Thursday, July 29, 2010

व्यंग्य-- टमाटर गिफ़्ट करें

कार्यालय से घर जा रहा था तो सोचा सब्जियां खरीद लूं. जेब मे हाथ डाला तो पांच रुपये का एक सिक्का निकला.वैसे ही मेरा जेब इतना तंग रहता है कि आजकल कपङे सिलवाते समय मेरी धर्मपत्नी छोटा सा एक ही जेब डलवाती है ताकि यह खाली-खाली न लगे. आज के मंहगाई के जमाने में पांच रुपये की सब्जी क्या होती, सोचा टमाटर ले लेते है. मैंने पांच रुपये देकर दुकानदार को टमाटर देने को कहा. वह मुझे घुरकर देखने लगा मानो कच्चा चबा जायेगा.लगा जैसे वह कह रहा हो अच्छे परिवार के दिखते हि इसलिये छोङ दिया वरना कमर पे ऐसे लात मारता कि उन लोगों के बीच गिरते जिनका मंहगाइ के चलते पहले ही कमर टूट चुका है.लेकिन मैंने स्वयं को संयत रखा.
कहा--"कृपया जितना होता है उतना ही दे दीजिये".
वह मुझे ऐसे देखने लगा जैसे मैं पागल होऊं..
मैंने धीरे से कहा- "प्लीज...."
अब वह लगा जैसे मेरे पागल होने के बारे मे कन्फ़र्म था. उसने धीरे एक बङा टमाटर उठाया और मेरी हथेली पर रख दिया.,मैं चकित हुआ.
"सिर्फ़ एक टमाटर ?"
"अस्सी रुपये किलो चल रहा है.खुदरा लोगे तो सौ रुपये. आपके पचास ग्राम बनते हैं और इस टमाटर का वजन कम से कम साठ ग्राम होंगे. चाकू नहीं है नहीं तो दस ग्राम काटकर निकाल लेता."
मैं उस टमाटर को दोनो हाथों में लेकर वहीं खङा हो गया....उसे देखता रहा जैसे यह टमाटर नहीं कोई कीमती हीरा हो.फ़िर धीरे से उसे जेब में डाल लिया.घर पहुंचा तो श्रीमती जी दर्बाजे पर खङी मेरा रास्ता देख रही थी. उसका दरबाजे पर इंतजार करना मेरे लिये सदा ही अशुभ रहा है.इससे पहले कई बार ऐसी घटना मुझे कंगाल बना चुकी थी. लेकिन चुकी आज मैं पहले से लुटा हुआ था इसलिये यह सोचकर खुश हुआ कि आज यह डायन भी मेरा कुछ नहीं बिगाङ पायेगी..घर पहुंचते ही मुस्कुराहट का आदान-प्रदान हुआ. उसकी यही मुस्कुराहट पहले द्वितिया के चांद की तरह नेचुरल हुआ करती थी आजकल प्लास्टिक के बने लाल-मिर्च की तरह आर्टिफ़िसियल हो गयी है.
वह बोली---- "आज क्या है.?."
"महिने का अंतिम दिन है और क्या."
"मेरा जन्म-दिन भी है. तुम्हें तो मेरा जन्म-दिन याद ही नहीं रहता."
" मुबारक हो...हैप्पी बर्डे टू यू......मेनी मेनी रिटर्न्स ओफ़ द डे....." मैने थोङा सा एक्टिंग किया.सच तो यह है उसके जन्म-दिन इतने खर्चीले होते हैं कि दो तीन महिने तक मुझे होश नही रहता.फ़िर सदा की तरह उसने गिफ़्ट मांगा. मना करता तो पानीपत की लङाई पक्की थी.. इसलिये जेब में हाथ डाला और टमाटर निकालकर अपना गिफ़्ट प्रस्तुत कर दिया.प्रस्तुतिकरण रोचक था और प्रतिक्रिया भी देखने लायक थी.

" टमाटर........???? ये टमाटर मुझे गिफ़्ट दे रहे हो ?? तुम्हारा दिमाग तो नहीं फ़िर गया है ?....तुम तो दुनियां के पहले आदमी हो जो टमाटर गिफ़्ट कर रहे हो?

गलती तो हो ही गयी थी. पर ब्लोगिंग और निस्वार्थ साहित्य की सेवा इतना कुशल तो बना ही दिया था कि अपने कार्य को हर समय जस्टिफ़ाइ कर सकुं.

