाटर से तौला जायेगा,.मंदिरों मे फ़ल और मिठाइयां चढानेवाले भक्त अब माता के चरणों में टमाटर चढाया करेंगे. अब तो बैंक ओफ़ इंडिया के तर्ज पर बैंक ओफ़ टमाटर..."
उसने बीच में ही टोका---" पागल हो गये हो तुम"
"भविष्य में टमाटर पाने की चाह में बहुत से लोग पागल भी हो जायेंगे"
वह बोली------------"मजाक मत करो सही सही बताओ कि तुमने टमाटर क्यों गिफ़्ट किया..?
मेरे सारे तर्क बेकार गये थे. औरतें बहुत ही व्यवहारिक होती हैं....लेकिन उसके सूरत की झूठी प्रशंसा उसे इतना अच्छा लगता है कि वह सहज ही विश्वास कर लेती है. मैंने इसी हथियार का सहारा लिया.
मैंने कहा------"प्रिये मैं तुम्हें ऐसा गिफ़्ट देना चाहता था जिसका रंग तुम्हारे होठों की तरह लाल और गालों की तरह फ़ुला हुआ हो.तुम्हारे शरीर में जितना यौवन रस भरा हुआ है वह उतना ही रसीला हो. वह तुम्हारी तरह मुलायम हो और तुम्हारे सौंदर्य में ईजाफ़ा करने के लिये उसमे पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी भरा हुआ हो.....यही सब सोचकर मैं तुम्हें यह गिफ़्ट कर रहा हूं."
तीर निशाने पर लगा था. श्रीमतिजी ने टमाटर अपने हाथ में लेकर उसे चूम लिया था
Tuesday, July 27, 2010
प्यार की परिभाषा
मेरे बिस्तर पर
गर्म भट्ठी की तरह
सांसें छोङना
फ़िर
कुछ ही पल में
मेरी बांहों में पिघलकर
सर्द हो जाना.
बेशर्म होकर
मेरे जिस्म के हिस्सों को
अपनी नजरों से शिकार करना
फ़िर
अपनी ही आंखों पर
खुद की हथेली से
पर्दा डाल देना.
हजारों की भीङ में
मदहोश कर देनेवाली
कामुक चुंबन
फ़िर
प्रणय निवेदन करने पर
पलकें झुकाकर
मूक होते हुए
नाकारात्मक संकेत.
तुम प्यार की परिभाषा हो.....
गर्म भट्ठी की तरह
सांसें छोङना
फ़िर
कुछ ही पल में
मेरी बांहों में पिघलकर
सर्द हो जाना.
बेशर्म होकर
मेरे जिस्म के हिस्सों को
अपनी नजरों से शिकार करना
फ़िर
अपनी ही आंखों पर
खुद की हथेली से
पर्दा डाल देना.
हजारों की भीङ में
मदहोश कर देनेवाली
कामुक चुंबन
फ़िर
प्रणय निवेदन करने पर
पलकें झुकाकर
मूक होते हुए
नाकारात्मक संकेत.
तुम प्यार की परिभाषा हो.....
Monday, July 26, 2010
हम भारत के मान के रक्षक आज करें हम समझौता
एक तरफ़ है खुदा का बंदा , एक तरफ़ मां का बेटा
हम भारत के मान के रक्षक आज करें हम समझौता.
खङी किये जो तुमने पत्थर से ढाह दो मजहब की दीवारें
मैं भी गंगाजल हाथ में लेकर आज मिटा दूं लक्ष्मण रेखा.
इस्लाम के जिंदाबादी नारे से अब गगन-भेद मैं करता हूं
मुल्क से रखकर आज मुहब्बत तुम भी कह दो वंदे माता.
तुम रामायण के श्लोकों से आज सजाओ अपने कुरान को
मैं कुरान के आयत लेकर फ़िर से लिखता हूं कोई गीता.
अरुणाचल को शीष झुकाकर एक बार नमाज पढकर देखो
जम्मु को मुख करके मैं भी शिव का भजन हूं अब गाता.
पूज्य हमारे राम-कृष्ण को तुम बुलाओ अपने मस्जिद में
परवरदिगार तेरे अल्ला की मैं शिव-मंदिर में मूर्ति बनाता.
ले जाऊंगा तेरे प्यारे बच्चों को मैं बागों की सैर कराने को
मेरे अनाथ और भूखे शिषु को तुम भी दूध पिला देता
ढोंगी - मुल्ला पाखंडी - पंडित हैं कुपुत्र पथ - भ्रष्ट हुए है
मिल राम-रहीम जयहिंद कहे तो होगा मां का मस्तक उंचा
एक ही मां के बच्चे हैं हम न कोई हिन्दू न कोई मुस्लिम
संबंध खून का है हमारा , तुम अनुज मेरे मैं अग्रज भ्राता.
हम भारत के मान के रक्षक आज करें हम समझौता.
खङी किये जो तुमने पत्थर से ढाह दो मजहब की दीवारें
मैं भी गंगाजल हाथ में लेकर आज मिटा दूं लक्ष्मण रेखा.
इस्लाम के जिंदाबादी नारे से अब गगन-भेद मैं करता हूं
मुल्क से रखकर आज मुहब्बत तुम भी कह दो वंदे माता.
तुम रामायण के श्लोकों से आज सजाओ अपने कुरान को
मैं कुरान के आयत लेकर फ़िर से लिखता हूं कोई गीता.
अरुणाचल को शीष झुकाकर एक बार नमाज पढकर देखो
जम्मु को मुख करके मैं भी शिव का भजन हूं अब गाता.
