Wednesday, December 30, 2009

शुभ वर्ष बीस-दस

शुभ वर्ष बीस-दस मंगल वर्ष बीस-दस नूतन वर्ष बीस-दस

नई आशाएं, नयी योजनायें, नये प्रयास, नयी सफ़लता, नया जोश, नई मुस्कान, नया वर्ष बीस-दस

समृद्धशाली, गौरवपुर्ण, उज्ज्वल, सुखदायक, उर्जावान, विस्मयकारी, स्मृतिपुर्ण नव वर्ष बीस दस।

जीवन-मरण की सीमाओं मे बंधा हुआ नगण्य सा प्राणी मानव, काल-चक्र की द्रुतगति मे वीते वर्ष की परिधि बिंदु पर सांस लेता हुआ मानव, कालदेव की इच्छा-मात्र के अनुरूप अपने-अपने कर्तव्य एवम अधिकार के झंझावातों मे उलझा हुआ मानव और अन्य प्राणियों की भांति अपनी लघुतर आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कठिनतम प्रयास करता हुआ मानव का जीवन नव वर्ष बीस दस मेमंगलमय हो.

कालदेव नव वर्ष बीस दस के प्रत्येक क्षण आपके मुख-मंडल को दिवसदेव सुर्य की भांति तेजपूर्ण और कोमल पुष्प के समान प्रसन्नचित रखें. समय की धारा तरंगमयी सागर के लहरों की तरह आपके हृदय को तरंगित करें, रात्रि-राजन चंद्रदेव की तरह निर्मल करें, अमृतमयी गंगाजल की भांति पवित्र रखें और मदमस्त निर्झर-जल की भांति निश्छल बनायें--यही मेरी सुभकामना है.


अरविंद
डिपो सामग्री अधीक्षक
भंडार नियंत्रक कार्यालय
दक्षिण पूर्व मध्य रेल्वे
बिलासपुर, छत्तीसगढ

Wednesday, December 16, 2009

मेरी मां ने मुझे कहा था............,


(मेरी यह कविता मुझे जन्म देनेवाली मां इन्दिरा और नयी प्रेरणा देनेवाली मां निर्मला के लिये समर्पित है.मेरे ये शब्द उन सभी मांओं को समर्पित हैं जिन्होंने मातृत्व को नयी परिभाषा दी है.नारी निश्चित रुप से जननी है,अपने आप मे अन्य की तरह सद्गुणों से युक्त और हज़ारो अवगुणों के होते हुए भी वह निर्मला है.वह पहली और अंतिम पाठशाला है.उसके शब्दों के सागर को समेटना असंभव है.टुकडों मे ही सही सागर को समेटने का दुस्साहस कर रहा हुं.यदि प्रिय पाठकों को यह पसन्द आये तो आगे बढने का आदेश दें यही इस कविता की सार्थकता होगी.)
मेरी मां ने मुझे कहा था............,


मैने मां से सीख लिया था,
होश मे रहकर जीवन जीना.
फ़िर खुशियां लौटी जीवन मे,
नहीं मैं पहले जैसा दीना.

नारी जननी जीवमात्र की,
रुप भले ही अलग अलग हैं.
सौन्दर्य वही, प्रकृर्ति भी है,
वही चमेली वही जलज है।


कभी प्रसव पीडा वह सहती.
कभी बहन बन डोली सजती.
पत्नी बनकर सुख वह देती.
बेटी लक्ष्मी बन कर आती।


मेरी ईच्छा आदेश मान तू,
ला दे मेरे घर मे बहू तू.
जैसे ही पाया मैं ईशारा,
घर लेकर आया मैं दारा।


सपने मां के सत्य हुए थे.
क्षण मे ही सहस्त्रो फ़ूल खिले थे.
मां के मुख की रक्तिम आभा,
देख देव भी गौण पडे थे।


देखा मां के मुखाकाश पर,
तत्क्षण एक मेघों की टोली.
हर्ष, विषाद, संशय, चिन्तायें
भावनाओं के रंगों की होली.

मां ने मेरा हाथ पकडकर
निज मंदिर मे लेकर आयी.
वह मुझको एक पाठ पढाने,
अति सुन्दर एक कथा सुनायी.

Sunday, November 15, 2009

अभिव्यक्ति

उनकी हल्की बातें
उडान भरती है,
हवाई पत्तों की तरह.
तेज हवा के झोकों से
दोस्ती कर
चूम लेती है,
महलों की ऊंची दीवारों को.
टकराकर चिपक जाती है,
गगनचुंबी स्तंभों से.
लांघ जाती है,
मदमस्त चौडी नदियों को.
जमीन पर भी
दौडती है,
तेज रफ़्तार काफ़िलों के साथ.

लेकिन,
हमारी बातों मे वजन होता है.
डूब जाती है,
पत्थरों की तरह
किसी गहरे तालाब मे फ़ेंकने पर.
अब वह जमीन का हिस्सा नहीं होता.
वह दिखता नहीं.
वर्षों बाद उसमे काई लग जाती है.
स्वरुप बदल जाता है.
रंग बदल जाता है.
स्तित्व अर्थ नहीं रखता.
ऎसी अभिव्यक्ति का क्या अर्थ?

