Wednesday, June 29, 2011

मैं ,मेरी श्रीमतीजी और......( भाग-२१, व्यंग्य)



अब ससुरजी के सिवा और कोई नहीं था जो मेरी समस्या हल कर दे..मैं उनके पास गया ,पर जाते ही बिना कुछ सुने कहने लगे----" दामादजी अभी तक चार वेद और अठारह पुराण लिखे गये हैं. मैं उन्नीसवां पुराण लिख रहा हूं....जिसका नाम है भ्रष्ट-पुराण. आपको शुरुआत की पंक्तियां सुनाता हूं.---



लिखत व्यास हो मुदित देख मुख भक्त भ्रष्टण के

हर्षित गावत हरि-लीला, हर-लोभी, हरे-रुपयण के

भ्रष्टाचार - विरोधी जन-जन के सकुशल दमन के

हृदय-भाव भांपत कवि महा-भारत के जन-गण के.



व्यास उवाच

स्वर्ग-भूमि से महर्षि नारद भारत भूमि जावत है.

देव दनुज और नर-नारि सबहिं को भ्रष्ट पावत हैं.

लोक-सभा के केंटिन में सस्ता रस्गुल्ला खावत हैं.

प्रभु के लिये वहां से मंहगी पेप्सी-कोला लावत हैं.



अर्थ और भूगोल विविधता देख स्वं में खोवत हैं

सुनकर कथा काले धन की फ़ूट-फ़ूटकर रोवत हैं.

खाली पेट पंद्रह - रुपये का पानी पीकर सोवत हैं.

नर किन्नर पशु पक्षी सभ के दुख-गठरी ढोवत है.



न सहत जात नारद से तब खोपङिया तनिक घुमावत हैं.

स्वर्ग - लोक में नारायण को फ़ोनहिं से हाल सुनावत हैं.

वोट लीला का मानचित्र तब हर्षित हो प्रभु को दिखावत हैं.

एक-एक कर काले धन का डाटा पलभर में ही लिखावत हैं.



सुनकर व्यथा भारत माता की स्वयं नारायण रो रहा था.

नरक की तरह अर्थ पर भी अर्थ का अनर्थ हो रहा था.



नारायण उवाच



तेरे दुख को देख रहा हूं स्वर्ग लोक से.

हे नारद, होकर सहज निष्कर्ष बताओ.

पता है गैस-सिलिन्डर मंहगा हुआ है.

कैसे हुआ मुद्रास्फ़िति का उत्कर्ष बताओ.

संसद भवन स्वर्ग-लोक से भी दिखता है.

निर्धन जन करते कितना संघर्ष बताओ.

बलात्कार और हत्या की बातें रहने दो.

हो कोई अच्छी खबर तो सहर्ष बताओ.



नारद उवाच



नारायण नारायण कुछ भी सहज नहीं है.

कीचङ का सागर फ़ैला पर जलज नहीं है.

कंस और रावण घर घर में बैठे दिखते हैं.

धृत-राष्ट्र को हस्तिनापुर की गरज नहीं है.



(प्रिय ब्लोगर बंधुओं, भ्रष्ट-पुराण की रचना अभी जारी है.पूरा होने पर इसे अलग से प्रकाशित किया जायेगा. इस संबंध में आप सब के सुझाव सादर आमंत्रित हैं. कृपया सुझाव टिप्पणी या मेल- अथवा फ़ोन न-९७५२४७५४८१ पर भेजें.साकारात्मक सुझाव भेजनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को मेरी स्वरचित काव्य---"मां ने कहा था" भेंटस्वरुप निःशुल्क भेजा जायेगा.) क्रमश:

Tuesday, June 28, 2011

मैं ,मेरी श्रीमतीजी और......( भाग-२०, व्यंग्य)



मैंने समझाया----"लेकिन राज्य का विकास तो हो रहा है ना ?"