पूज्य हमारे राम-कृष्ण को तुम बुलाओ अपने मस्जिद में
परवरदिगार तेरे अल्ला की मैं शिव-मंदिर में मूर्ति बनाता.
ले जाऊंगा तेरे प्यारे बच्चों को मैं बागों की सैर कराने को
मेरे अनाथ और भूखे शिषु को तुम भी दूध पिला देता
ढोंगी - मुल्ला पाखंडी - पंडित हैं कुपुत्र पथ - भ्रष्ट हुए है
मिल राम-रहीम जयहिंद कहे तो होगा मां का मस्तक उंचा
एक ही मां के बच्चे हैं हम न कोई हिन्दू न कोई मुस्लिम
संबंध खून का है हमारा , तुम अनुज मेरे मैं अग्रज भ्राता.
Friday, July 23, 2010
व्यंग्य--- मैं, मेरी पत्नी और ब्लोगिंग
भारत पाकिस्तान के बीच के क्रिकेट मैच की तरह हमारा मुकाबला भी रोमांचक दौङ में पहुंच चुका है. मैं और मेरी पत्नी के बीच जो आ चुका है उसका नाम है ब्लोगिंग. इस ब्लोगिंग ने मेरे लाइफ़ को ब्लोक कर दिया है. क्या धुम-धाम से शादी किया था...क्या-क्या सपने देखे थे....ब्लोगिंग ने सारे अरमानों पर पानी फ़ेर दिया. वैसे ब्लोगिंग की शुरुआत भी शादी की तरह ही मजेदार था लेकिन शनि की दृष्टि और डायन की नजर पङने के बाद तो हरे पेंङ भी सूख जाते हैं. पहली बार जब ब्लोग खोला और उसका नाम क्रांतिदूत रखा तो सफ़ल ब्लोगिंग लाइफ़ के लिये सोचा दुष्टों को अपने पक्ष में कर लूं.सो सबसे पहले अपनी धर्मपत्नी को बताया. वह गर्म पानी के फ़व्वारे की तरह फ़ूट गयी--" क्रांति तो मैं लाऊंगी तुम्हारे लाइफ़ में. घर के लिये वैसे ही तुम्हारे पास समय नहीं रहता उपर से अब ये फ़ालतू काम करने जा रहे हो ". मैंने देवी के क्रोध को भद्रपुरुष की तरह मधुर वचन से नियंत्रित करना चाहा---"नहीं प्रिये...ब्लोगिंग के जरिये सृजनात्मक लेखन से अपने जीवन के रिक्तता को भरना चाहता हूं ". अति भद्रता के कारण पत्नी और ही उबल पङी--" जीवन की रिक्तता दिखती है और जेब की रिक्तता नहीं दिखती ? बैंक का लाकर भी खाली है और रसोई गैस का सिलिंडर भी. मेरी कान..गला सब खाली है.......ये सब रिक्तता तुम्हें नहीं दिखता ". वह सही दिशा में आगे बढ रही थी, लेकिन इससे पहले की जीवन की रिक्तता शुन्यता में बदले मेरे लिये विषय बदलना अनिवार्य था. मैंने कहा--" प्रिये, साहित्य से बढकर कोई कोष नहीं होता ". जवाब हाजिर था---" तो क्यों नही साहित्य खाकर कार्यालय में ही साहित्य कि बिस्तरे पर सो जाते हो ?...कम से कम बच्चों के बारे में तो सोचो. तुम्हारे साथ ही काम करते हैं धनन्जय बाबू. उनके घर में क्या नहीं है. उनकी वाईफ़ के पर्स मे हर समय नोटों की गड्डी भरी रहती है." अब मैं थोङा सा सख्त हुआ.----" देखो...साहित्य को भ्रष्टाचार से मत लङाओ. पहले से ही साहित्य भ्रष्टाचार से जूझ रहा है.संसेक्स की तरह भ्रष्टाचार का ग्राफ़ जितनी तेजी से उपर उठ रहा है, साहित्य का शेयर उतनी ही तेजी से लुढकता ज रहा है. पहले साहित्य को मजबूत होने दो फ़िर देखना ये भ्रष्टाचार फ़टे हुए गुब्बारे की तरह सटक जायेगा "....वह बीच में ही बोलने लगी---" भ्रष्टाचार तो बाद मे सटकेगा उससे पहले ही तुम्हारा बेटा फ़ुटबाल की तरह किक मारकर तुमको गोल-पोस्ट मे डाल देगा. निकम्मे लोगों के साथ ऐसा ही होता है ". वह साक्षात काली का रूप धारण कर चुकी थी. मेरी थोङी सी सख्ती का प्रभाव गैर-मामूली था. मैंने शिष्टतापूर्वक कहा---" प्रिये शांत हो जाओ. नारी होकर नारे मत लगाओ. सरल और मधुर भाषा में बताओ कि मेरे पुत्र के सम्मुख ऐसी कौन सी समस्या है कि वह मेरे जैसे महान पिता पर आघात करने के लिये बाध्य हो गया है ". मेरी साहित्यिक भाषा भी निष्प्रभावी रही. " इंजिनियरिंग में एडमिशन के लिये दलाल २ लाख रुपये मांग रहा है. यदि एडमिशन नहीं हुआ तो उसका भविष्य चौपट हो जायेगा. फ़िर जिन्दगी भर घास छीलता रहेगा ".....कहकर वह शांत हो गयी. मातृभाव पत्नीभाव के उपर छा गया. उसके क्रुर नेत्र सजल हो गये अन्यथा उसकी आंखों में घरियाली आंसू के भी विरले ही दर्शन होते थे. कुछ भी हो मुझे लगा भावानात्मक रूप से मैं अपनी पत्नी से जीत रहा हूं. मृग मरीचिका ही सही रेतों पर पानी के बूंद तो दिख ही रहे थे. सूख चुके तालाब में बरसाती ही सही थोङा सा पानी तो आया. मुझे लगा चुप रहना चाहिये ताकि यही स्थिति बनी रहे. वह बोलती रही---" कितने सपने देखे थे अपने बेटे के लिये....