Monday, November 2, 2009

चाचा की चिट्ठी

दिनांक 14.11.2009
मेरे प्यारे बच्चों

आज तुम सभी बाल-दिवस के रुप मे मेरा जन्मदिन मना रहे हो-यह मेरे लिये खुशी की बात है।बच्चे जो राष्ट्र के भविष्य होते है-आज वर्तमान बनकर भारत के निर्माण मे अपना योगदान दे रहे है.इससे बढकर खुशी की बात क्या हो सकती है.जैसा मैने सोचा था वैसे ही तुमने विकास की रेखा को स्वर्णिम भविष्य की ओर उन्मुख कर दिया.मेरे सपनो को तुम सबने बहुत हद तक साकार किया है.मेरी ओर से सभी उपलब्धियों के लिये हार्दिक बधायी और शुभकामनायें.

भारत के लाखों-करोडो सपूतों ने स्वतंत्रता के लिये संघर्ष किया था।वस्तुतः यह कार्य समुद्र-मंथन की तरह कठिन था जिसका सुखद परिणाम विश्व के सबसे बडे प्रजातंत्र के रुप मे भारत का जन्म हुआ. मुझे खुशी है कि तुमलोगों ने देश की एकता, अखंडता और हमारी सांस्कृतिक विरासतों को अक्षुण्ण रखा. वस्तुतः भारत एक राष्ट्र और एक भूखंड मात्र नही है.यह एक विचार है जो प्रगतिशील होते हुए भी सत्य और अहिंसा के पथ पर चलता है.भारत एक लक्ष्य है जो एक अरब लोगों के कल्याण के लिये प्रतिबद्ध है.भारत एक धर्म है जहां सभी मजहबों के लोग पारस्परिक सहिष्णुता रखते हुए अपनी कर्मठता से देशभक्ति की छाप छोडते है.आज हम जो कुछ भी है वह हमारी इसी सोच का सार्थक परिणाम है. भारतीय होना निश्चय ही गर्व का विषय है और मैं आशा करता हूं कि भारत का प्रत्येक नागरिक भविष्य मे भी भारतीय होने का गर्व करते रहेंगे.

मेरे पत्र लिखने का उद्देश्य न ही अपने राष्ट्र का गुणगान करना है और ना ही मेरे और जिन्ना के विचार धाराओं पर प्रकाश डालना है।मेरी कुछ चिंताऎं है.जहां चुनौतियां होती हैं वहां चिंताओं का होना स्वाभाविक ही है. बाधायें तभी आती है जब रास्ते पर आगे बढने की बात आती है. यदि तुम सबकुछ छोडकर सो गये होते तो निश्चय ही इतनी सारी बाधायें और चुनौतियां नहीं आती. मुझे खुशी है कि तुम सोये नहीं बल्कि प्रगति पथ पर अग्रसर रहे. गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी की समस्या आज भी देश मे बरकरार है. उन दिनों की अपेक्षा आज इन समस्याओं का कद काफ़ी छोटा हो गया है,लेकिन मेरे सपनों का भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहां इन समस्याओं का कोई स्तित्व न हो.तुम लोगों का इन समस्याओं से निदान पाने का प्रयास प्रशंसनीय है. पहले हैजा और चेचक जैसी महामारी फ़ैल जाया करती थी और देखते ही देखते लाखों लोग काल के गाल मे नष्ट हो जाया करते थे. यह खुशी का विषय है कि इन समस्याओं से हमारा देश अब मुक्त हो चुका है.फ़िर भी एड्स एवं अन्य संक्रामक रोगों से निजात पाना आवश्यक है और इनके रोकथाम हेतु तुम लोगों के प्रयास की मैं सराहना करता हूं.

एक ऐसी भी चुनौती है जो भीतर ही भीतर हमारी व्यवस्था को खोखला किये जा रही है।मुझे दुख इस बात की है कि तुमलोग उस चुनौती का सामना करने के बजाय उसे सह दे रहे हो.यह चुनौती है भ्रष्टाचार को रोकना.पहले भी कुछ हद तक भ्रष्टाचार व्याप्त था, लेकिन आज स्थिति शर्मनाक हो चुकी है.आज तो न्याय मंदिर से लेकर मंत्रालयों तक भ्रष्टाचार जडे जमा चुकी है. जबकी सुविधायें बढी है, प्रति व्यक्ति आय कई गुणा बढ चुका है.सूचना प्रोद्योगिकी जैसे ब्रह्मास्त्र का कुशल प्रयोग कर भ्रष्टाचार को निर्मूल किया जा सकता है.मैं देखता हूं तुमलोग अन्य कार्य के लिये सूचना प्रोद्योगिकी का प्रयोग करते हो लेकिन वहां सूचना प्रोद्योगिकी का प्रयोग नहीं हो रहा है जहां भ्रष्टाचार होता है.

आज आतंकवाद और नक्सलवाद दो अहम समानान्तर समस्याएं आ खडी हुई है। धार्मिक कट्टरता ने आतंकवाद को पैदा किया है और पुलिसतंत्र एवं न्याय-व्यवस्था की अकर्मन्यता ने नक्सल्वाद को जन्म दिया है. यदि इनके मूलों को नष्ट किया जाये तो इन समस्याओं से निजात पाया जा सकता है. हिंसा का जबाब हिंसा से देकर आतंकी और नक्सली को मारा जा सकता है आतंकवाद और नक्सलवाद को नष्ट नहीं किया जा सकता.

मैं यह चाहता हूं कि तुमलोग इन समस्याओं पर विचार करो और ईमानदारी और निष्ठा से निदान की ओर आगे बढो। यह जान लो कि राष्ट्रभक्ति ही सर्वस्व है. एकमात्र यही गुण सभी समाजिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं पर भारी पडेगा और तुम्हे जीत दिलायेगा. जय हिन्द जय भारत.