"अरे जीजे.....राज्य के विकास के चक्कर में अपुन का विकास तो रुक गया न. अपुन गांव जायेगा तो अपटी खेत में मारा जायेगा. अब तो सरकार रोजगार का गारंटी दे रहा है, अब अपुन के पिच्छु-पिच्छु कौन घूमेगा. उपर से नौकरी में भी उपर का इनकम बंद हो गयेला है. मुख्य-मंत्री बोलता है कि कोई घूस मांगता है तो उसके मूंह पे मूत दो, अपुन कोई शौचालय का टंकी थोङे ही है. उपर से मूतनेवाले के पास भी इमानदारी का सर्टिफ़िकेट तो है नहीं.नर-मूत्र के बदले गौ-मूत्र पिलाया जाता तो पी भी लेता."

मैंने चुटकी ली----"क्यों नहीं, जब गाय का चारा खा सकते हो तो गौ-मुत्र पीने में हर्ज ही क्या है." लेकिन वह गुस्सा गया, बोला----"जीजे.....गाय का चारा खाना मामुली बात है क्या..?...अपुन एक थाली में गाय का चारा रखता है कोई खा के दिखाये. चारे का चार दाना तो चबा नहीं पायेगा कि सारा का सारा दांत हाथ में आ जायेगा. एक तो अपुन लोग गाय का चारा खाया उपर से गौ माता को स्कूटर और बाईक से एक शहर से दूसरे शहर घुमाया....फ़िए भी पब्लिक नाराज है."

जिस तरह राजनेता लाचार पब्लिक को मूल मुद्दे से ध्यान हटाकर फ़ालतू बात करते हैं उसी तरह राजा मेरे साथ कर रहा था. बेकार इस तरह की बातों से फ़ायदा ही क्या था. मैंने सीधे पूछा----" तुम गांव जाओगे या नहीं?" मेरा प्रश्न तो द्वि-वैकल्पिक था लेकिन राजा का जवाब दीर्घ-उत्तरीय निकला----"अपुन देश का नागरिक है और पूरा देश अपुन का है. कोई माई का लाल अपुन को शहर से गांव नहीं भेज सकता. अपुन चाहेगा तो मुम्बई में रहेगा, चाहेगा तो दिल्ली में. दूसरी बात साला साधू हो या गुंडा जीजा पर उसका भी हक है. तीसरी बात हम टपोरी का वायलेन्स से उतना प्रोबलेम नहीं है जितना जेन्टलमेन लोगों के सायलेन्स से है. अपुन तो कहेगा कि हम लोग क्राईम करता है तो काहे को एसी जेल में रखकर गरमा-गरम पूरी खिलाता है, चुप रहनेवाले जेन्टलमेन लोगों को चौराहे पर चप्पल मारो...सब ठीक हो जायेगा." अब मुझसे सहा नहीं जा रहा था---"यानि कि भद्र-पुरुशों को दंडित किया जाये..?" उसने बीच में ही टोका----" नहीं, सबकुछ आंखों के सामने देखकर भी चुप रहनेवाले पावरलेस जेन्टलमेन को पनिश करो तो सब ठीक हो जायेगा. अपुन जैसा माइनोरिटी में रहनेवाला क्रिमिनल जुबान काट लेता है जबकि मेजोरिटी वाला जेन्टलमेन लोग जुबान खोलने में भी शरम करता है.कितना शरम की बात है जीजे."

सालेजी के जुबान से कोई बात निकल जाये और वह उसे जस्टिफ़ाई न कर दे ये कैसे हो सकता है.



क्रमशः अगले भाग मे ससुरजी का भ्रष्ट-पुराण

Friday, June 24, 2011

मैं ,मेरी श्रीमतीजी और......( भाग-१९, व्यंग्य)




राजा को घर से निकालना मामुली काम नहीं था, लेकिन प्रयास तो किया ही जा सकता था.मैंने सीधे तौर पर यह बात राजा से कहना उचित नहीं समझा क्योंकि उसकी भाषा ठीक नहीं है. स्वाभिमान की रक्षा के साथ-साथ सम्मान की भी रक्षा करनी थी.मैंने श्रीमतीजी को धीरे से समझाया------" सालेजी(राजा) का व्यवहार मुझे पसंद नहीं है"

"अपना व्यवहार ठीक रखोगे तो सब का व्यवहार पसंद आयेगा"

"उसने मेरे बेटे को चड्ढीलाल कहकर बेइज्जत किया है."