" प्रिये..गिफ़्ट तो अनोखा होना चाहिये और यह तुम स्वयं कह चुकी हो कि मैं पहला आदमी हूं जो टमाटर गिफ़्ट कर रहा हूं"
वह बोली-------" कोई प्यारा सा गिफ़्ट देना चाहिये जो हर कोई देखना चाहे"
मैंने कहा--------" प्रिये. देश की सवा सौ करोङ जनता इस टमाटर पे नजर रख रही है. पता नहीं इसे किसकी नजर लग गयी कि ये आजकल मुश्किल से नजर आ रहा है..पत्र पत्रिकाओं की सुर्खियों में यह टमाटर छाया हुआ है.सब्जी मंडियों में इसे देखने के लिये लोग लालायित रहते हैं.इस टमाटर ने सरकार के चेहरे का रंग लाल कर दिया है. अब विपक्ष भी राम और रोटी के बदले राम और टमाटर का नारा लगाने लगी है.देखना इस टमाटर की कीमत जाननेवाले मेरे जैसे लोग अब दिल्ली पर राज करेंगे.अब अमीर लोग उंगलेयों में हीरे की अंगूठी के बदले गले मे टमाटर की हार पहनेंगे.बङे-बङे नेताओं को सोने के सिक्कों के बदले टमाटर से तौला जायेगा,.मंदिरों मे फ़ल और मिठाइयां चढानेवाले भक्त अब माता के चरणों में टमाटर चढाया करेंगे. अब तो बैंक ओफ़ इंडिया के तर्ज पर बैंक ओफ़ टमाटर..."
उसने बीच में ही टोका---" पागल हो गये हो तुम"
"भविष्य में टमाटर पाने की चाह में बहुत से लोग पागल भी हो जायेंगे"
वह बोली------------"मजाक मत करो सही सही बताओ कि तुमने टमाटर क्यों गिफ़्ट किया..?
मेरे सारे तर्क बेकार गये थे. औरतें बहुत ही व्यवहारिक होती हैं....लेकिन उसके सूरत की झूठी प्रशंसा उसे इतना अच्छा लगता है कि वह सहज ही विश्वास कर लेती है. मैंने इसी हथियार का सहारा लिया.
मैंने कहा------"प्रिये मैं तुम्हें ऐसा गिफ़्ट देना चाहता था जिसका रंग तुम्हारे होठों की तरह लाल और गालों की तरह फ़ुला हुआ हो.तुम्हारे शरीर में जितना यौवन रस भरा हुआ है वह उतना ही रसीला हो. वह तुम्हारी तरह मुलायम हो और तुम्हारे सौंदर्य में ईजाफ़ा करने के लिये उसमे पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी भरा हुआ हो.....यही सब सोचकर मैं तुम्हें यह गिफ़्ट कर रहा हूं."
तीर निशाने पर लगा था. श्रीमतिजी ने टमाटर अपने हाथ में लेकर उसे चूम लिया था

Tuesday, July 27, 2010

प्यार की परिभाषा

मेरे बिस्तर पर
गर्म भट्ठी की तरह
सांसें छोङना
फ़िर
कुछ ही पल में
मेरी बांहों में पिघलकर
सर्द हो जाना.

बेशर्म होकर
मेरे जिस्म के हिस्सों को
अपनी नजरों से शिकार करना
फ़िर
अपनी ही आंखों पर
खुद की हथेली से
पर्दा डाल देना.

हजारों की भीङ में
मदहोश कर देनेवाली
कामुक चुंबन
फ़िर
प्रणय निवेदन करने पर
पलकें झुकाकर
मूक होते हुए
नाकारात्मक संकेत.

तुम प्यार की परिभाषा हो.....

Monday, July 26, 2010

हम भारत के मान के रक्षक आज करें हम समझौता

एक तरफ़ है खुदा का बंदा , एक तरफ़ मां का बेटा
हम भारत के मान के रक्षक आज करें हम समझौता.

खङी किये जो तुमने पत्थर से ढाह दो मजहब की दीवारें
मैं भी गंगाजल हाथ में लेकर आज मिटा दूं लक्ष्मण रेखा.

इस्लाम के जिंदाबादी नारे से अब गगन-भेद मैं करता हूं
मुल्क से रखकर आज मुहब्बत तुम भी कह दो वंदे माता.

तुम रामायण के श्लोकों से आज सजाओ अपने कुरान को
मैं कुरान के आयत लेकर फ़िर से लिखता हूं कोई गीता.

अरुणाचल को शीष झुकाकर एक बार नमाज पढकर देखो
जम्मु को मुख करके मैं भी शिव का भजन हूं अब गाता.

पूज्य हमारे राम-कृष्ण को तुम बुलाओ अपने मस्जिद में
परवरदिगार तेरे अल्ला की मैं शिव-मंदिर में मूर्ति बनाता.