तुम्हारा चाचा
जवाहर लाल.

Sunday, October 25, 2009

साहब की सोच

छोटे साहब हर समय जिम्मेदारियों से लदे रहते हैं.कभी कर्मचारियों के कार्य का वितरण,कभी अधिकारियों के अधिकार का संघर्ष और उपर से अपने कार्य क दबाब.सचमुच इन सारे दायित्वों का निर्वाह काफ़ी कठिन है.सामान्यतः उनसे कभी भुल नही होती.वह हर समय आदर्श सोचते हैं.
आज तो सुबह से ही दुखद समाचारों कि श्रिखला शुरु हो गयी है।पहला समाचार यह था कि जानकी बाई जो हमारे कार्यालय मे चपरासी, कल मर गयी.उसकी बहू ने पूछने पर इस बात की जानकारी दी.फौरन यह सूचना छोटे साहब को दी गयी.साहब ने तभी बाबू को बुलाया और उदारता दिखाते हुए आदेश पारित किया कि सभी अधिकारी दो सौ रुपये,ग्रुप सी कर्मचारी सौ रुपये और चतुर्थवर्गिय कर्मचारी पचास रुपये जमा करें और सारे रुपये जानकी के बेटे को भेज दिया जायें.कुल आठ हजार पचास रुपये जमा किये गये.एक चतुर्थवर्गिय कर्मचारी के हाथों जानकी के बेटे के पास भेज दिया गया.जानकी का बेटा मातृशोक के सदमे मे डूबा था.सो सारे रुपये तत्काल उसकी बहू ने जमा रख लिया. तभी छोटे साहब के फोन की घंटी बजने लगी.बडे साहब का फोन था.उन्होने अपने पचहत्तर वर्षीय पिता के देहावसान का दुखद समाचार दिया.छोटे साहब ने उनके निधन पर गहरा शोक प्रगट किया.शोक लहर तत्काल जंगल मे लगे आग की तरह पूरे कार्यालय मे फैल गयी.अभी कार्यालय मे कार्य की शुरुआत ही हुई थी.महिला कर्मचारियों की आंखों से निकली अश्रुधारा शोक की लहर को उसी तरह आवर्धित करने लगी जैसे पवनदेव के सहयोग से महासमुद्र की लहरें तेज हो जया करती है. कार्यालय का कार्य पुरी तरह से ठप हो गया .शोक की लहर में कर्मचारियों के लिये कंप्युटर की कीबोर्ड पर उंगली फ़ेरना कठिन था और अधिकारियों के लिये निर्णय लेन.बडे दिलवाले अधिकतर कर्मचारीगण एवं अधिकारीगण छोटे साहब के पास आकर बडे साहब के पिता के निधन पर शोक प्रगट किया और उनके अंतिम संस्कार मे भाग लेने की इच्छा जतायी.साहब ने उन सभी को हस्ताक्षर कर कार्यालय छोडने की अनुमति दे दी स्वयं भी उनके साथ हो लिये.शेष बचे लोग अपने-अपने कार्य मे लगे रहे.
सायंकाल लगभग पांच बजे अंतिम संस्कार के उपरांत सभी लोग कार्यालय वापस आ गये.जानकी का बेटा छोटे साहब के कक्ष के पास खडा था. छोटे साहब के कक्ष मे जाने के बाद वह भी आदेश लेकर कक्ष मे प्रवेश किया.पुछने पर वह बोलने लगा "साहब! मेरी मां ने मरने से पहले कहा था कि आफ़िस जाकर बता देना नही तो साहब लोगों को पानी कौन पिलायेगा. उसने तीस साल रेलवे की सेवा की थी.जीते जी जब साहब लोग खुश होकर उसे रुपये देते थे तो वह नही लेती थी,मरने के बाद वह इतने रुपये लेकर क्या करेगी?आज तो यहां दो-चार लोग ही काम कर रहे थे,क्यों न ये सारे रुपये रेलवे को दे दिया जाये" वह तनिक चुप हो गया.साहब भी शान्त रहे.उन्होने रुपये लेकर अपने लोकर मे रख लिया.वह फिर कहने लगा "साहब मेरी मां इस कार्यालय मे सब को जानती थी और हर कोइ उसे दीदी कहकर पुकारते थे". वह फिर से चुप हो गया. वह जहां खडा था और साहब जहां बैठे थे उन दो स्थानों की सामाजिक दूरी इतनी ज्याद थी कि एक-दुसरे के विचारों के ज्वार को समझना नामुमकिन था और अश्रुधारा के रुप मे प्रगट करना उतना ही शर्मनाक.इसी बीच वह आदेश लेकर चला गया. साहब ने अपने कमरे का दरबाजा अन्दर से बंद कर दिया और फूट-फूटकर रोने लगे.जानकी के हाथ से इतने दिनों मे उन्होंने जितना पानी पीया था,सार पानी आंसू के रुप मे अपनी आंखों से बहा दिया.अक्सर जब एक बार कहने पर कोई बात जानकी नही सुनती तो साहब चिल्ला उठते थे और कहते थे बहरी हो गयी हो क्या.आज उनके फूट-फूटकर रोने की आवज दरवाजा बंद होने के कारण कोई नही सुन रहा,शायद बहरी जानकी सुन रही होगी.इससे बढकर श्रद्धांजलि क्या हो सकती है? साहब ने जानकी का कर्ज चुका दिया था.
अब चिंतन का समय था.साहब का चिंतन बडे साहब के पिता और जानकी के रेलवे के प्रति किये गये योगदानों की तुलना पर केंद्रित हो गया था.ईश्वर ने उन दोनों के जीवन मे तो बहुत बडा फर्क कर दिया था लेकिन मृत्यु तो सभी की एक जैसी होती है.ईंसानों ने उनके जीवन मे भी फर्क किया था और मृत्यु मे भी.क्षण भर के लिये साहब को लगा कि जानकी हाथ मे पानी का ग्लास लेकर खडी है,उनक चिंतन टूट गया.

