Thursday, October 28, 2010

जलनेवाले जलते जलते जल ही जाते हैं.

ईर्ष्या करनेवाले चाहें कि तुमको सुला दें
बिन बातों हंसते हो गर  तुमको रुला दें
पांव खींचनेवाले तो खुद ही गिर जाते हैं
जलनेवाले जलते जलते जल ही जाते हैं



पथ भर तेरी राह रोकने वे बाधा लायेंगे
चाहेंगे तेरी हार पर वे जीत नहीं पायेंगे
बिन पानी पौधे भी जिंदा रह ही जाते हैं
पलनेवाले   पलते पलते   पल ही जाते हैं.
जलनेवाले जलते जलते जल ही जाते हैं.


छू न पाओ तुम उनको तुझे धकेलेंगे वे
पीछे गर पङ जाओ तो तुझे न देखेंगे वे
दुष्टों के सूरज शाम तक ढल ही जाते हैं
चढनेवाले   चढते   चढते    चढ ही जाते हैं
जलनेवाले जलते जलते जल ही जाते हैं.

Wednesday, October 27, 2010

चांद तुझमें क्या कमी है

आज मैं बताऊंगा चांद तुझमें क्या कमी है
देखता हूं पार तेरे गगन में कितनी जमीं है.

काले बादल हैं मगर सन्नाटा भी पसरी हुई
तू अकेला है उदास , तेरी आंखों में नमी है.

तेरे दामन में लगे जो दाग दिख जाते ही हैं
तू अमावस को छिपा ,पूर्णिमा जैसी रमी है.

देखकर सबकी खुशी तू भी जलती है बहुत
मेरे गम से आंख पथरीली तेरी कब घमी है.

आशिकों की फ़ौज रुककर देखते तुमको सदा
पल-भर भी तेरी चाल अब तक कब थमी है.

Monday, October 25, 2010

अक्सर ही बह जाता हूं.

नहीं जानता मैं रुक जाना
बाधाओं से डर झुक जाना
मैं तो पानी की धारा जैसे
अक्सर ही बह जाता हूं.

पता नहीं किसने कब रोका
मेरी छाती पर भाला भोंका
खुद ही अपनी मरहम बन
दुख सारी सह जाता हूं.


मेरे भी हजारो सपने हैं
हर कोई मेरे अपने हैं
मैं अपनों को दे ऊंचाई
चलता ही रह जाता हूं.



खामोशी मेरी आदत है
चुप रहना ही इबादत है
कलम की धार से ही मैं
सब कुछ कह जाता हूं.

Friday, October 22, 2010

मैं और तू

बहुत गहरी है तू

लम्बी और चौङी भी.

तुम्हारी जवानी भी

ठहरी सी है.

एक-एक बूंद को

रोक कर रक्खी है.

साथ ही डाल चुकी हो

एक बेलनाकार लम्बा खूंटा

अपने केन्द्रक में.



मैं तुम्हारी तरह गहरी नहीं

बह जाती हूं.

जवानी है पर भागती हुई

एक एक बूंद छलकती है.

मेरी परिधि बदलती रहती है

बेलनाकार खूंटा

डालूं भी तो कहां.?



एक सी जवानी होते हुए भी

कितना विरोधावास..?

कितना भिन्न सत्चरित्र..?

मैं सरिता हूं तू तालाब जो ठहरी.

Wednesday, October 20, 2010

आया नया जमाना है.

पांव बढाता हूं अब आगे , हृदय मेरा तनिक न हिलता
जाना है दूर क्षितिज तक जहां गगन धरती से मिलता.


छूना हमको वह उंचाई जहां ठंढी ओस की बूंदें बनती
सांझ जहां होती है रुककर ,सुबह जहां होली सी मनती


सागर की गहराई में जो बैठा वह मोती हमको चुनना है.
चिङिया रानी चूजों से जो बातें कहती है , वह सुनना है.


मिला हाथ आशा की किरणों से सूरज सी आभा पाना है
कहती है बहती हवा की धारा ......"आया नया जमाना" है.