ले जाऊंगा तेरे प्यारे बच्चों को मैं बागों की सैर कराने को
मेरे अनाथ और भूखे शिषु को तुम भी दूध पिला देता

ढोंगी - मुल्ला पाखंडी - पंडित हैं कुपुत्र पथ - भ्रष्ट हुए है
मिल राम-रहीम जयहिंद कहे तो होगा मां का मस्तक उंचा

एक ही मां के बच्चे हैं हम न कोई हिन्दू न कोई मुस्लिम
संबंध खून का है हमारा , तुम अनुज मेरे मैं अग्रज भ्राता.

Friday, July 23, 2010

व्यंग्य--- मैं, मेरी पत्नी और ब्लोगिंग

भारत पाकिस्तान के बीच के क्रिकेट मैच की तरह हमारा मुकाबला भी रोमांचक दौङ में पहुंच चुका है. मैं और मेरी पत्नी के बीच जो आ चुका है उसका नाम है ब्लोगिंग. इस ब्लोगिंग ने मेरे लाइफ़ को ब्लोक कर दिया है. क्या धुम-धाम से शादी किया था...क्या-क्या सपने देखे थे....ब्लोगिंग ने सारे अरमानों पर पानी फ़ेर दिया. वैसे ब्लोगिंग की शुरुआत भी शादी की तरह ही मजेदार था लेकिन शनि की दृष्टि और डायन की नजर पङने के बाद तो हरे पेंङ भी सूख जाते हैं. पहली बार जब ब्लोग खोला और उसका नाम क्रांतिदूत रखा तो सफ़ल ब्लोगिंग लाइफ़ के लिये सोचा दुष्टों को अपने पक्ष में कर लूं.सो सबसे पहले अपनी धर्मपत्नी को बताया. वह गर्म पानी के फ़व्वारे की तरह फ़ूट गयी--" क्रांति तो मैं लाऊंगी तुम्हारे लाइफ़ में. घर के लिये वैसे ही तुम्हारे पास समय नहीं रहता उपर से अब ये फ़ालतू काम करने जा रहे हो ". मैंने देवी के क्रोध को भद्रपुरुष की तरह मधुर वचन से नियंत्रित करना चाहा---"नहीं प्रिये...ब्लोगिंग के जरिये सृजनात्मक लेखन से अपने जीवन के रिक्तता को भरना चाहता हूं ". अति भद्रता के कारण पत्नी और ही उबल पङी--" जीवन की रिक्तता दिखती है और जेब की रिक्तता नहीं दिखती ? बैंक का लाकर भी खाली है और रसोई गैस का सिलिंडर भी. मेरी कान..गला सब खाली है.......ये सब रिक्तता तुम्हें नहीं दिखता ". वह सही दिशा में आगे बढ रही थी, लेकिन इससे पहले की जीवन की रिक्तता शुन्यता में बदले मेरे लिये विषय बदलना अनिवार्य था. मैंने कहा--" प्रिये, साहित्य से बढकर कोई कोष नहीं होता ". जवाब हाजिर था---" तो क्यों नही साहित्य खाकर कार्यालय में ही साहित्य कि बिस्तरे पर सो जाते हो ?...कम से कम बच्चों के बारे में तो सोचो. तुम्हारे साथ ही काम करते हैं धनन्जय बाबू. उनके घर में क्या नहीं है. उनकी वाईफ़ के पर्स मे हर समय नोटों की गड्डी भरी रहती है." अब मैं थोङा सा सख्त हुआ.----" देखो...साहित्य को भ्रष्टाचार से मत लङाओ. पहले से ही साहित्य भ्रष्टाचार से जूझ रहा है.संसेक्स की तरह भ्रष्टाचार का ग्राफ़ जितनी तेजी से उपर उठ रहा है, साहित्य का शेयर उतनी ही तेजी से लुढकता ज रहा है. पहले साहित्य को मजबूत होने दो फ़िर देखना ये भ्रष्टाचार फ़टे हुए गुब्बारे की तरह सटक जायेगा "....वह बीच में ही बोलने लगी---" भ्रष्टाचार तो बाद मे सटकेगा उससे पहले ही तुम्हारा बेटा फ़ुटबाल की तरह किक मारकर तुमको गोल-पोस्ट मे डाल देगा. निकम्मे लोगों के साथ ऐसा ही होता है ". वह साक्षात काली का रूप धारण कर चुकी थी. मेरी थोङी सी सख्ती का प्रभाव गैर-मामूली था. मैंने शिष्टतापूर्वक कहा---" प्रिये शांत हो जाओ. नारी होकर नारे मत लगाओ. सरल और मधुर भाषा में बताओ कि मेरे पुत्र के सम्मुख ऐसी कौन सी समस्या है कि वह मेरे जैसे महान पिता पर आघात करने के लिये बाध्य हो गया है ". मेरी साहित्यिक भाषा भी निष्प्रभावी रही. " इंजिनियरिंग में एडमिशन के लिये दलाल २ लाख रुपये मांग रहा है. यदि एडमिशन नहीं हुआ तो उसका भविष्य चौपट हो जायेगा. फ़िर जिन्दगी भर घास छीलता रहेगा ".....कहकर वह शांत हो गयी. मातृभाव पत्नीभाव के उपर छा गया. उसके क्रुर नेत्र सजल हो गये अन्यथा उसकी आंखों में घरियाली आंसू के भी विरले ही दर्शन होते थे. कुछ भी हो मुझे लगा भावानात्मक रूप से मैं अपनी पत्नी से जीत रहा हूं. मृग मरीचिका ही सही रेतों पर पानी के बूंद तो दिख ही रहे थे. सूख चुके तालाब में बरसाती ही सही थोङा सा पानी तो आया. मुझे लगा चुप रहना चाहिये ताकि यही स्थिति बनी रहे. वह बोलती रही---" कितने सपने देखे थे अपने बेटे के लिये....सारे सपने टूट गये....." इस बार तो आंसुओं की बाढ आ गयी. मानो खाली तालाब पूरी तरह बरसाती पानी से लबालब भर गया. उस तालाब में और पानी आये इसलिये उसे खाली कर देना चाहिये. यह सोचकर मैंने अपने रुमाल से उसके आंसू पोछ दिये----"मैं कुछ करता हूं. यह गंभीर समस्या है कि जिसे तुम दलाल कहती हो उस भद्रपुरुष ने अपनी आवश्यकता की पूर्ती के लिये मेरे अयोग्य सुपुत्र से अनुचित रुप से २ लाख रुपये मांगे. मैं इस विषय पर अपने ब्लोग में लिखुंगा और उस तथाकथित दलाल को अपना पोस्ट मेल करुंगा जिससे उसके भ्रष्टविचार धुल जायेंगे और आर्थिक एवं बौद्धिक रूप से पिछङे हुए मेरे सुपुत्र के प्रति करुणा भाव का जन्म होगा....". मैं अपनी धुन में बोलता जा रहा था. एक तरफ़ मैं साहित्य सृजन कर रहा था तो दूसरी तरफ़ मेरी पत्नी विध्वंस कर रही थी. मैं रचनात्मक विनोद की स्थिति में था वह क्रोध-क्रीङा में लीन थी. कुछ ही देर में मेरा लैपटोप कुर्सी के टुटे हुए पांव के हाथों बच्चों का खिलौना बना दिया गया था.