Tuesday, October 20, 2009

मेरी मां ने मुझे कहा था............,भाग-४


(मेरी यह कविता मुझे जन्म देनेवाली मां इन्दिरा और नयी प्रेरणा देनेवाली मां निर्मला के लिये समर्पित है.मेरे ये शब्द उन सभी मांओं को समर्पित हैं जिन्होंने मातृत्व को नयी परिभाषा दी है.नारी निश्चित रुप से जननी है,अपने आप मे अन्य की तरह सद्गुणों से युक्त और हज़ारो अवगुणों के होते हुए भी वह निर्मला है.वह पहली और अंतिम पाठशाला है.उसके शब्दों के सागर को समेटना असंभव है.टुकडों मे ही सही सागर को समेटने का दुस्साहस कर रहा हुं.यदि प्रिय पाठकों को यह पसन्द आये तो आगे बढने का आदेश दें यही इस कविता की सार्थकता होगी.) मेरी मां ने मुझे कहा था............,
भाग-४
फ़िर आयी एक भयानक आंधी.
विखर गया मैं टूट-टूटकर.
पल मे हरियाली गायब हो चली,
लेकर आयी भीषण पतझड.
देखा, चारों ओर निराशा,
आती है नित नये रुप मे.
छल, घृणा-द्वेष, घनघोर हतासा,
छायी है मेरे जीवन मे.
जो पथ भरे थे फ़ूलों से,
अब सजे हुए हैं शूलों से.
पहले जहां कदम रखता था,
फ़ूलों का श्पर्स था होता.
वही कदम फ़िर से रखता हूं
शूल इसे क्यों छलनी करता ?
पथ वही , लक्ष्य वैसा ही हैं,
फ़िर चला क्यों नही जाता है?
क्यों कदम इतने कमजोर हुए
क्यों सहा अब नही जाता है?
मां ने मुझसे ठीक कहा था,
कालचक्र चलता रहता है.
आंधी भी बहती रहती है.
इन्द्रधनुष छाता रहता है.

Wednesday, October 14, 2009

सच बोलना गुनाह है।

धुन लगी है सच बोलने की। सनकी है साला। सौ दफे समझाया, मत बोला कर। कुछ बोल ही मत। बोलेगा भी तो झूठ बोल, सच मत बोल। सच काहे के वास्‍ते बोलेगा। तेरे को पागल कुत्‍ते ने काटा है क्‍या। लाख समझाओ कौन मानता है। काहे को मानेगा। शेर समझता है खुद को। सनकी साला।

शाम का वक्‍त था। चौराहे पर चायवाला भी था और पानवाला भी। रास्‍ते के दोनों ओर कई दुकाने खुली थीं। हम सीधे रास्‍ते सिनेमा हॉल की ओर चलते गये। फिर तीन घंटे सिनेमा देखा। सिनेमा के दौरान परदे पर सैकड़ों गोलियाँ चली, कमोवेश उतने ही लोग मरे। वह कुछ नहीं बोला, क्‍योंकि जानता है परदे पर दिखने वाले पिस्‍तौल खिलौने थे, गोलियाँ नकली थी और इन मौतों का सच से कोई रिश्‍ता न था। सिनेमा के बाद हम उसी रास्‍ते से आ रहे थे, जिधर से गये थे। फिर एक गोली चली और खल्‍लास। मैनें तो कुछ नहीं देखा। चायवाले और पानवाले को कल भी अपनी दुकानदारी चलाना है। इसलिए उसने भी कुछ नहीं देखा।
किसी ने कुछ नहीं देखा सिवा उसके। मैं उसे समझाया, लॉक रख अपनी जुबान को। हमारी तरह तुमने भी कुछ नहीं देखा। तुम कुछ बोल ही मत। बोलना है, तो बोल कि कुछ नहीं देखा तूने। झूठ के सिवा कुछ भी मत बोल, लेकिन काहे को मानेगा। उसने वर्दी वाले को सब कुछ बताया। उस वर्दीवाले को जो अक्‍सर गोली चलने के आधे घंटे के बाद ही आता है तब तक गोली चलाने वाले का हुलिया भी बदल चुका होता है, और ठिकाना भी। उस वर्दीवाले को उसने सब कुछ बताया-गोली चलाने वाले का चेहरा भी, और हुलिया भी। शेर के माफिक लोगों की भीड़ में शर्ट की छाती के बटन खोलकर एक-एक बात बतायी उसने। सच जो बोल रहा था। किसी खादी वाले का नाम बताया था उसने। जानता ही नहीं खादी वाले और वर्दीवाले में दोस्‍ती का रिश्‍ता होता है। अपनी दोस्‍ती के वास्‍ते कुछ भी करता है ये लोग। चोरी करता है, डाँका डालता है, खून करता है, बलात्‍कार करता है और क्‍या नहीं करता अपनी दोस्‍ती के वास्‍ते। लेकिन उसका कुछ नहीं होता। अदालत की ऊँची कुर्सी पर बैठकर और टेबल पर हथौड़ा ठोक-ठोककर आर्डर-आर्डर चिल्‍लाने वाला भी जानता है कि मामूली सी गलती भी उसे महँगी पड़ सकती है। जब खादी वाला कानून बनाता है, और वर्दीवाला चलाता है तो वो कौन है बीच में बोलने वाला।