सारे सपने टूट गये....." इस बार तो आंसुओं की बाढ आ गयी. मानो खाली तालाब पूरी तरह बरसाती पानी से लबालब भर गया. उस तालाब में और पानी आये इसलिये उसे खाली कर देना चाहिये. यह सोचकर मैंने अपने रुमाल से उसके आंसू पोछ दिये----"मैं कुछ करता हूं. यह गंभीर समस्या है कि जिसे तुम दलाल कहती हो उस भद्रपुरुष ने अपनी आवश्यकता की पूर्ती के लिये मेरे अयोग्य सुपुत्र से अनुचित रुप से २ लाख रुपये मांगे. मैं इस विषय पर अपने ब्लोग में लिखुंगा और उस तथाकथित दलाल को अपना पोस्ट मेल करुंगा जिससे उसके भ्रष्टविचार धुल जायेंगे और आर्थिक एवं बौद्धिक रूप से पिछङे हुए मेरे सुपुत्र के प्रति करुणा भाव का जन्म होगा....". मैं अपनी धुन में बोलता जा रहा था. एक तरफ़ मैं साहित्य सृजन कर रहा था तो दूसरी तरफ़ मेरी पत्नी विध्वंस कर रही थी. मैं रचनात्मक विनोद की स्थिति में था वह क्रोध-क्रीङा में लीन थी. कुछ ही देर में मेरा लैपटोप कुर्सी के टुटे हुए पांव के हाथों बच्चों का खिलौना बना दिया गया था.
Wednesday, July 21, 2010
चलो अच्छा हुआ कि तुम बहुत ही बेरहम निकले
चलो अच्छा हुआ कि तुम बहुत ही बेरहम निकले
मैं जितना सोचता था उससे तुम बहुत कम निकले.
मुझे वह लगती थी मधुशाला जिसे पीने से डरता था
मगर जब पी के देखा तो जहर के बदले रम निकले.
अच्छा हुआ जो बेवफ़ाई ने मार डाला आशिकी को
तुम्हारी गोद में हमनें था चाहा कि मेरा दम निकले .
मैंने समझा कोई तोप है तेरे गोरे बदन को देखकर
आगोश में जो पाया तुमको खिलौने सा बम निकले.
तुम्हारे साथ बिस्तर पर अकेले ही मैं सोया था
"मेरी जगह" पर सुबह देखा था कि "हम" निकले.
तेरी दरियादिली के खूब चर्चे अब भी शहर में है
मेरे घर से जो तू निकली तो सारे गम निकले.
जब अपने दोस्तों को मैंने बताया प्यार के किस्से
उनकी जेब से उपहार के बदले मरहम निकले.
क्रांतिदूत अब ठहाके मारता है वफ़ा के खेल पर
जिंदादिल तू मौज कर इससे पहले कि यम निकले.
मैं जितना सोचता था उससे तुम बहुत कम निकले.
मुझे वह लगती थी मधुशाला जिसे पीने से डरता था
मगर जब पी के देखा तो जहर के बदले रम निकले.
अच्छा हुआ जो बेवफ़ाई ने मार डाला आशिकी को
तुम्हारी गोद में हमनें था चाहा कि मेरा दम निकले .
मैंने समझा कोई तोप है तेरे गोरे बदन को देखकर
आगोश में जो पाया तुमको खिलौने सा बम निकले.
तुम्हारे साथ बिस्तर पर अकेले ही मैं सोया था
"मेरी जगह" पर सुबह देखा था कि "हम" निकले.
तेरी दरियादिली के खूब चर्चे अब भी शहर में है
मेरे घर से जो तू निकली तो सारे गम निकले.
जब अपने दोस्तों को मैंने बताया प्यार के किस्से
उनकी जेब से उपहार के बदले मरहम निकले.
क्रांतिदूत अब ठहाके मारता है वफ़ा के खेल पर
जिंदादिल तू मौज कर इससे पहले कि यम निकले.
Tuesday, July 20, 2010
मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है
मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है, कोई गैर नहीं न ही ऐसा वैसा है.
अब न वो दिन भरी उजालों का , न ही अब रात उतनी काली है.
मेरे महबूब की शाम कभी न आये , न ही सुबह में अब वो लाली है.
कैसे जिंदा रहूं बता तु मुझे , देख ले आज गम-ए-हाल मेरा कैसा है.
मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है, कोई गैर नहीं न ही ऐसा वैसा है.
वो बसंती हवा बही थी अभी ,ये धूप तेज किरण पल मे ही ढह जायेगी.
रात रानी सी खङी है चौखट पर , गिर रही बूंद जो बरसाती बह जायेगी.
मैं कफ़न ओढ के जीता रहा हूं बरसो से, जिंदा दिल अब भी तेरे जैसा है.
मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है , कोई गैर नहीं न ही ऐसा वैसा है.
चलो अच्छा है मेरे दिल में जगह है तेरी, पीठ पर जख्म बहुत खाये हैं.
मैं तो बहरा हूं जमाने की अब नहीं सुनता, क्योंकि इल्जाम बहुत पाये है.