"तुम्हारा बेटा उसका भी भांजा है. वह चड्ढीलाल प्यार से बोला होगा."

"लेकिन उसके इस व्यवहार से मेरे स्वाभिमान को ठेस पहुंचा है."

" मेरे और मेरे माइके वालों से अच्छा संबंध चाहते हो तो स्वाभिमान से समझौता कर लो."

" लेकिन पिता के रुप में मेरा फ़र्ज बनता है कि बेटे का साथ दूं."

"पिता का फ़र्ज बच्चे की पढाई-लिखाई और देखभाल करना होता है न कि मामा-भांजे में कङुआहट पैदा करना"

वह एक तरफ़ चाकू से सब्जी काट रही थी तो दूसरी तरफ़ बङी बेरहमी से मेरे सटीक तर्कों के टुकङे कर रही थी.अब तर्कों के बदले सीधी बात कहना ही उचित था----"अपने भई राजा से कह दो कि बोरिया-बिस्तर समेटकर गांव चला जाये."

" बिल्कुल नहीं. मैं ऐसा नहीं कर सकती और तुम्हें भी ऐसा नहीं करने दुंगी. खबरदार जो इस तरह की बात जुबां पर लाये"

मैं जान रहा था कि राजा ने अपनी प्यारी बहना को बाबागिरि से कमाये नोटों की गड्डी थमा दी थी. अर्थ अनर्थ कर रहा था. फ़िर मैं थोङा सा इमोशनल टच देकर श्रीमती जी को पक्ष में करना चाहा---" तुम तो मुझे पति-परमेश्वर कहती हो फ़िर भी मेरी बात नहीं मानोगी?"

" पति तो परमेश्वर होता ही है लेकिन भाई भी भगवान होता है. तुम कैसे भी इमोशनल अत्याचार कर मुझे अपने भाई के खिलाफ़ नहीं कर सकते."

इमोशन तो मेरी श्रीमतीजी में कूट-कूटकर भरी हुई है लेकिन मायकेवालों के लिये.रुपये के बल पर राजा मेरे घर में राज कर रहा था. तभी टिंकू अपने दोनो हाथों से एक-एक आइस्क्रीम खाते हुए हमारे पास आया और मम्मी से कहने लगा---" मम्मी, मामाजी मुझे बहुत प्यार करते हैं, देखो न दो-दो आइसक्रीम दिया है". श्रीमतीजी ने पूछा---" तो फ़िर पापा से मामा की शिकायत क्यों की ?"

" पापा से तो मैंने सिर्फ़ इतना कहा था कि मामाजी मुझे प्यार से चड्ढीलाल बुलाते हैं."

जब मेरा बेटा ही दो आइसक्रीम के बदले अपना ईमान बेच लिया था तो अर्थ का इससे बढकर अनर्थ क्या हो सकता था. इस तरह के छोटे-छोटे कमीशन के चक्कर में तो लोग देश तक से गद्दारी कर देते हैं, पिता-पुत्र के संबंध का मोल ही क्या है ?.उपर से श्रीमतीजी मेरी तरफ़ आंखों में क्रोध और दया भाव को मिक्स करते हुए देख रही थी. वह तनिक जोर से बोली---"क्या कहूं तुझे....अपने ही घर की खुशी तुमसे देखी नहीं जाती?...राजा को बेईज्जत कर घर भेजने जैसा अनर्थ करवाना चाहते थे मुझसे.?" तभी बीच में राजा आ टपका---" कौन सा अनर्थ करवाना चाहते थे बहना, मुझे बता.". मैंने हालात को सम्हालना चाहा---"मैंने चाय बनाने के लिये.....बोला तो बोली कि अनर्थ करवाना चाहते थे"