Wednesday, July 21, 2010

चलो अच्छा हुआ कि तुम बहुत ही बेरहम निकले

चलो अच्छा हुआ कि तुम बहुत ही बेरहम निकले
मैं जितना सोचता था उससे तुम बहुत कम निकले.

मुझे वह लगती थी मधुशाला जिसे पीने से डरता था
मगर जब पी के देखा तो जहर के बदले रम निकले.

अच्छा हुआ जो बेवफ़ाई ने मार डाला आशिकी को
तुम्हारी गोद में हमनें था चाहा कि मेरा दम निकले .

मैंने समझा कोई तोप है तेरे गोरे बदन को देखकर
आगोश में जो पाया तुमको खिलौने सा बम निकले.

तुम्हारे साथ बिस्तर पर अकेले ही मैं सोया था
"मेरी जगह" पर सुबह देखा था कि "हम" निकले.

तेरी दरियादिली के खूब चर्चे अब भी शहर में है
मेरे घर से जो तू निकली तो सारे गम निकले.

जब अपने दोस्तों को मैंने बताया प्यार के किस्से
उनकी जेब से उपहार के बदले मरहम निकले.

क्रांतिदूत अब ठहाके मारता है वफ़ा के खेल पर
जिंदादिल तू मौज कर इससे पहले कि यम निकले.

Tuesday, July 20, 2010

मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है

मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है, कोई गैर नहीं न ही ऐसा वैसा है.

अब न वो दिन भरी उजालों का , न ही अब रात उतनी काली है.
मेरे महबूब की शाम कभी न आये , न ही सुबह में अब वो लाली है.
कैसे जिंदा रहूं बता तु मुझे , देख ले आज गम-ए-हाल मेरा कैसा है.
मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है, कोई गैर नहीं न ही ऐसा वैसा है.

वो बसंती हवा बही थी अभी ,ये धूप तेज किरण पल मे ही ढह जायेगी.
रात रानी सी खङी है चौखट पर , गिर रही बूंद जो बरसाती बह जायेगी.
मैं कफ़न ओढ के जीता रहा हूं बरसो से, जिंदा दिल अब भी तेरे जैसा है.
मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है , कोई गैर नहीं न ही ऐसा वैसा है.