काली दुनिया में नहीं रौशन है एक जर्रा भी,आंख भी पत्थरों के जैसा है.
मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है , कोई गैर नहीं न ही ऐसा वैसा है.
अब न वो दिन भरी उजालों का , न ही अब रात उतनी काली है.
मेरे महबूब की शाम कभी न आये , न ही सुबह में अब वो लाली है.
कैसे जिंदा रहूं बता तु मुझे , देख ले आज गम-ए-हाल मेरा कैसा है.
मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है, कोई गैर नहीं न ही ऐसा वैसा है.
वो बसंती हवा बही थी अभी ,ये धूप तेज किरण पल मे ही ढह जायेगी.
रात रानी सी खङी है चौखट पर , गिर रही बूंद जो बरसाती बह जायेगी.
मैं कफ़न ओढ के जीता रहा हूं बरसो से, जिंदा दिल अब भी तेरे जैसा है.
मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है , कोई गैर नहीं न ही ऐसा वैसा है.
चलो अच्छा है मेरे दिल में जगह है तेरी, पीठ पर जख्म बहुत खाये हैं.
मैं तो बहरा हूं जमाने की अब नहीं सुनता, क्योंकि इल्जाम बहुत पाये है.
काली दुनिया में नहीं रौशन है एक जर्रा भी,आंख भी पत्थरों के जैसा है.
मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है , कोई गैर नहीं न ही ऐसा वैसा है.
Monday, July 19, 2010
क्रांतिदूत की कलम से......मेरा वोट वापस करो.
जाति के आधार पर जन-गणना की सोच जिस महान आधुनिक नेता के दिमाग की उपज है उनकी कुटिल सोच को मैं नमस्कार करता हूं. यह जरूर ही किसी तिक्ष्ण बुद्धि और मंद विवेक की उपज है. उनसे पुछा जाना चाहिये कि जाति के आधार पर आंकङे लेकर क्या किया जायेगा ? किस तरह का आचार बनाने की योजना है ? किस जाति के आरक्षित पदों को काटकर किस जाति के आरक्षण की सीमा बढाई जायेगी ?अब किस जाति की बहू-बेटियों को नीलाम किया जायेगा ? अब किस जाति को पांव से कुचला जायेगा ? और किस जाति को सत्ता की कुर्सी सौंपी जायेगी ? ढेर सारे सवाल.....लेकिन उन्हें इन सवालों से क्या मतलब. वे तो जल्दी से जल्दी आंकङे पाना चाहते हैं ताकि समय निकालकर संतुलित भाषण तैयार किया जा सके जिसमे लगे कि सभी जातियों को लाभ होगा,लेकिन फ़ायदा दिल्ली में बैठे नेता लोग आपस में बांट लें. दुख तो तब होता है जब विपक्ष भी हां में हां मिला देता है.शायद सभी यह सोच रहे हों कि विकास की राजनीति का जबाव जाति की राजनीति ही हो सकता है.
सत्ता की कुर्सी और विपक्ष के सोफ़े पर कुन्डली मारकर बैठ चुके लोगों से मैं सादर कहना चाहता हूं कि यदि उन्हें बैठना ही था तो चुनाव में खङे क्यों हुए थे..??कहां गया वो इच्छा-शक्ति..?हमारा वह विश्वास और सम्मान जो हम वोट के जरिये देते रहे हैं. क्या इसीलिये हमने वोट दिया था ? घोटाला करने के लिये ? आतंकी और नक्सली के सामने दुम हिलाने के लिये ? कुर्सी के लिये हम सबको आपस में लङाने के लिये ? भगदङ कराने के लिये और भारत बंद करने कि लिये ?........जानता हूं प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलेगा....इन प्रश्नों का उत्तर सरकारी गोली के शिकार हुए निर्दोष लोगों को छातियां देती है, भूख से तङपते पेट की आग देती है, बलात्कार की शिकार हुई औरतों की आंखे देती है, न्यायालय के चक्कर काटनेवालों के फुले हुए पांव देते है और मजहबी एवं जातिगत हिंसा के भय से फ़ङफ़ङाते होठ देते हैं.
हमें अपने प्रश्नों का उत्तर मिल रहा है. मैं अपना वोट वापस चाहता हूं.........
हमने वोट दिया था
संस्कृति और सम्मन की रक्षा के लिये
राष्ट्र और संविधान की सुरक्षा के लिये
देश चलाने के लिये
विपक्ष की भूमिका निभाने के लिये
रोटी उपलब्ध कराने के लिये
इज्जत बचाने के लिए.
विश्वास था
नहीं लूटोगे खजाने से एक कौङी भी
नहीं बढने दोगे सामानों की बेलगाम कीमत
नहीं खाओगे हमारा रोजगार
नहीं चढने दोगे देशद्रोहियों को सिर पर.
हमारा वोट विश्वास था
आशा थी.......
सभावना थी.....
प्यार था.....
सम्मान था.....
हमारा वोट वापस करो. क्रमशः...........
सत्ता की कुर्सी और विपक्ष के सोफ़े पर कुन्डली मारकर बैठ चुके लोगों से मैं सादर कहना चाहता हूं कि यदि उन्हें बैठना ही था तो चुनाव में खङे क्यों हुए थे..??कहां गया वो इच्छा-शक्ति..?हमारा वह विश्वास और सम्मान जो हम वोट के जरिये देते रहे हैं. क्या इसीलिये हमने वोट दिया था ? घोटाला करने के लिये ? आतंकी और नक्सली के सामने दुम हिलाने के लिये ? कुर्सी के लिये हम सबको आपस में लङाने के लिये ? भगदङ कराने के लिये और भारत बंद करने कि लिये ?........जानता हूं प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलेगा....इन प्रश्नों का उत्तर सरकारी गोली के शिकार हुए निर्दोष लोगों को छातियां देती है, भूख से तङपते पेट की आग देती है, बलात्कार की शिकार हुई औरतों की आंखे देती है, न्यायालय के चक्कर काटनेवालों के फुले हुए पांव देते है और मजहबी एवं जातिगत हिंसा के भय से फ़ङफ़ङाते होठ देते हैं.