" जीजे... अपुन तेरे को समझा देता है......अभी दो बजे दिन में चाय का टाईम है क्या ? ऐसा बोल के तुम किसी औरत को टोर्चर करेगा तो सीधा फ़ोर-नाइन्टी के मामले में अन्दर जायेगा.......और तू चिन्ता मत कर बहना, मेरे ढाई किलो के हाथ की कलाई पर जो राखी बांधा है न तुमने...उसकी कसम कोई भी टोर्चर करे तो अपुन को बताना"

श्रीमतीजी राजा की बातों से ज्यादा ही उत्साहित हो रही थी. भाई के प्रति स्नेह ने आंखों मे सैलाब भी ला दिया था. वह भाइ के कलाई को हाथ में लेकर गाना गाने लगी-------

"भैया मेरे , राखी के बंधन को निभाना.

.लगा दे अपने जीजा को ठिगाना, ठिगाना"

अपनी बहन की आंखों में आंसू देखकर राजा की आंखों से अंगारे टपकने लगे. स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा तो दूर अब तो जान बचाना भी मुश्किल लग रहा था. अब आत्म-रक्षार्थ सच बोल देना ही ठीक था----

" ऐसी कोई बात नहीं है राजा. मैं चाहता था कि तुम गांव (बिहार) चले जाओ"

"ऐसा क्यों बोल रहा है जीजे. अपुन कुछ भी कर सकता है लेकिन गांव नहीं जा सकता"

"गांव क्यों नहीं जा सकते?"

"काहे कि अपने यहां का सरकार बदल गया है. नया सरकार में अपहरण और फ़िरौती का धंधा पूरा चौपट हो गया है. लालटेन बुझाकर लोग अब बिजली जलाता है. साला चोरी करना भी पोसिबुल नहीं रह गया है. उपर से पुलिस और कोर्ट इतना टाईट हो गया है कि जितना भी अपराधिक किसिम का जेन्टल्मेन लोग है उसे जेल में ठूस देता है. पहले का फ़ालतू लोग भी अब नौकरी करने लगा है. रैला भी निकालना बंद हो गया है. पहले रोड पे बाईक चलाता था तो फ़िलम के स्टंट जैसा लगता था, अब जब हेमा-मालिनी डोकरिया हो गयी है तब जाके रोड चिकना हुआ है. सबसे बङका प्रोबलेम तो एडुकेशन डिपार्टमेंट में हुआ है, जिस स्कूल में अपनी भैंसिया रहती थी उसमे टीचर लोगों को भेज दिया है आ बच्चा सबको सायकिल दे दिया है.सायकिल के चक्कर मे लङका आ लङकी लोग गाय बकरी चराना ही बंद कर दिया है. गाय-बकरी सब खुल्ला घूम रहा है---सारा फ़सल बरबाद हो रहा है. पहले फ़सल तो बचता था भले ही लोग गैया का चारा खा जाता था"



Monday, June 20, 2011

मानसून



एक अरसा गया कल वो आयी थी घर

वह छिटकती रही प्रेम के पात पर,

मैं हंसा जा रहा , वो बरसती रही.

मैं पिया जा रहा , वो तरसती रही.



एक मौसम वो थी खूब तरसा था मैं

प्रेम बूंदें बिना कितना झुलसा था मैं.

सोचा , बेवफ़ा अब नहीं आयेगी.

ये सूखी जमीं उसको क्यों भायेगी?

रात भर जिस्म से वह फ़िसलती रही.

मैं जमा जा रहा वह पिघलती रही.



पहले चांद को ढक अंधेरा किया

बन बिजली गजब वो बखेरा किया.

सोचकर रुक गयी वो मेरी चाहतें.

मैं था सोया हुआ दे गयी आहटें.

छम-छम बूंद सी वो छमकती रही.

प्यारी - पाजेब सी वो छनकती रही.