Thursday, October 7, 2010

तीसरी ताकत का सच

आज भी ठेकेदार ने काम देने से मना कर दिया. ठेकेदार के तो सौ में से पचास रुपये कमीशन देने में खर्च हो जाते हैं. इमानदारे से उसे काम मिलता ही कहां है. लेकिन बेचारा मजदूर तो पिस रहा है. सात दिनों से काम नहीं. आज तो घर में खाने के लिये अनाज भी नहीं है. जिसकी औकात नहीं होती उसे बैंक भी कर्ज नहीं देता. वह परेशान होकर घर लौटा और बैठ गया चेहरे को हाथों में लेकर. पत्नी चांदिया सामने आकर खङी हो गयी.आंखों में आंसू की दो बूंदों के सिवा कुछ ना कह सकी. होठ फङफ़ङाये जरूर लेकिन शब्दहीन स्वर भूख की त्रासदी के सिवा कुछ भी बय़ां नहीं कर पाये. वह बोला----"जाता हूं चौराहे पर....सभी को जमा करता हूं और कहता हूं कि हमें भी रोटी पाने का हक है. यदि हमें रोटी नहीं मिला तो मैं दुनियां में आग लगा दूंगा." चांदिया बोली----" तमाशा करने की कोई जरुरत नहीं हैं.बाहर के लोग समझते हैं हमारा देश दुनियां की तीसरी ताकत है. यह क्यों नहीं सोचते कि सच बोलोगे तो हमारी तीसरी ताकत की छवि का क्या होगा...".


चांदिया की तीन साल की भूखी बेटी मुस्कुरा कर अपनी मां को मौन समर्थन दे रही थी.

Monday, October 4, 2010

ट्रांसफ़र (लघुकथा)

(ससुरजी तो घर पर रह ही रहे है. उनसे बातचीत नोंक-झोंक चलता ही रहता है.आपको एक और खुशखबरी दे रहा हूं कि मेरी सासू मां, मेरे सालेजी और प्यारी साली भी जल्द ही मेरे घर पधार रही हैं....इसलिये अभी थोङा सा विराम लेता हूं कुछ दिनों के बाद पुन: यह व्यन्ग्य श्रृंखला लेकर उपस्थित हो जाउंगा)



                                             ट्रांसफ़र (लघुकथा)



डी.जी.पी साहब ने पदभार संभालते ही डाटा मंगवाया. अस्सी आई.पी.एस अधिकारी और मालदार पोस्ट सिर्फ़ बीस.क्या करते ....? बीस सबसे भ्रष्ट अधिकारियों को मालदार पोस्टों पर ट्रांसफ़र कर दिया गया. सबसे मालदार पोस्ट पर जिस एस.पी ने ज्वायन किया उसने डाटा लेकर सभी डी.एस.पी और थाना प्रभारियो के मालदार पोस्टों पर भ्रष्ट पुलिसवालों को ट्रांसफ़र कर दिया. सबसे मालदार थाना का प्रभारी सबसे भ्रष्ट पुलिस को चुना गया.सबसे भ्रष्ट थाना प्रभारी ने हवलदारों और अन्य पुलिसवालों को बुलाकर समझाया---"हमे पुलिस विभाग मे शिष्टाचार और भ्रष्टाचार दोनो चाहिये. यदि ठीक से नौकरी करना है तो कहीं से भी दस लाख रुपये का प्रबंध करो. इतना मालदार पोस्ट मुफ़्त में नहीं मिलता.....हमें अच्छी कुर्सी पाने की कसौटी पर खरा उतरना है."