हमें अपने प्रश्नों का उत्तर मिल रहा है. मैं अपना वोट वापस चाहता हूं.........
हमने वोट दिया था
संस्कृति और सम्मन की रक्षा के लिये
राष्ट्र और संविधान की सुरक्षा के लिये
देश चलाने के लिये
विपक्ष की भूमिका निभाने के लिये
रोटी उपलब्ध कराने के लिये
इज्जत बचाने के लिए.
विश्वास था
नहीं लूटोगे खजाने से एक कौङी भी
नहीं बढने दोगे सामानों की बेलगाम कीमत
नहीं खाओगे हमारा रोजगार
नहीं चढने दोगे देशद्रोहियों को सिर पर.
हमारा वोट विश्वास था
आशा थी.......
सभावना थी.....
प्यार था.....
सम्मान था.....
हमारा वोट वापस करो. क्रमशः...........
Friday, July 9, 2010
क्रांतिदूत की कलम से......जातिगत दिवारों का पक्कीकरण
मित्रों, क्रांतिदूत की कलम चलती ही रहेगी. यह कलम अपने शब्दों को लघुकथा, कविता या किसी अन्य वर्गीकरण में नहीं रखना चाहती. वर्गीकरण शब्द का साकारात्मक उद्देश्य सिर्फ़ विवाद की संभावना को निरस्त करना होता. यदि विवाद की संभावना वर्गीकरण के कारण बढ जाये तो वर्गीकरण को नाकारात्मक मानकर वर्गों को समाप्त कर देना चाहिये. इसी नजरिये से जब समाज की ओर देखें तो जातिवाद की ओर ध्यान जाता है. एक ही धार्मिक मान्यताओं के बीच लोगों को कितनी जातियों में बांट दिया गया. बांटते समय वर्गीकरण का उद्देश्य साकारात्मक था यह सभी जानते हैं. यह भी सभी लोग मानते हैं कि जातिवाद आज हजारों विवादों को जन्म दे रही है. सभी चाहते हैं कि काश, जातिवाद नहीं होता.......सिर्फ़ यह चाहना भी पर्याप्त है...क्योंकि इसके बाद का जो रास्ता है उसे विजय की संभावना कहते हैं और फ़िर अंत मे जो जाति-विहीन समाज का लक्ष्य है वह विजय है..
निश्चय ही जाति-विहीन समाज का निर्माण बहुत ही सुखमय होगा और उससे भी अधिक सुखमय होगा वहां तक पहुंचने का रास्ता. फ़ुलवारी से अधिक रमणीय फ़ुलवारी तक पहुंचने का रास्ता होता है. उत्साह ,जिग्याशा , खुश होने की ईच्छा आदि भावनायें फ़ुलवारी तक पहुंचने के रास्ते को फ़ुलवारी से भी अधिक प्यारा बना देता है. यदि कोई आकाश छुना चाहता है तो छू कर देखे उसे पता चल जायेगा कि आकाश मे होने की खुशी से ज्यादा खुशी जमीन से आसमान की ओर छलांग मारने में मिलता है. जब रास्ता भी सुन्दर और लक्ष्य भी तो हमें जरुर आगे बढना चाहिये. हमारी सोच के जिस हिस्से में जातिवाद जम चुका है उस हिस्से से जातिवाद निकालकर फ़ेंक देना चाहिये. न ही कोई अगङा न ही कोई पिछङा, न ही कोई ब्राह्मण न ही कोई दलित. जाति बने तो किसानों कि, मजदूरों की, डाक्टरों की, ईंजिनियरों की...जो अपनी जाति को समाज के निर्माण हेतु समर्पित कर दे.
इस बार जाति-आधारित जनगणना की जा रही है.पृष्ठभूमि की ओर देखें तो सन उन्नीस सौ एकतीस में जाति-आधारित जनगणना की गयी थी. फ़लतः अंग्रेजी सरकार को कम से कम अतिरिक्त दस वर्ष का जीवनदान मिला था. यदि आज के शासकों में अंग्रेजों की तरह उत्कट कुटिल इच्छा-शक्ति होगी तो उनका शासन अमरत्व प्राप्त कर सकेगा. मुझे यह गंभीर आशंका है कि जातियों के प्रमाणिक और सत्यपूर्ण आंकङे ऐसे विषैले बीजों की तरह होंगे जो पूरे देश को जहरीला कर देगी........सभी जातियों को मिलाकर कई सारी जातियां बनेगी जिसमे से कोई जाति फ़िर से देश पर राज करेगा,कोई जाति आध्यात्म और पाखंड का सहारा लेकर सबको नचायेगा, कोई जाति अपनी मर्जी से व्यवसाय करेगा और किसी जाति को पांव से कुचक दिया जायेगा.