चलो अच्छा है मेरे दिल में जगह है तेरी, पीठ पर जख्म बहुत खाये हैं.
मैं तो बहरा हूं जमाने की अब नहीं सुनता, क्योंकि इल्जाम बहुत पाये है.
काली दुनिया में नहीं रौशन है एक जर्रा भी,आंख भी पत्थरों के जैसा है.
मेरा महबूब मेरी जिंदगी के जैसा है , कोई गैर नहीं न ही ऐसा वैसा है.

Monday, July 19, 2010

क्रांतिदूत की कलम से......मेरा वोट वापस करो.

जाति के आधार पर जन-गणना की सोच जिस महान आधुनिक नेता के दिमाग की उपज है उनकी कुटिल सोच को मैं नमस्कार करता हूं. यह जरूर ही किसी तिक्ष्ण बुद्धि और मंद विवेक की उपज है. उनसे पुछा जाना चाहिये कि जाति के आधार पर आंकङे लेकर क्या किया जायेगा ? किस तरह का आचार बनाने की योजना है ? किस जाति के आरक्षित पदों को काटकर किस जाति के आरक्षण की सीमा बढाई जायेगी ?अब किस जाति की बहू-बेटियों को नीलाम किया जायेगा ? अब किस जाति को पांव से कुचला जायेगा ? और किस जाति को सत्ता की कुर्सी सौंपी जायेगी ? ढेर सारे सवाल.....लेकिन उन्हें इन सवालों से क्या मतलब. वे तो जल्दी से जल्दी आंकङे पाना चाहते हैं ताकि समय निकालकर संतुलित भाषण तैयार किया जा सके जिसमे लगे कि सभी जातियों को लाभ होगा,लेकिन फ़ायदा दिल्ली में बैठे नेता लोग आपस में बांट लें. दुख तो तब होता है जब विपक्ष भी हां में हां मिला देता है.शायद सभी यह सोच रहे हों कि विकास की राजनीति का जबाव जाति की राजनीति ही हो सकता है.

सत्ता की कुर्सी और विपक्ष के सोफ़े पर कुन्डली मारकर बैठ चुके लोगों से मैं सादर कहना चाहता हूं कि यदि उन्हें बैठना ही था तो चुनाव में खङे क्यों हुए थे..??कहां गया वो इच्छा-शक्ति..?हमारा वह विश्वास और सम्मान जो हम वोट के जरिये देते रहे हैं. क्या इसीलिये हमने वोट दिया था ? घोटाला करने के लिये ? आतंकी और नक्सली के सामने दुम हिलाने के लिये ? कुर्सी के लिये हम सबको आपस में लङाने के लिये ? भगदङ कराने के लिये और भारत बंद करने कि लिये ?........जानता हूं प्रश्नों का उत्तर नहीं मिलेगा....इन प्रश्नों का उत्तर सरकारी गोली के शिकार हुए निर्दोष लोगों को छातियां देती है, भूख से तङपते पेट की आग देती है, बलात्कार की शिकार हुई औरतों की आंखे देती है, न्यायालय के चक्कर काटनेवालों के फुले हुए पांव देते है और मजहबी एवं जातिगत हिंसा के भय से फ़ङफ़ङाते होठ देते हैं.

हमें अपने प्रश्नों का उत्तर मिल रहा है. मैं अपना वोट वापस चाहता हूं.........

हमने वोट दिया था
संस्कृति और सम्मन की रक्षा के लिये
राष्ट्र और संविधान की सुरक्षा के लिये
देश चलाने के लिये
विपक्ष की भूमिका निभाने के लिये
रोटी उपलब्ध कराने के लिये
इज्जत बचाने के लिए.

विश्वास था
नहीं लूटोगे खजाने से एक कौङी भी
नहीं बढने दोगे सामानों की बेलगाम कीमत
नहीं खाओगे हमारा रोजगार
नहीं चढने दोगे देशद्रोहियों को सिर पर.

हमारा वोट विश्वास था
आशा थी.......
सभावना थी.....
प्यार था.....
सम्मान था.....
हमारा वोट वापस करो. क्रमशः...........

Friday, July 9, 2010

क्रांतिदूत की कलम से......जातिगत दिवारों का पक्कीकरण

मित्रों, क्रांतिदूत की कलम चलती ही रहेगी. यह कलम अपने शब्दों को लघुकथा, कविता या किसी अन्य वर्गीकरण में नहीं रखना चाहती. वर्गीकरण शब्द का साकारात्मक उद्देश्य सिर्फ़ विवाद की संभावना को निरस्त करना होता. यदि विवाद की संभावना वर्गीकरण के कारण बढ जाये तो वर्गीकरण को नाकारात्मक मानकर वर्गों को समाप्त कर देना चाहिये. इसी नजरिये से जब समाज की ओर देखें तो जातिवाद की ओर ध्यान जाता है. एक ही धार्मिक मान्यताओं के बीच लोगों को कितनी जातियों में बांट दिया गया. बांटते समय वर्गीकरण का उद्देश्य साकारात्मक था यह सभी जानते हैं. यह भी सभी लोग मानते हैं कि जातिवाद आज हजारों विवादों को जन्म दे रही है. सभी चाहते हैं कि काश, जातिवाद नहीं होता.......सिर्फ़ यह चाहना भी पर्याप्त है...क्योंकि इसके बाद का जो रास्ता है उसे विजय की संभावना कहते हैं और फ़िर अंत मे जो जाति-विहीन समाज का लक्ष्य है वह विजय है..