अभी-अभी गोलियाँ चलीं हैं, चंद मिनट पहले, उसी जगह। दुकानें खुली हुई हैं, चायवाला भी है और पानवाला भी। आज भी किसी ने कुछ नहीं देखा। मैंने भी कुछ नहीं देखा। लेकिन आज तो इसे खुद ही गोली लगी है जरूर इसने सब कुछ देखा होगा। गोली चलाने वाले का चेहरा भी और हुलिया भी। ये तो छाती की बटन खोलकर एक-एक बात बताया है किसी से डरता ही नहीं। आँखें खोलकर रखा है। लेकिन देखो न जुबॉन को लॉक कर दिया है। कुछ बोल ही नहीं रहा है। आज सच्‍ची रिपोर्ट कौन लिखवायेगा। बाकी लोगों ने तो कुछ देखा ही नहीं। उन्‍हें कभी ये सब दिखायी ही नहीं देता। जिसने देखा है वह कुछ बोल भी नहीं रहा है। लगता है कि आज जान गया है कि सच बोलना गुनाह है।
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Tuesday, October 13, 2009

मेरी मां ने मुझे कहा था............,भाग-३

(मेरी यह कविता मुझे जन्म देनेवाली मां इन्दिरा और नयी प्रेरणा देनेवाली मां निर्मला के लिये समर्पित है।मेरे ये शब्द उन सभी मांओं को समर्पित हैं जिन्होंने मातृत्व को नयी परिभाषा दी है.नारी निश्चित रुप से जननी है,अपने आप मे अन्य की तरह सद्गुणों से युक्त और हज़ारो अवगुणों के होते हुए भी वह निर्मला है.वह पहली और अंतिम पाठशाला है.उसके शब्दों के सागर को समेटना असंभव है.टुकडों मे ही सही सागर को समेटने का दुस्साहस कर रहा हुं.यदि प्रिय पाठकों को यह पसन्द आये तो आगे बढने का आदेश दें यही इस कविता की सार्थकता होगी.) मेरी मां ने मुझे कहा था............,

भाग-३
मां,हृदय मेरा अति सुक्ष्म-तुच्छ है.
कहां समेटूं ग्यान का सागर ?
होता क्यों यह चित्त अति चंचल?
क्यों न थमता यह कुछ पल भर?

थम गयी नयन की नीर-वृष्टि,
मैने पाय ममतामयी दृष्टि.
मां हुई प्रश्न से इतनी खुश,
छाया चेहरे पर इन्द्रधनुष।

रख धैर्य पुत्र यह संभव होगा.
ग्यान का अमृत तुम्हे मिलेगा.
हो विश्वास स्व और प्रभु पर,
फ़िर जग में क्या होत दुष्कर।

जीवन मे वसंत फ़िर आयी.
चारों ओर छायी हरियाली.
सुख का सागर जब देखा मैंने,
भूल गया क्या कहा था उसने।

हृदय से लिपटा अभिमान का चादर
भूल गया क्या होता ईश्वर.
सोचा, उसकी सत्ता मैं क्यों मानूं ,
जब सब कुछ होता अपने बल पर।
क्रमश:................,

Sunday, October 11, 2009

मेरी मां ने मुझे कहा था............,भाग-२

(मेरी यह कविता मुझे जन्म देनेवाली मां इन्दिरा और नयी प्रेरणा देनेवाली मां निर्मला के लिये समर्पित है।मेरे ये शब्द उन सभी मांओं को समर्पित हैं जिन्होंने मातृत्व को नयी परिभाषा दी है.नारी निश्चित रुप से जननी है,अपने आप मे अन्य की तरह सद्गुणों से युक्त और हज़ारो अवगुणों के होते हुए भी वह निर्मला है.वह पहली और अंतिम पाठशाला है.उसके शब्दों के सागर को समेटना असंभव है.टुकडों मे ही सही सागर को समेटने का दुस्साहस कर रहा हुं.यदि प्रिय पाठकों को यह पसन्द आये तो आगे बढने का आदेश दें यही इस कविता की सार्थकता होगी.) मेरी मां ने मुझे कहा था............,

भाग-२
तुमको मिल जाये ग्यानामृत,
प्रेम का हो पुष्प उदित,
यदि करो सब कुछ अर्पित,
हो संपुर्ण जगत का सुख अर्जित।

मेरा मंत्र ,यह याद रहे,
शेष रह अब अंतिम शिक्षा.
अपना सब कुछ वलि चढाकर,
करना तुम मातृभुमि की रक्षा.

