Wednesday, April 27, 2011

चुप्पी



बीच चौराहे पर दो-तीन गुंडों ने सेठ की गाङी रोक दी और अंधा-धुंध फ़ायरिंग की. सेठ वहीं ढेर हो गया. तभी किसी ने पुलिस को सूचना दी. पुलिस आयी और पूछताछ करने लगी. इंसपेक्टर ने कहा--- " बीच चौराहे पर किसी को गोली मारी गयी और किसी ने नहीं देखा ? ये कैसे हो सकता है ? कोई तो सच-सच बताओ कि गोली किसने चलायी." अपराधी तो वहां से भाग चुके थे पर किसी भद्र-जन ने अपनी चुप्पी नहीं तोङी. तभी एक अस्सी साल का बूढा सामने आकर कहा....."Gentleman such offens is niver committed  due to the violence of bad people but the silence of good people    (ऐसे अपराध गिने-चुने बुरे लोगों की हिसा की वजह से नहीं बल्कि ढेर सारे अच्छे लोगों की चुप्पी की वजह से होती है.)

Thursday, April 21, 2011

तुम दूर ही रहो.





मेरे निकट मत आना.

बेईमानी की बदबू से

दम घुटेंगे तुम्हारे.

चमकते चिकने चेहरे की

बदसूरत और टेढी-मेढी

झूठी रेखाएं

साफ़-साफ़ दिख जायेंगी.

भावनाओं और विचारों की

हत्या करनेवाले हाथ

खून से इस तरह रंगे मिलेंगे

कि निशान भी नहीं देख सकोगे

ईंसानों की भाग्य-रेखा का.

अपने छोटे से पेट के लिये

चट कर चुका हूं

कुरान की आयतों को.

छोटे से मांसल गुल्ली से

मूत चुका हूं

गीता के श्लोकों पर.

नहीं देख पाओगे

लाखों कोशिकाओं के बीच

की लम्बी दरारें.

नहीं झेल पाओगे

खूबसूरत मांसल जिस्म के

बीच की नर-कंकाल को.

बिल्कुल नहीं सह पाओगे

यह कि तुम

मेरे दिल में नहीं ठहर सकते

इसका कई बार पोस्टमार्टम हो चुका है.

Monday, April 18, 2011

सेक्स,प्यार,स्वाभिमान और पतन

सेक्स




विशाल पेंङ के

मोटे डन्टल के चारो ओर

हरी, परपोषी, अबला

लताओं का चिपक जाना

और धीरे-धीरे

वृक्ष के विशाल रस-भंडार को

चूस लेना.



प्यार



बूढे-घने दरख्तों के बीच

पतले युवा पेंङ का

संकीर्ण खाली जगह से

मूंह निकालकर

सुनहली किरणों को

कामुक होकर छूना.



स्वाभिमान



तना के निचले हिस्से

की झुकी हुई डालियों के

काट दिये जाने के बाद

अपना भविष्य जानते हुए भी

मुख्य सिरा का

उपर आसमान की ओर

बेअटक देखना.



पतन



विशाल पेङ की

खूबसूरत, गगनचुंबी

हरी पत्तियों का

सूखकर रंग बदल जाना

फ़िर कुछ ही देर में

स्वतः गिरकर

उबङ-खाबङ जमीन से

चिपक जाना

Wednesday, April 13, 2011

पंक को निर्मल करो रे

डा. बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकरजी के जन्म दिवस की पुर्व-सन्ध्या के अवसर पर मेरी रचना:-




सदियों से जो दलित बनकर

पैर को तेरे पखारा

तेरी जय में भी पराजित

तेरी हारों में भी हारा

आज उसके पग धरो रे

पंक को निर्मल करो रे.



फ़ूलों की भेंट हुई पुरी

नीरजों की हो चुकी पूजा.

अशक्त हैं कुछ अस्थियां

उन तन्तुओं में बल भरो रे

पंक को निर्मल करो रे.



भर चुके आंखों की प्याली

सुख दुखों के ही अमिय से

कुछ कटोरे रिक्त हैं जो

उनमे भी तुम जल भरो रे

पंक को निर्मल करो रे.



हुई अर्चना मां लक्ष्मी की

सरस्वती की वंदना भी

बिक रही बाजार बनकर

शीष उनपे नत करो रे

पंक को निर्मल करो रे.