निश्चय ही जाति-विहीन समाज का निर्माण बहुत ही सुखमय होगा और उससे भी अधिक सुखमय होगा वहां तक पहुंचने का रास्ता. फ़ुलवारी से अधिक रमणीय फ़ुलवारी तक पहुंचने का रास्ता होता है. उत्साह ,जिग्याशा , खुश होने की ईच्छा आदि भावनायें फ़ुलवारी तक पहुंचने के रास्ते को फ़ुलवारी से भी अधिक प्यारा बना देता है. यदि कोई आकाश छुना चाहता है तो छू कर देखे उसे पता चल जायेगा कि आकाश मे होने की खुशी से ज्यादा खुशी जमीन से आसमान की ओर छलांग मारने में मिलता है. जब रास्ता भी सुन्दर और लक्ष्य भी तो हमें जरुर आगे बढना चाहिये. हमारी सोच के जिस हिस्से में जातिवाद जम चुका है उस हिस्से से जातिवाद निकालकर फ़ेंक देना चाहिये. न ही कोई अगङा न ही कोई पिछङा, न ही कोई ब्राह्मण न ही कोई दलित. जाति बने तो किसानों कि, मजदूरों की, डाक्टरों की, ईंजिनियरों की...जो अपनी जाति को समाज के निर्माण हेतु समर्पित कर दे.

इस बार जाति-आधारित जनगणना की जा रही है.पृष्ठभूमि की ओर देखें तो सन उन्नीस सौ एकतीस में जाति-आधारित जनगणना की गयी थी. फ़लतः अंग्रेजी सरकार को कम से कम अतिरिक्त दस वर्ष का जीवनदान मिला था. यदि आज के शासकों में अंग्रेजों की तरह उत्कट कुटिल इच्छा-शक्ति होगी तो उनका शासन अमरत्व प्राप्त कर सकेगा. मुझे यह गंभीर आशंका है कि जातियों के प्रमाणिक और सत्यपूर्ण आंकङे ऐसे विषैले बीजों की तरह होंगे जो पूरे देश को जहरीला कर देगी........सभी जातियों को मिलाकर कई सारी जातियां बनेगी जिसमे से कोई जाति फ़िर से देश पर राज करेगा,कोई जाति आध्यात्म और पाखंड का सहारा लेकर सबको नचायेगा, कोई जाति अपनी मर्जी से व्यवसाय करेगा और किसी जाति को पांव से कुचक दिया जायेगा.

मुझे देश के जन-प्रतिनिधियों से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि यह कलम खामोश नहीं होना चाहती.....लेकिन यह जरुर कहुंगा कि दूर-दृष्टि की कमी अवश्य दिखता है. निकट परे मोतियों को चुनने के लिये दूर परे हीरों की अनदेखी की जा रही है.जाति-आधारित जनगणना से सत्ता तक पहुंचने का रास्ता सुलभ हो सकता है लेकिन सत्ता संभालना नहीं. इस जनगणना के दुष्परिणामों की अनदेखी करना अनुचित और मूर्खतापुर्ण है.जातिवाद के परिणाम नक्सलवाद, जातिय हिंसा, भेद-भाव, छुआछुत , वोट की राजनीति आदि रुपों मे पहले से ही दिख रहा है.अब मिट्टी की कच्ची दीवारों का पक्कीकरण किया जा रहा है जिसकी छतों से कूदकर समाजिकता दम तोङ देगी...

क्रमशः...........

Thursday, July 8, 2010

क्रांतिदूत की कलम से......जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ?

