Friday, October 22, 2010

मैं और तू

बहुत गहरी है तू

लम्बी और चौङी भी.

तुम्हारी जवानी भी

ठहरी सी है.

एक-एक बूंद को

रोक कर रक्खी है.

साथ ही डाल चुकी हो

एक बेलनाकार लम्बा खूंटा

अपने केन्द्रक में.



मैं तुम्हारी तरह गहरी नहीं

बह जाती हूं.

जवानी है पर भागती हुई

एक एक बूंद छलकती है.

मेरी परिधि बदलती रहती है

बेलनाकार खूंटा

डालूं भी तो कहां.?



एक सी जवानी होते हुए भी

कितना विरोधावास..?

कितना भिन्न सत्चरित्र..?

मैं सरिता हूं तू तालाब जो ठहरी.

17 comments:

संजय @ मो सम कौन... said...

अंतर तो है ही,
एक वेगवान और दूसरा वेगरूद्ध।
शानदार।

Rahul Singh said...

अप्रत्‍याशित बिंब की अनोखी कविता.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बढ़िया रचना अरविन्द जी !

कडुवासच said...

... bahut khoob ... behatreen rachanaa !!!

vijai Rajbali Mathur said...

Nadi ka bahta pani shuddh hota hai,talab ka pani thahrav ke karan nahin.
yahi antar hai.

Yashwant R. B. Mathur said...

bahut badiya!

Udan Tashtari said...

अच्छी रचना...

निर्मला कपिला said...

दो चरित्रों के वोरोधाभास को बहुत अच्छे शब्द दिये हैं। बधाई।

आपका अख्तर खान अकेला said...

bhut khub achchi bhut achchi rchnaa he. akhtar khan akela kota rajsthan

Patali-The-Village said...

बहुत अच्छे शब्द दिये हैं। बधाई।

महेन्‍द्र वर्मा said...

सरिता और तालाब को लेकर रची गई गहरे भावों वाली एक सुंदर रचना।

सूर्यकान्त गुप्ता said...

भावों को प्रकृति के साथ जोड़ना! प्रथम पंक्ति से अभिप्राय समझ मे आने लगा था। सुन्दर!

संजय भास्‍कर said...

अरविन्द जी ! जी
"ला-जवाब" जबर्दस्त!!

.शब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने ...प्रशंसनीय रचना।

अजय कुमार said...

अच्छी प्रस्तुति ।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

अरविंद भाई, मैं और तू के बहाने आपके विचारों से लाभान्वित होने का अवसर मिला, अच्छा लगा।
..............
यौन शोषण : सिर्फ पुरूष दोषी?
क्या मल्लिका शेरावत की 'हिस्स' पर रोक लगनी चाहिए?

दिगम्बर नासवा said...

अनोखे बिंब और अनोखा शब्द संयोजन है अरविंद जी ....

Dr.J.P.Tiwari said...

वाह भाई क्या खूब लिका है - यह भिन्नताए मात्र स्वरुप और संस्कार की नहीं है, तात्विक रूप से एक होते हुए भी यह विरोधाभास चारित्रिक है और व्यावहारिक भी. उपयोग और उपयोगिता की दृष्टि से भी अंतर है. एक परिवार एक देश में पलने बढ़ने वाले भी, क्लासमेट और रूममेट भी यही अंतर है. यह कविता नाहीं मनोविज्ञान है. संवेदनाओं को उछिकृत करके और विवेक पूओर्ण कृत्य से यह खाई पाती जा सकती है. इसका भी संकेत इस कविता में मिलता. बहुत ही सारगर्भित और बार-बार पढने योग्य कविता........आभार और साधुवाद