(मेरी यह कविता मुझे जन्म देनेवाली मां इन्दिरा और नयी प्रेरणा देनेवाली मां निर्मला के लिये समर्पित है.मेरे ये शब्द उन सभी मांओं को समर्पित हैं जिन्होंने मातृत्व को नयी परिभाषा दी है.नारी निश्चित रुप से जननी है,अपने आप मे अन्य की तरह सद्गुणों से युक्त और हज़ारो अवगुणों के होते हुए भी वह निर्मला है.वह पहली और अंतिम पाठशाला है.उसके शब्दों के सागर को समेटना असंभव है.टुकडों मे ही सही सागर को समेटने का दुस्साहस कर रहा हुं.यदि प्रिय पाठकों को यह पसन्द आये तो आगे बढने का आदेश दें यही इस कविता की सार्थकता होगी.)
मेरी मां ने मुझे कहा था............,
मैने मां से सीख लिया था,
होश मे रहकर जीवन जीना.
फ़िर खुशियां लौटी जीवन मे,
नहीं मैं पहले जैसा दीना.
नारी जननी जीवमात्र की,
रुप भले ही अलग अलग हैं.
सौन्दर्य वही, प्रकृर्ति भी है,
वही चमेली वही जलज है।
कभी प्रसव पीडा वह सहती.
कभी बहन बन डोली सजती.
पत्नी बनकर सुख वह देती.
बेटी लक्ष्मी बन कर आती।
मेरी ईच्छा आदेश मान तू,
ला दे मेरे घर मे बहू तू.
जैसे ही पाया मैं ईशारा,
घर लेकर आया मैं दारा।
सपने मां के सत्य हुए थे.
क्षण मे ही सहस्त्रो फ़ूल खिले थे.
मां के मुख की रक्तिम आभा,
देख देव भी गौण पडे थे।
देखा मां के मुखाकाश पर,
तत्क्षण एक मेघों की टोली.
हर्ष, विषाद, संशय, चिन्तायें
भावनाओं के रंगों की होली.
मां ने मेरा हाथ पकडकर
निज मंदिर मे लेकर आयी.
वह मुझको एक पाठ पढाने,
अति सुन्दर एक कथा सुनायी.
3 comments:
बहुत सुन्दर आगाज है, अरविन्द जी.
जननी के प्रति यह स्नेह सबमें बना रहे.
धन्यवाद.
कृपया सुधार कर पढें 'जननी के प्रति यह स्नेह सबमें बनी रहे.'
bahut badhiya lagi ji aapki ye kavita...
badhai swikaar kare..
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