यह कलम आग ही उगलती है. अन्य कलमों की तरह इसमें भी स्याही ही डाली गयी है, फ़िर भी पता नहीं क्यों यह आग ही उगलती है. शायद चिंगारी बनना चाहती हो, खुद जलकर भी. एक ऐसी चिंगारी जो घरों में रोशनी पैदा करे, चेहरों पे चमक लाये, कमजोरों को रास्ता दिखा सके और भूखे चुल्हों को थोङी सी गर्मी दे सके. एक ऐसी चिंगारी जो क्रांति की आग का केन्द्रक बन जाये. एक ऐसी चिंगारी जो देश-भक्ति की आग को जन्म दे. एक ऐसी चिंगारी जिसकी लपटों से सारी बुराईयां जलकर खाक हो जाये.........पर कमवख्त नहीं जानती कि ऐसी कलमें जो चिंगारी पैदा करती है उन्हें जमीन के नींचे दबाकर उसके वजूद को ही खत्म कर दिया जाता है ताकि वह फ़िर किसी आग के लिये चिंगारी न बन पाये. इसलिये इसका भी हश्र वही होगा पर यह भी सच है कि यह जितना सोना होगा उतना ही खङा उतरेगा. कितनी अजीब बात है कि कोई कितना भी सोना हो जाये मरने के बाद तो जलना ही होता है..आग के बीचों-बीच आग बनकर. यदि जीते-जी कोई अपने भीतर थोङी सी आग ले ले तो पता नहीं कितनी रोशनी पैदा हो जायेगी. मरते वक्त इंसान की मजबूरी, नंगी जमीन पर लेट जाने की बाध्यता, अपाहिज की तरह चार कंधों पर उठकर जाने की लाचारी और जलकर खाक हो जाने जैसा अंत होना ही है तो फ़िर जीते-जी डर कैसा, मजबूरी और लाचारी कैसी...?

जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ?
क्यों डर से सहमी हैं आंखें.
पिंजरों मे क्यों कैद हैं पांखें.
बेचा दिल और गुर्दा क्यों?
जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ?

ऐसी भी क्या थी मजबूरी
कि इतनी बङी जिंदगी हारी.
ऐसे क्यों लाचार हुए
इतने कंधों पर बैठ गये.
जब भीख मांगकर ही खाना था
फ़िर पायी इतनी उर्जा क्यों?
जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ?


बन सकते हो किसी का सहारा
मां का प्यारा राज दुलारा
झुकाकर ही सर जब जीना था
तो खाया दूध का कर्जा क्यों?
जिंदा हो पर मुर्दा क्यों ? क्रमशः...........

Wednesday, July 7, 2010

आंसू

जानती हूं परेशान हो
मेरे बह निकलने की आदत से.
आंखों से निकलते ही
फ़ेंक डालते हो
सूखी जमीन पर कचङों के जैसे.
पर मेरी बफ़ादारी तो देखो
जब भी तुम तन्हा होते हो
आ जाती हूं बिना बुलाए.
अक्सर भरी महफ़िल में भी
मैं तुम्हें तन्हा पाती हूं
तब भी चली आती हूं.

मुझ पर तरस खाकर
एक बार मुझसे प्यार करके देखो
तन्हाई में भी
तुम्हें महफ़िल नजर आयेगी.

Tuesday, July 6, 2010

कोठा (भाग-तीन)----जिस्म और जमीर

आज एक वर्दीवाला पुलिस शराब पीकर कोठे पर पहुंचा. जाते ही नोटों कि गड्डी पुतलीबाई के हाथों में पकङा दिया.कहने लगा--"मुझे सबसे खूबसूरत जिस्म चाहिये". "जानती हूं कीमत को देखते ही समझ गयी थी.अच्छा पीस नहीं दिया तो जेल के अन्दर भी डाल सकते हो.पुलिस वाले हो ना..."----कहते हुए पुतलीबाई हंसने लगी. कुछ देर के बाद वह किसी कमरे से बाहर निकला और पुतलीबाई के पास आकर बोला--"बहुत सही सौदा करती हो तुम".
पुतलीबाई कहने लगी---"साहब हमारा सौदा इसलिये सही होता है क्योंकि हम सिर्फ़ अपना जिस्म बेचते हैं ईमान नहीं".वह कुछ सोचने लगी फ़िर बोली---".....और आप जिस्म के लिये अपना जमीर बेच देते है. हमारा जिस्म घायल होता है और आपके जमीर के टुकङे होते हैं. हम वजन के दर से जिस्म का सही कीमत वसुलते हैं पर आप जमीर की कीमत जानते ही नहीं.क्योंकि आपको जमीर का वजन ही नहीं पता. इसलिये चंद रुपयों में ही बेच दिया करते हैं.
.................फ़िर अंत में हमारा जिस्म मर जाता है और आपका भी.पर आपके पास तब कुछ नहीं बचता, आपका जमीर तो पहले ही मर चुका था.........".वह पुलिसवाला बहुत पहले वहां से जा चुका था.पुतलीबाई स्वयं से बात कर रही थी.

Monday, July 5, 2010

आज भारत बंद है.

नहीं बिकेगी आज
मंहगे गेहूं के दाने.
नहीं निकलेगा धुआं
मंहगे पेट्रोल के जलने से.
न ही आसमान में कालिख पुतेंगे
क्योंकि आज भारत बंद है.