मुझे देश के जन-प्रतिनिधियों से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि यह कलम खामोश नहीं होना चाहती.....लेकिन यह जरुर कहुंगा कि दूर-दृष्टि की कमी अवश्य दिखता है. निकट परे मोतियों को चुनने के लिये दूर परे हीरों की अनदेखी की जा रही है.जाति-आधारित जनगणना से सत्ता तक पहुंचने का रास्ता सुलभ हो सकता है लेकिन सत्ता संभालना नहीं. इस जनगणना के दुष्परिणामों की अनदेखी करना अनुचित और मूर्खतापुर्ण है.जातिवाद के परिणाम नक्सलवाद, जातिय हिंसा, भेद-भाव, छुआछुत , वोट की राजनीति आदि रुपों मे पहले से ही दिख रहा है.अब मिट्टी की कच्ची दीवारों का पक्कीकरण किया जा रहा है जिसकी छतों से कूदकर समाजिकता दम तोङ देगी...
क्रमशः...........
निश्चय ही जाति-विहीन समाज का निर्माण बहुत ही सुखमय होगा और उससे भी अधिक सुखमय होगा वहां तक पहुंचने का रास्ता. फ़ुलवारी से अधिक रमणीय फ़ुलवारी तक पहुंचने का रास्ता होता है. उत्साह ,जिग्याशा , खुश होने की ईच्छा आदि भावनायें फ़ुलवारी तक पहुंचने के रास्ते को फ़ुलवारी से भी अधिक प्यारा बना देता है. यदि कोई आकाश छुना चाहता है तो छू कर देखे उसे पता चल जायेगा कि आकाश मे होने की खुशी से ज्यादा खुशी जमीन से आसमान की ओर छलांग मारने में मिलता है. जब रास्ता भी सुन्दर और लक्ष्य भी तो हमें जरुर आगे बढना चाहिये. हमारी सोच के जिस हिस्से में जातिवाद जम चुका है उस हिस्से से जातिवाद निकालकर फ़ेंक देना चाहिये. न ही कोई अगङा न ही कोई पिछङा, न ही कोई ब्राह्मण न ही कोई दलित. जाति बने तो किसानों कि, मजदूरों की, डाक्टरों की, ईंजिनियरों की...जो अपनी जाति को समाज के निर्माण हेतु समर्पित कर दे.
इस बार जाति-आधारित जनगणना की जा रही है.पृष्ठभूमि की ओर देखें तो सन उन्नीस सौ एकतीस में जाति-आधारित जनगणना की गयी थी. फ़लतः अंग्रेजी सरकार को कम से कम अतिरिक्त दस वर्ष का जीवनदान मिला था. यदि आज के शासकों में अंग्रेजों की तरह उत्कट कुटिल इच्छा-शक्ति होगी तो उनका शासन अमरत्व प्राप्त कर सकेगा. मुझे यह गंभीर आशंका है कि जातियों के प्रमाणिक और सत्यपूर्ण आंकङे ऐसे विषैले बीजों की तरह होंगे जो पूरे देश को जहरीला कर देगी........सभी जातियों को मिलाकर कई सारी जातियां बनेगी जिसमे से कोई जाति फ़िर से देश पर राज करेगा,कोई जाति आध्यात्म और पाखंड का सहारा लेकर सबको नचायेगा, कोई जाति अपनी मर्जी से व्यवसाय करेगा और किसी जाति को पांव से कुचक दिया जायेगा.
मुझे देश के जन-प्रतिनिधियों से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि यह कलम खामोश नहीं होना चाहती.....लेकिन यह जरुर कहुंगा कि दूर-दृष्टि की कमी अवश्य दिखता है. निकट परे मोतियों को चुनने के लिये दूर परे हीरों की अनदेखी की जा रही है.जाति-आधारित जनगणना से सत्ता तक पहुंचने का रास्ता सुलभ हो सकता है लेकिन सत्ता संभालना नहीं. इस जनगणना के दुष्परिणामों की अनदेखी करना अनुचित और मूर्खतापुर्ण है.जातिवाद के परिणाम नक्सलवाद, जातिय हिंसा, भेद-भाव, छुआछुत , वोट की राजनीति आदि रुपों मे पहले से ही दिख रहा है.अब मिट्टी की कच्ची दीवारों का पक्कीकरण किया जा रहा है जिसकी छतों से कूदकर समाजिकता दम तोङ देगी...
क्रमशः...........
Thursday, July 8, 2010
क्रांतिदूत की कलम से......जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ?
यह कलम आग ही उगलती है. अन्य कलमों की तरह इसमें भी स्याही ही डाली गयी है, फ़िर भी पता नहीं क्यों यह आग ही उगलती है. शायद चिंगारी बनना चाहती हो, खुद जलकर भी. एक ऐसी चिंगारी जो घरों में रोशनी पैदा करे, चेहरों पे चमक लाये, कमजोरों को रास्ता दिखा सके और भूखे चुल्हों को थोङी सी गर्मी दे सके. एक ऐसी चिंगारी जो क्रांति की आग का केन्द्रक बन जाये. एक ऐसी चिंगारी जो देश-भक्ति की आग को जन्म दे. एक ऐसी चिंगारी जिसकी लपटों से सारी बुराईयां जलकर खाक हो जाये.........पर कमवख्त नहीं जानती कि ऐसी कलमें जो चिंगारी पैदा करती है उन्हें जमीन के नींचे दबाकर उसके वजूद को ही खत्म कर दिया जाता है ताकि वह फ़िर किसी आग के लिये चिंगारी न बन पाये. इसलिये इसका भी हश्र वही होगा पर यह भी सच है कि यह जितना सोना होगा उतना ही खङा उतरेगा. कितनी अजीब बात है कि कोई कितना भी सोना हो जाये मरने के बाद तो जलना ही होता है..आग के बीचों-बीच आग बनकर. यदि जीते-जी कोई अपने भीतर थोङी सी आग ले ले तो पता नहीं कितनी रोशनी पैदा हो जायेगी. मरते वक्त इंसान की मजबूरी, नंगी जमीन पर लेट जाने की बाध्यता, अपाहिज की तरह चार कंधों पर उठकर जाने की लाचारी और जलकर खाक हो जाने जैसा अंत होना ही है तो फ़िर जीते-जी डर कैसा, मजबूरी और लाचारी कैसी...?
जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ?
क्यों डर से सहमी हैं आंखें.
पिंजरों मे क्यों कैद हैं पांखें.
बेचा दिल और गुर्दा क्यों?
जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ?
ऐसी भी क्या थी मजबूरी
कि इतनी बङी जिंदगी हारी.
ऐसे क्यों लाचार हुए
इतने कंधों पर बैठ गये.
जब भीख मांगकर ही खाना था
फ़िर पायी इतनी उर्जा क्यों?
जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ?
बन सकते हो किसी का सहारा
मां का प्यारा राज दुलारा
झुकाकर ही सर जब जीना था
तो खाया दूध का कर्जा क्यों?
जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ? क्रमशः...........
जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ?
क्यों डर से सहमी हैं आंखें.
पिंजरों मे क्यों कैद हैं पांखें.
बेचा दिल और गुर्दा क्यों?
जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ?
ऐसी भी क्या थी मजबूरी
कि इतनी बङी जिंदगी हारी.
ऐसे क्यों लाचार हुए
इतने कंधों पर बैठ गये.
जब भीख मांगकर ही खाना था
फ़िर पायी इतनी उर्जा क्यों?
जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ?
बन सकते हो किसी का सहारा
मां का प्यारा राज दुलारा
झुकाकर ही सर जब जीना था
तो खाया दूध का कर्जा क्यों?
जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ? क्रमशः...........
Wednesday, July 7, 2010
आंसू
जानती हूं परेशान हो
मेरे बह निकलने की आदत से.
आंखों से निकलते ही
फ़ेंक डालते हो
सूखी जमीन पर कचङों के जैसे.
पर मेरी बफ़ादारी तो देखो
जब भी तुम तन्हा होते हो
आ जाती हूं बिना बुलाए.
अक्सर भरी महफ़िल में भी
मैं तुम्हें तन्हा पाती हूं
तब भी चली आती हूं.
मुझ पर तरस खाकर
एक बार मुझसे प्यार करके देखो
तन्हाई में भी
तुम्हें महफ़िल नजर आयेगी.
मेरे बह निकलने की आदत से.
आंखों से निकलते ही
फ़ेंक डालते हो
सूखी जमीन पर कचङों के जैसे.
पर मेरी बफ़ादारी तो देखो
जब भी तुम तन्हा होते हो
आ जाती हूं बिना बुलाए.
अक्सर भरी महफ़िल में भी
मैं तुम्हें तन्हा पाती हूं
तब भी चली आती हूं.
मुझ पर तरस खाकर
एक बार मुझसे प्यार करके देखो
तन्हाई में भी
तुम्हें महफ़िल नजर आयेगी.
Tuesday, July 6, 2010
कोठा (भाग-तीन)----जिस्म और जमीर
आज एक वर्दीवाला पुलिस शराब पीकर कोठे पर पहुंचा. जाते ही नोटों कि गड्डी पुतलीबाई के हाथों में पकङा दिया.कहने लगा--"मुझे सबसे खूबसूरत जिस्म चाहिये". "जानती हूं कीमत को देखते ही समझ गयी थी.अच्छा पीस नहीं दिया तो जेल के अन्दर भी डाल सकते हो.पुलिस वाले हो ना..."----कहते हुए पुतलीबाई हंसने लगी. कुछ देर के बाद वह किसी कमरे से बाहर निकला और पुतलीबाई के पास आकर बोला--"बहुत सही सौदा करती हो तुम".
पुतलीबाई कहने लगी---"साहब हमारा सौदा इसलिये सही होता है क्योंकि हम सिर्फ़ अपना जिस्म बेचते हैं ईमान नहीं".वह कुछ सोचने लगी फ़िर बोली---".....और आप जिस्म के लिये अपना जमीर बेच देते है. हमारा जिस्म घायल होता है और आपके जमीर के टुकङे होते हैं. हम वजन के दर से जिस्म का सही कीमत वसुलते हैं पर आप जमीर की कीमत जानते ही नहीं.क्योंकि आपको जमीर का वजन ही नहीं पता. इसलिये चंद रुपयों में ही बेच दिया करते हैं.
.................फ़िर अंत में हमारा जिस्म मर जाता है और आपका भी.पर आपके पास तब कुछ नहीं बचता, आपका जमीर तो पहले ही मर चुका था.........".वह पुलिसवाला बहुत पहले वहां से जा चुका था.पुतलीबाई स्वयं से बात कर रही थी.
पुतलीबाई कहने लगी---"साहब हमारा सौदा इसलिये सही होता है क्योंकि हम सिर्फ़ अपना जिस्म बेचते हैं ईमान नहीं".वह कुछ सोचने लगी फ़िर बोली---".....और आप जिस्म के लिये अपना जमीर बेच देते है. हमारा जिस्म घायल होता है और आपके जमीर के टुकङे होते हैं. हम वजन के दर से जिस्म का सही कीमत वसुलते हैं पर आप जमीर की कीमत जानते ही नहीं.क्योंकि आपको जमीर का वजन ही नहीं पता. इसलिये चंद रुपयों में ही बेच दिया करते हैं.