जननी और जननी की भूमि
स्वर्ग से भी सुन्दर होती.
मां रोती जब पुत्र के होते,
मातृभूमि की आभा रोती।

अंतिम शिक्षा पुर्ण हो गया,
शांत हो गयी इतना कहकर.
देखा मुझको हो प्रेमातुर,
नयन कटोरा नीर से भरकर।

खिंची हृदय मे प्रश्न की रेखा,
हुए विना विचलित ही पुछा.
संशय क्या है? मुझे बताओ.
फ़िर आगे तुम कदम बढाओ।
क्रमश:................,

Friday, October 9, 2009

मेरी मां ने मुझे कहा था............,

(मेरी यह कविता मुझे जन्म देनेवाली मां इन्दिरा और नयी प्रेरणा देनेवाली मां निर्मला के लिये समर्पित है।मेरे ये शब्द उन सभी मांओं को समर्पित हैं जिन्होंने मातृत्व को नयी परिभाषा दी है.नारी निश्चित रुप से जननी है,अपने आप मे अन्य की तरह सद्गुणों से युक्त और हज़ारो अवगुणों के होते हुए भी वह निर्मला है.वह पहली और अंतिम पाठशाला है.उसके शब्दों के सागर को समेटना असंभव है.टुकडों मे ही सही सागर को समेटने का दुस्साहस कर रहा हुं.यदि प्रिय पाठकों को यह पसन्द आये तो आगे बढने का आदेश दें यही इस कविता की सार्थकता होगी.)
मेरी मां ने मुझे कहा था............,

भाग-१

तुम सुरज मेरे जीवन के,
सारे जग को रौशन करना.
जिस घर मे हो काली रातें,
उस घर मे तुम ज्योति जलाना।

सत्य तुम्हारा संबल होगा,
मानवता को धर्म बनाना.
करे मुक्त जो नीर नयन से,
ऎसा अपना कर्म बनाना।

हर मोड पर दो राह मिलेंगे,
पथिक नहीं घबराना उस पल.
जो पथ जग को स्वर्ग बनाये,
आगे बढना उस पथ पर चल।

लक्ष्य यदि हों पुष्प समान
पथ मे कांटे ही कांटे होंगे.
पाना हो जब सूर्य सी आभा,
तो पहले काली रातें होंगे।

राह मध्य तुम मत रुकना,
बाधाओं से कभी न झुकना.
हिंसा और असत्य से लडना,
शत्रु के भय से कभी न डरना। क्रमश:................,

Thursday, October 8, 2009

सरिता

मैं अल्हड सी मदमस्त हुई
अपने यौवन पर इतराती,
अपनी धारा के संग खेल
हंसती जाती-गाती जाती।

न लोभ मुझे न क्षोभ मुझे
जग है क्या? जानूं अर्थ नही,
आगे बढना ही आदत है
रुकने का कोई तर्क नही।

वह देखो झांक रहा सूरज
पीपल की ओझल टहनी से,
मादक किरणों की धार लिये
मेरे यौवन की गहराई
माप रहा वह चुपके से,
मैं मंद-मंद हूं मुस्काती.
मैं अल्हड सी मदमस्त हुई
अपने यौवन पर इतराती.

Wednesday, October 7, 2009

मंगल-सूत्र

उसे ठीक-ठाक घर का पता नहीं मालूम। इतना जानती है कि वह रांची में रहती थी। पढाई के नाम पर गांव के स्‍कूल को दूर से ही देखा था उसने। शायद इसलिए घर का फोन नम्‍बर भी याद रखना उसके वश की बात नहीं। उम्र सोलह-सतरह से कम नहीं है, लेकिन नाम पूछने पर पाँच साल की बच्‍ची-सी मासूमियत लिए प्‍यार से कहती है। चमेली जिसे वह हिन्‍दी और अंग्रेजी, दोनों लिपियों में लिखना जानती है।