आज किसी रेल को
केनवाली वीयर के डब्बों की तरह
नहीं फ़ेका जायेगा
पटरियों के इर्द-गिर्द.
नहीं मारे जायेंगे इंसान
बीचो-बीच अपने लक्ष्य के
क्योंकि आज भारत बंद है.

आज बैंक अधिकारी नहीं खायेगा
कर्ज देने के बदले रिश्वत.
आज नहीं होगी चहलकदमी
मंत्रालयों में दलालों के.
सदा की तरह अदालतों में
आज भी नहीं मिलेगा इंसाफ़.
पहले की तरह आज भी
दबी रह जायेगी गरीबी फ़ाईलों में.
क्योंकि आज भारत बंद है.

हां कुछ बेरोजगारों को
मिलेगा एक दिन की रोजी.
चन्द सिक्कों से गरीबों के घर
आज फ़िर जलेगा मनहूस चुल्हा.
आज फ़िर बङे नेताओं के घर
खायी जायेंगी मंहगी घी से सनी
राजनीति की गरमागरम रोटियां
क्योंकि आज भारत बंद है.

Friday, July 2, 2010

कोठा (भाग-दो)----सावित्री की ईज्जत

सहेली के साथ खेलते-खेलते शाम हो चला था. दस साल की सावित्री जैसे ही घर पहुंची उसकी मां ने उसे बाल पकङकर खींचा और जोरदार थप्पर लगाया---"कितनी बार समझाया है कि शाम ढलने से पहले घर आ जाया कर. दिन की रोशनी में मर्द बने लोग शाम के अंधेरे मे भेङिये बन जाते हैं जो सिर्फ़ जिस्म नोंचना जानते हैं और किसी की इज्जत का वो हाल करते हैं किबेचने के लिये भी इज्जत नहीं बचता और खुद के जीने के लिये भी.". सावित्री अपने बचपन की यादों में खो गयी थी. तभी पुतलीबाई ने उसे बाल पकङकर खींचा और जोरदार थप्पर मारते हुए कहा---"कितनी देर से चिल्ला रही हूं...जल्दी से कमरा नम्बर तीन में जा और गाहक को निपटा. उनको अपने शादी की सालगिरह पार्टी में जाना है".

सावित्री के जिस्म को सिर्फ़ चोट लगा था. थप्पर तो ईज्जत ने खायी थी ,वह भी मां के हाथ से , कभी बचने के लिये तो कभी बिकने के लिये.

क्रमशः

(मित्रों मुख्य शीर्षक "कोठा" के अन्तर्गत एक लघुकथा शृंखला लिख रहा हूं जिसके एक भाग दुसरे भाग से संबद्ध नहीं है.एक प्रयास है कुछ अनछुए पहलुओं को बाहर लाने का, वेश्या-वृति को हतोत्साहित करने का और पुरुषों के मानसिक विकृतियों को सही पुरुषार्थ की ओर दिशा देने का...........कृपया अपने टिप्पणियों के जरिये उचित सलाह देते रहें)

Thursday, July 1, 2010

कोठा (भाग-एक)----काश तुम हिजङे होते.

आज बाप और बेटा दोनो एक साथ कोठे पर आया. पुतलीबाई से लङकी देने को कहा. किसी एक के साथ बेटा एक कमरे में चला गया. पुतलीबाई ने उसके बाप से कहा--" बेटा को तो सही जगह पे पहुंचा ही दिया. अब तुम यहां क्या कर रहे हो...?...जाओ अपने घर ". बाप खिसियाकर बोला-" मैं तुम्हें हिजङा नजर आता हूं क्या? ". पुतलीबाई का गुस्से से खून खौल उठा---"अरे जा जा हिजङों की बराबङी करता है. तुम मर्दों ने भगवान के दिये हुए हथियार को भांजने के सिवा किया ही क्या है, हिजङों से अलग. इतने महान तो हिजङे ही होते हैं जो यह जानते हैं कि हम भी किसी के मां, बहन और बेटी होते हैं. काश... तुम हिजङे होते तो किसी भी सूरत मे अपने बेटे के साथ कोठे पर नही आते".

क्रमशः.........

(मित्रों मुख्य शीर्षक "कोठा" के अन्तर्गत एक लघुकथा शृंखला लिख रहा हूं जिसके एक भाग दुसरे भाग से संबद्ध नहीं है.एक प्रयास है कुछ अनछुए पहलुओं को बाहर लाने का, वेश्या-वृति को हतोत्साहित करने का और पुरुषों के मानसिक विकृतियों को सही पुरुषार्थ की ओर दिशा देने का...........कृपया अपने टिप्पणियों के जरिये उचित सलाह देते रहें)