.................फ़िर अंत में हमारा जिस्म मर जाता है और आपका भी.पर आपके पास तब कुछ नहीं बचता, आपका जमीर तो पहले ही मर चुका था.........".वह पुलिसवाला बहुत पहले वहां से जा चुका था.पुतलीबाई स्वयं से बात कर रही थी.
Monday, July 5, 2010
आज भारत बंद है.
नहीं बिकेगी आज
मंहगे गेहूं के दाने.
नहीं निकलेगा धुआं
मंहगे पेट्रोल के जलने से.
न ही आसमान में कालिख पुतेंगे
क्योंकि आज भारत बंद है.
आज किसी रेल को
केनवाली वीयर के डब्बों की तरह
नहीं फ़ेका जायेगा
पटरियों के इर्द-गिर्द.
नहीं मारे जायेंगे इंसान
बीचो-बीच अपने लक्ष्य के
क्योंकि आज भारत बंद है.
आज बैंक अधिकारी नहीं खायेगा
कर्ज देने के बदले रिश्वत.
आज नहीं होगी चहलकदमी
मंत्रालयों में दलालों के.
सदा की तरह अदालतों में
आज भी नहीं मिलेगा इंसाफ़.
पहले की तरह आज भी
दबी रह जायेगी गरीबी फ़ाईलों में.
क्योंकि आज भारत बंद है.
हां कुछ बेरोजगारों को
मिलेगा एक दिन की रोजी.
चन्द सिक्कों से गरीबों के घर
आज फ़िर जलेगा मनहूस चुल्हा.
आज फ़िर बङे नेताओं के घर
खायी जायेंगी मंहगी घी से सनी
राजनीति की गरमागरम रोटियां
क्योंकि आज भारत बंद है.
मंहगे गेहूं के दाने.
नहीं निकलेगा धुआं
मंहगे पेट्रोल के जलने से.
न ही आसमान में कालिख पुतेंगे
क्योंकि आज भारत बंद है.
आज किसी रेल को
केनवाली वीयर के डब्बों की तरह
नहीं फ़ेका जायेगा
पटरियों के इर्द-गिर्द.
नहीं मारे जायेंगे इंसान
बीचो-बीच अपने लक्ष्य के
क्योंकि आज भारत बंद है.
आज बैंक अधिकारी नहीं खायेगा
कर्ज देने के बदले रिश्वत.
आज नहीं होगी चहलकदमी
मंत्रालयों में दलालों के.
सदा की तरह अदालतों में
आज भी नहीं मिलेगा इंसाफ़.
पहले की तरह आज भी
दबी रह जायेगी गरीबी फ़ाईलों में.
क्योंकि आज भारत बंद है.
हां कुछ बेरोजगारों को
मिलेगा एक दिन की रोजी.
चन्द सिक्कों से गरीबों के घर
आज फ़िर जलेगा मनहूस चुल्हा.
आज फ़िर बङे नेताओं के घर
खायी जायेंगी मंहगी घी से सनी
राजनीति की गरमागरम रोटियां
क्योंकि आज भारत बंद है.
Friday, July 2, 2010
कोठा (भाग-दो)----सावित्री की ईज्जत
सहेली के साथ खेलते-खेलते शाम हो चला था. दस साल की सावित्री जैसे ही घर पहुंची उसकी मां ने उसे बाल पकङकर खींचा और जोरदार थप्पर लगाया---"कितनी बार समझाया है कि शाम ढलने से पहले घर आ जाया कर. दिन की रोशनी में मर्द बने लोग शाम के अंधेरे मे भेङिये बन जाते हैं जो सिर्फ़ जिस्म नोंचना जानते हैं और किसी की इज्जत का वो हाल करते हैं किबेचने के लिये भी इज्जत नहीं बचता और खुद के जीने के लिये भी.". सावित्री अपने बचपन की यादों में खो गयी थी. तभी पुतलीबाई ने उसे बाल पकङकर खींचा और जोरदार थप्पर मारते हुए कहा---"कितनी देर से चिल्ला रही हूं...जल्दी से कमरा नम्बर तीन में जा और गाहक को निपटा. उनको अपने शादी की सालगिरह पार्टी में जाना है".
सावित्री के जिस्म को सिर्फ़ चोट लगा था. थप्पर तो ईज्जत ने खायी थी ,वह भी मां के हाथ से , कभी बचने के लिये तो कभी बिकने के लिये.
क्रमशः
(मित्रों मुख्य शीर्षक "कोठा" के अन्तर्गत एक लघुकथा शृंखला लिख रहा हूं जिसके एक भाग दुसरे भाग से संबद्ध नहीं है.एक प्रयास है कुछ अनछुए पहलुओं को बाहर लाने का, वेश्या-वृति को हतोत्साहित करने का और पुरुषों के मानसिक विकृतियों को सही पुरुषार्थ की ओर दिशा देने का...........कृपया अपने टिप्पणियों के जरिये उचित सलाह देते रहें)
सावित्री के जिस्म को सिर्फ़ चोट लगा था. थप्पर तो ईज्जत ने खायी थी ,वह भी मां के हाथ से , कभी बचने के लिये तो कभी बिकने के लिये.
क्रमशः
(मित्रों मुख्य शीर्षक "कोठा" के अन्तर्गत एक लघुकथा शृंखला लिख रहा हूं जिसके एक भाग दुसरे भाग से संबद्ध नहीं है.एक प्रयास है कुछ अनछुए पहलुओं को बाहर लाने का, वेश्या-वृति को हतोत्साहित करने का और पुरुषों के मानसिक विकृतियों को सही पुरुषार्थ की ओर दिशा देने का...........कृपया अपने टिप्पणियों के जरिये उचित सलाह देते रहें)