Friday, October 1, 2010

मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-८ (व्यंग्य)

अचानक एक दिन थाइलैंड से ससुरजी के लिये दो लाख भात( थाइ करेन्सी) प्रति महिना वेतन का एक ओफ़र आया. ये आइडिया मुझे काफ़ी पसन्द आया. सोचा एक दो सप्ताह में समझा - बुझाकर पासपोर्ट और वीसा बनवाकर थाइलैंड भेज देन्गे....सप्ताह-दो सप्ताह तक ब्लोग के लिये कविता लिखवाते हैं क्योंकि अब मैं उन्हें बिल्कुल ही झेल पाने की स्थिति मे नहीं था. कविता लिखने कर ब्लोग पर देने की सलाह से काफ़ी खुश हुए. कहने लगे मैं कविता गाता हूं आप पोस्ट करते जाइये--

गरीबी और लाचारी की एक सोंग गा रहा हूं.
पता नहीं मुझको कि राइट या रोंग गा रहा हूं

पल में ही नेताजी आकर गीत गाकर चले गये.
एक मैं ही हूं जो गाना इतना लोंग गा रहा हूं.

भ्रष्टता के गीत गाते सभा में बैठे सभी सभासद
क्या करूं , लाचार हूं .कोन्ग-कोन्ग गा रहा हूं.
                                   ( Congress)

भजन गा रहे हैं देश और दिल्ली की पब्लिक.
मैं ही हूं जो पेरिस और होन्गकोंग गा रहा हूं.

लोग झोली भरकर भी गीत गाकर मांगते हैं.
मैं भूखा "मांग" के बदले मोंग-मोंग गा रहा हूं.

भरे पेट होते हैं जिनके वे सच्चे गाने गाते हैं.
नकली खुशियां झूठी आवाज में ढोंग गा रहा हूं."

ससुरजी तो गाना गा रहे थे मैं मुश्किल से झेल पा रहा था. उनके गीत को ब्लोग पे डालता तो मेरे ब्लोगर मित्र स्याम भाई मेरा बाजा फ़ोङ देते और बिगुलवाले सोनीजी चिन्दी-चिन्दी कर देते. सोच ही रहा था कि पूछने लगे----
" कैसा लगा दामादजी यह गजल ?"
"गजल तो इतना बढिया बना है कि शब्द ही नहीं हैं---बिल्कुल नयी फ़सल है यह गजल. क्या लय है ....सोंग....रोंग.. लोंग...वाह"---- प्रशंसा तो हर किसी के कविता पर करनी चाहिये और ये तो मेरे ससुर थे. अच्छा मौका था. मैंने कहा---- "पापाजी थाईलैंड से मेरे एक ब्लोगर मित्र ने आपको एक काम के लिये ओफ़र दिया है. रोजगार भी मिलेगा और विदेश घूमने का मौका भी."

"वेतन कितना मिलेगा"---ससुरजी ने पूछा. मैंने जबाव दिया---"दो लाख भात प्रति महिना"

ससुरजी बोले---" दो लाख भात../? अगली कविता पोस्ट कीजिये----


खाने के लिये चाव चाहिये.
भात नहीं मुझे भाव चाहिये.
बहुत प्यार दिया दुनियां ने
एक - दो छोटे घाव चाहिये.


भूखे को जिसने दी रोटी
उसी ने लूटी उसकी बेटी
पहले तो दे दोगे भात
फ़िर मारोगे पीछे लात
अपनी दुनिया रौशन है
मुझको थोङा छाव चाहिये.
भात नहीं मुझे भाव चाहिये."

मैंने कहा---" वाह (कहना ही पङता है)....लेकिन यह ओफ़र बहुत ही अच्छा है पापाजी"
तभी बीच मे आकर श्रीमतीजी बोलने लगी------

"छिन रहे उनकी आजादी

वाह रे वाह तेरी दामादी

कहीं नहीं जायेंगे पापाजी

छोङकर घर सीधी- सादी."


वह भी आज कविता में ही बात कर रही थी लेकिन रस में फ़र्क था ससुरजी करुण रस और श्रीमतीजी वीर रस गा रहे थे. मेरे लिये तो उस समय दोनो रस विष बन चुका था.



अगले भाग में नौकरी के ओफ़र पर विचार जारी रहेगा.... क्रमश