पिछले साल उसकी माँ चल बसी और उसके बाद पिता ने भी इस बोझ को ढ़ोने से मना कर दिया। इस तरह विरासत में कुछ भी नहीं पाया चमेली ने। बस, उसे अपनी माँ का चेहरा याद है, जिसने मरते वक्‍त अपनी अमानत अपनी बेटी को दे दी थी। वह अमानत थी-मंगल-सूत्र। यद्यपि चमेली सीधी-साधी लड़की है, फिर भी वह मंगल-सूत्र की कीमत भली-भाँति जानती है। वह समझती है कि यह धागा विश्‍वास और पवित्रता का प्रतीक है-यह एक अमूल्‍य निधि है। वह एक समझदार युवती है। बेसहारा होने के बाद भी उसने ध्‍ौर्य नहीं खोया। घर-घर जाकर काम करती रही, रोजी-रोटी की कमी कभी नहीं खली। फिर अचानक चमेली की जिंदगी में एक गुलाब आया- हॉ गुलाब ही नाम है उसका। उसने न सिर्फ चमेली के घायल हृदय पर स्‍नेह का मरहम लगाया, बल्‍कि कई नये सपने भी दिखाये। वह किसी भी मायने में चमेली से बेहतर नहीं है, फिर भी उस समय चमेली को एक सहारे की जरूरत थी, जिसे गुलाब ने पूरा कर दिया। चन्‍द दिनों के बाद दोनों राँची से दिल्‍ली आ गये। ट्रेन का नाम न ही चमेली को पता है और न ही गुलाब को। यहाँ दोनों मेरे मकान के सामने के मकान में किराये पर रहने लगे। दोनों देखने में काले हैं, चमेली नाटी सी है और उसकी नाम इतनी चौड़ी है कि किसी भी दृष्‍टि से उसे सुन्‍दर कहना सुन्‍दरता का अपमान होगा। लेकिन चन्‍द दिनों में ही मैंने, देख लिया है कि चमेली अन्‍दर से इतनी अच्‍छी है कि प्रश्‍ांसा के ढे़र सारे शब्‍द छोटे पड़ जायेंगे। मैंने चमेली या गुलाब या दोनों को एक साथ जब भी देखा है, हँसते हुए देखा है। दोनों के चेहरे को देखकर कोई भी कह सकता है कि ये काफी भोले-भाले हैं। तभी एक दिन अचानक चमेली मेरे घर आयी, ठीक वैसे ही जैसे ट्‌यूशन पढ़ने वाले बच्‍चे सीध्‍ो मेरे कमरे में मेरे टेबुल के पास आकर खड़े हो जाते हैं। मैंने उसकी ओर देखा आँखों में प्रश्‍नवाचक चिन्‍ह लिये। वह बोल पड़ी-‘‘हमें आपसे कुछ माँगना है, इसीलिए आये हैं।‘‘ मैंने पूछा-‘‘ क्‍या माँगना है?‘‘ ‘‘ हमें ये कार्ड चाहिए, शादी के वास्‍ते।‘‘ उसने मेरी टेबुल पर रखी ग्रीटिंग कार्ड की ओर इशारा किया और बोलती चली गयी। ‘‘हमारी शादी हो रही है न कल।‘‘ इसी के वास्‍ते, उसने तो सबको कार्ड भी दे दिये। अब हमारा भी तो फर्ज है कि किसी को कोई कार्ड दे दूँ। उसकी मूर्खता पर मैं हँसना चाहता था, लेकिन उसके चेहरे की मासूमियत ने हँसने से रोक दिया। मैंने उसे समझाया ‘‘चमेली ये कार्ड पुराने हैं, तुम्‍हें तो नये कार्ड चाहिए ना।‘‘ और उस पर तुम लोगों का ही नाम लिखा होना चाहिये। इस पर उसी ने समझाना शुरू किया। ‘‘कार्ड पुराना है तो क्या हुआ साहब। ‘‘ घर में ही देना है उसको। और वो आपका नाम कैसे पढ़ेगा? कौन सा पढ़ा लिखा है़...मेरी तरह...है। इस बार मैं स्‍वयं को हँसने से नहीं रोक पाया। उसके लिये उसके पति का पढ़ा-लिखा या मूर्ख होना कोई मायने नहीं रखता। मैं समझ रहा था, फिलहाल चमेली को समझाना संभव नहीं है। मैंने हँसते हुए कार्ड उठाकर उसके हाथ में दे दिये। मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि चमेली यह कार्ड उसे (गुलाब को) क्‍यों देना चाहती है, जबकि गुलाब से ही तो उसकी शादी हो रही है। कार्ड हाथ में लेकर वह धन्‍यवाद आदि कहने की कोई जरूरत समझे बिना ही चलने लगी। फिर भी मैंने उसको रोक दिया- लेकिन... तुम ये कार्ड गुलाब को क्‍यों देना चाहती हो" "कोई नहीं है ना अपना इसी के वास्‍ते। हम कार्ड किसको देंगे और वही तो हमारी शादी में सब कुछ कर रहा है। पन्‍द्रह-बीस लोग आयेंगे कल। आप भी आ जाना, बहुत अच्‍छा खाना बनेगा।‘‘ कहते हुए चली गई चमेली। कितनी सीधी-साधी है चमेली। कुछ भी छिपाना नहीं जानती। आज वह खुश है, मुस्‍कुरा रही है कल उसकी शादी होने वाली है। उसके चेहरे की खुशी नहीं कहती कि जिन्‍दगी में उसे हँसने का अवसर बहुत कम मिला है। आज कल के समझदार लोग पूरी जिन्‍दगी हँसने के लिये अवसर तलाशते हैं। कई अवसर भी आते हैं लेकिन दिल खोलकर हँस नहीं पाते। हमें चमेली से सीखना चाहिये कि छोटे से मौके पर भी कैसे दिल खोलकर हँसा जाता है। अगले ही दिन चमेली और गुलाब की शादी धूमधाम से हो गई।

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सिर्फ शादी के तीन दिन हुये हैं। चमेली बरामदे पर खड़ी है। चारों ओर से लोगों ने घ्‍ोर रखा है। चमेली तमाशा बनी हुई है, उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मगर आस-पास के लोग शायद सब कुछ समझ रहे हैं। कुछ लोगों के लिये चमेली के इस सप्‍ताह की कहानी एक ख्‍ोल है, कुछ के लिये हादसा और कुछ के लिये दो-तीन एपिसोड में बनने वाली दूरदर्शन के सीरियल की कहानी। चमेली की आँखें सूखी हैं, शायद आँसू बहाने का काम उसने पहले ही कर लिया है। आज उसके चेहरे से चमक गायब है। माँग रिक्त है और उसने गले से मंगलसूत्र भी निकाल फेंका है। कल ही गुलाब उसे छोड़कर राँची चला गया, उसकी जिन्‍दगी से दूर.......... काफी दूर, सदा के लिये। हो सकता है वक्‍त बीतने के साथ गुलाब फिर से बदल जाये, मगर चमेली का क्‍या होगा? क्‍या उसका गुलाब के प्रति विश्‍वास लौट पायेगा। शायद कभी नहीं। क्‍या वह जूठी मंगलसूत्र फिर से पहनने की गलती करेगी? शायद नहीं। कितना मामूली था यह मंगलसूत्र! तीन दिनों में ही अपना रंग बदल गया।
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अरविंद झा

