सहेली के साथ खेलते-खेलते शाम हो चला था. दस साल की सावित्री जैसे ही घर पहुंची उसकी मां ने उसे बाल पकङकर खींचा और जोरदार थप्पर लगाया---"कितनी बार समझाया है कि शाम ढलने से पहले घर आ जाया कर. दिन की रोशनी में मर्द बने लोग शाम के अंधेरे मे भेङिये बन जाते हैं जो सिर्फ़ जिस्म नोंचना जानते हैं और किसी की इज्जत का वो हाल करते हैं किबेचने के लिये भी इज्जत नहीं बचता और खुद के जीने के लिये भी.". सावित्री अपने बचपन की यादों में खो गयी थी. तभी पुतलीबाई ने उसे बाल पकङकर खींचा और जोरदार थप्पर मारते हुए कहा---"कितनी देर से चिल्ला रही हूं...जल्दी से कमरा नम्बर तीन में जा और गाहक को निपटा. उनको अपने शादी की सालगिरह पार्टी में जाना है".
सावित्री के जिस्म को सिर्फ़ चोट लगा था. थप्पर तो ईज्जत ने खायी थी ,वह भी मां के हाथ से , कभी बचने के लिये तो कभी बिकने के लिये.
क्रमशः
(मित्रों मुख्य शीर्षक "कोठा" के अन्तर्गत एक लघुकथा शृंखला लिख रहा हूं जिसके एक भाग दुसरे भाग से संबद्ध नहीं है.एक प्रयास है कुछ अनछुए पहलुओं को बाहर लाने का, वेश्या-वृति को हतोत्साहित करने का और पुरुषों के मानसिक विकृतियों को सही पुरुषार्थ की ओर दिशा देने का...........कृपया अपने टिप्पणियों के जरिये उचित सलाह देते रहें)
11 comments:
दैहिक सुख व शोषण नारी की अस्मिता का। अच्छी रचना।
man ulajh gaya..sundar likha hai
जीवन के कटु सत्य के करीब ले जाती रचना।
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अपने ब्लॉग पर 8-10 विजि़टर्स हमेशा ऑनलाइन पाएँ।
Dil dahal gaya...
rongte khade ho gaye ..........
एक सामाजिक कोढ़ की ओर इंगित कर रहे हैं आप. इस का उपचार होना चाहिए.
saarthak prayas.
थीम अच्छी है लेकिन कहने का अंदाज सपाट है । उपमा और प्रतीक का प्रयोग रचना में गहराई लाएगा ।
क्या आप हवन करते हैं ?
@ PARAM ARYA
main rachna ke jariye vaastavikta kahane ki koshis kar rahaa hun.isliye pratik athva upama kaa prayog nahi kar raha hun. aapke sujhav par nischay hi dhyaan dunga.
क्या आप हवन करते हैं ?....PUCHANE KAA TAATPARY NAHI SAMAJHAA.KABHI-KABHI.
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