बहुत गहरी है तू
लम्बी और चौङी भी.
तुम्हारी जवानी भी
ठहरी सी है.
एक-एक बूंद को
रोक कर रक्खी है.
साथ ही डाल चुकी हो
एक बेलनाकार लम्बा खूंटा
अपने केन्द्रक में.
मैं तुम्हारी तरह गहरी नहीं
बह जाती हूं.
जवानी है पर भागती हुई
एक एक बूंद छलकती है.
मेरी परिधि बदलती रहती है
बेलनाकार खूंटा
डालूं भी तो कहां.?
एक सी जवानी होते हुए भी
कितना विरोधावास..?
कितना भिन्न सत्चरित्र..?
मैं सरिता हूं तू तालाब जो ठहरी.
17 comments:
अंतर तो है ही,
एक वेगवान और दूसरा वेगरूद्ध।
शानदार।
अप्रत्याशित बिंब की अनोखी कविता.
बढ़िया रचना अरविन्द जी !
... bahut khoob ... behatreen rachanaa !!!
Nadi ka bahta pani shuddh hota hai,talab ka pani thahrav ke karan nahin.
yahi antar hai.
bahut badiya!
अच्छी रचना...
दो चरित्रों के वोरोधाभास को बहुत अच्छे शब्द दिये हैं। बधाई।
bhut khub achchi bhut achchi rchnaa he. akhtar khan akela kota rajsthan
बहुत अच्छे शब्द दिये हैं। बधाई।
सरिता और तालाब को लेकर रची गई गहरे भावों वाली एक सुंदर रचना।
भावों को प्रकृति के साथ जोड़ना! प्रथम पंक्ति से अभिप्राय समझ मे आने लगा था। सुन्दर!
अरविन्द जी ! जी
"ला-जवाब" जबर्दस्त!!
.शब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने ...प्रशंसनीय रचना।
अच्छी प्रस्तुति ।
अरविंद भाई, मैं और तू के बहाने आपके विचारों से लाभान्वित होने का अवसर मिला, अच्छा लगा।
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यौन शोषण : सिर्फ पुरूष दोषी?
क्या मल्लिका शेरावत की 'हिस्स' पर रोक लगनी चाहिए?
अनोखे बिंब और अनोखा शब्द संयोजन है अरविंद जी ....
वाह भाई क्या खूब लिका है - यह भिन्नताए मात्र स्वरुप और संस्कार की नहीं है, तात्विक रूप से एक होते हुए भी यह विरोधाभास चारित्रिक है और व्यावहारिक भी. उपयोग और उपयोगिता की दृष्टि से भी अंतर है. एक परिवार एक देश में पलने बढ़ने वाले भी, क्लासमेट और रूममेट भी यही अंतर है. यह कविता नाहीं मनोविज्ञान है. संवेदनाओं को उछिकृत करके और विवेक पूओर्ण कृत्य से यह खाई पाती जा सकती है. इसका भी संकेत इस कविता में मिलता. बहुत ही सारगर्भित और बार-बार पढने योग्य कविता........आभार और साधुवाद
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