Monday, October 5, 2009

जंगल-राज

जंगल-राज
प्रजातंत्र हो जाने के बाद यहां जंगल मे भी राज चलाना काफ़ी कठिन हो गया है.उपर से राजनीति भी जोरों पर है.अभी हाल ही मे आम चुनाव हुए थे जिसमे शेर की पार्टी ने हाथी के दल को पटखनी दी और पुर्ण बहुमत लेकर सत्तासीन हुई.लम्बे-चौडे वादे किये गये.भेडों-बकडों के समुह को यह कहकर वोट मांगा गया कि शेर अब उसका शिकार नही करेंगे.मछलियों से वादा किया गया कि मगरमच्छों से उनकी रक्षा की जायेगी.छोटे-छोटे जानवरों को विश्वास दिलाय गया कि सस्ते दरों पर उन्हे चारा उपलब्ध कराये जायेंगे.किसी भी पशु-पक्षी को बेरोजगार नही रहने दिया जायेगा और सारे फ़ैसले जानवरों के हितों को ध्यान मे रखकर लिया जायेगा.हाथी के दल ने भी कुछ मिलते-जुलते वादे ही किये थे लेकिन अंततः पशुमत शेर की पार्टी के पक्ष मे रहा.हाथी को विपक्ष का नेता चुना गया और शेर की सरकार बनी.सियारों को प्रमुख मन्त्रालय दिये गये----क्योंकि चुनाव के दौरान उन्ही की ब्युहरचना और लिखे गये भाषण काम आये थे.
आमसभा मे हाथी ने चमचों को मंत्रालय दिये जाने पर सरकार की आलोचना की और यह भी आरोप लगाया कि जिन क्षेत्रों मे शेर की पार्टी को सीटें नही मिली उन क्षेत्रों से किसी को भी मंत्री नही बनाया गया.इस पर शेर शांत रहा और यह कहते हुए हंस दिया कि जब हाथी का शासन था तो वे सत्ता पाकर उनमत्त हो गये थे और बेरहमी से छोटे जानवरों को कुचल दिया था.इस पर विपक्ष मे बैठे जानवरों ने शोर मचाना चालू कर दिया.शेर भी आखिर शेर था, वह अपना मूल स्वभाव कैसे भूल सकता है.वह भी गुर्राने लगा. तभी एक मंत्री आकर शेर के कानों मे फ़ुसफ़ुसाया "महोदय ,मिडियावाले देख रहे हैं.यहां जो कुछ भी होता है उसमे मसाला लगाकर टेलीविजन के जरिये छोटे जानवरों को दिखाये जाते हैं. राजनीति यही कहता है कि सबके सामने सबको बोलने दो लेकिन अकेले मे जो विरोध करे उसकी जुबान काट लो.भरी सभा मे विरोध हो तो हंस्कर टाल दो और रात के अंधेरे मे विरोधी को पांव तले कुचल दो".शेर को थोडी बहुत राजनीति की बातें समझ मे आ रही थी.आखिर उसकी पुलिस-कुत्तों की फ़ौज, उसके जेब मे है और काली बिल्ली न्यायालय चलाती है.अकेले दम पर वह हजारो जानवरों को अपना शिकार बना सकता है.तभी विपक्ष से एक जानवर खडा हुआ और बोलने लगा "आप सभी जानवरों को सस्ते दर पर चारा कहां से देंगे जबकि आपके मंत्री खुद चार खा जाते हैं?". दुसरा बोला "जानवरों को बेवकूफ़ बनाकर पचासो साल से आप राज करते रहे,इतने दिनो मे आप ने क्या किया?".एक एक कर सभी जानवर बोलते रहे और शेर शांत भाव से सुनता रहा.फ़िर सभा क विसर्जन कर दिया गया.सायंकाल मिडियावालों को शेर ने अपने आवास पर बुलाकर बहुत अच्छा भोज दिया.उन्हे बकरे की मीट और मुर्गे की टांग पडोसी गयी.रात मे टीवी पर विपक्ष मे बैठे जानवरों के दुर्व्यवहार की खिल्ली उडायी गयी. सरकार की दूरदृष्टि की प्रशंसा की गयी.शेर की ईमानदारी और सहनशीलता की सराहना हुई.
रात के बारह बज चुके थे.काम करते करते शेर थक चुका था.वह बहुत भूखा था.मिडियावालों के साथ यह कहते हुए वह खाना नही खाय था कि उसने मांसाहार छोड दिया है.दिन के सर्वदलीय भोज मे पनीर की सब्जी जो उसे पसन्द नही है,यह बहान बनाकर नही खाया था कि आज उसे उपवास है.राजनीति का मतलब यह नही होत कि राज करनेवाला भूखा रहे और बांकी सभी मौज करें.उसे सियारों की यह राजनीति पसंद नही आयी.तभी एक सियार शेर के पास आया और भोजन-गृह मे पधारने का अनुरोध किया.सभी जानवर अपने-अपने घरों मे चले गये.शेर का भोजन-गृह जो कि एक अंधेरी गुफ़ा की तरह था-मे शेर प्रवेश कर गया.गुफ़ा मे घुसते ही स्वादिष्ट खाने का गंध उसकी नाक तक पहुंचने लगा.डरी हुई कई छोटी-छोटी निरीह आंखे अंधेरी गुफ़ा मे भी चमक रही थी.शेर मुस्कुराने लगा---अब उसे राजनीति अच्छा लगने लगा था.
ईशारा
ये मौत भी,
मेरे ही ईशारों पर हुई है.
छल किया था,
धोखा दिया था उसने.
मैने उसे समझाया,
चेतावनी दिया,
अपनी गलतियों से बाज आए.
बहुत उपर तक पहुंच है मेरी.
एक अद्रुश्य शक्ति के समक्ष,
जो स्रुष्टि का निर्माता भी है
और चलाता भी है.
मैने क्षमा न करने
और न्याय पाने की
मौन स्वीक्रुति दे दी.
ये मौत भी,
मेरे ही ईशारों पर हुई है.