Wednesday, September 29, 2010

मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-७ (व्यंग्य)

मैं काफ़ी परेशान था. अब तो आप भी जान गये होंगे कि बच्चे को पढाने कहा तो किस तरह की शिक्षा दी गयी. शोपिन्ग के लिये भेजा तो गांधी की जगह मल्लिका शेरावत का फ़ोटो ले आये .उपर से फ़ास्ट-फ़ूड का सुपरफ़ास्ट अफ़ेक्ट देखने को मिला. अगले दिन जैसे ही घर लौटा जिद करने लगे----"दामादजी मुझे कोमनवेल्थ गेम दिखाईये."
मैंने कहा----"यह गेम तो ३ अक्तुबर से होनेवाला है."
हंसने लगे...बोले----"उस खेल में तो जो होनेवाला है वो सबको पता है. खेल तो अभी मजेदार हो रहा है. खुद मनमोहन सिंह भी झूम रहे होंगे. वाह.... क्या व्यवस्था किया है. दिल्ली में कोमनवेल्थ के नाम पर अभूतपुर्व विकास हुए हैं. इसके लिये शीला दिक्षीतजी को गोल्ड मेडल मिलना चाहिये."
"गोल्ड मेडल...? सङकों की गड्ढों में पानी भरे हुए हैं इसके लिये...?"
"दामादजी गड्ढे तो कहीं भी हो सकते हैं. शीलाजी ने अपने नहाने के लिये कोई तालाब नहीं खुदवा दिया जो लोग हल्ला मचा रहे हैं. उपर से इन्द्र देवता की कृपा से बारिश हुई है तो गड्ढे में पानी तो भरेंगे ही. इसके लिये राजनीति नहीं विज्ञान जिम्मेवार है जिसके चलते पानी गड्ढे में भर गये. जितने गहरे गड्ढे हैं उससे ज्यादा गहरी चिंता शीलाजी के चेहरे पर साफ़ दिख रही है. उपर से आशा कि किरणें दिखाई दे रही है कि भविष्य में गड्ढों में भी सङकें बनायी जा सकेंगी."
गुस्सा तो बहुत आया. जिस शीला दीदी के व्यवस्था पर पूरा देश थू-थू कर रही है उसे ससुरजी दाद दे रहे थे.मैंने पूछा "और ओवर-ब्रिज जो ढह गया उसके किये किसे गोल्ड देंगे ?"
"श्री सुरेश कलमाडी जी को. उनका पूरा ध्यान गेम पर है न कि ओवरब्रिज पर. कोई भी खेल सिर्फ़ खिलाङियों से ही आगे नहीं बढता. कोच, मैनेजर, खेल संघ के अधिकारी, खेल मंत्री, ठेकेदार और सट्टेबाजों की भी भूमिका होती है. इनमें से कोई भी ओवर-ब्रिज को ढाहने नहीं गया था. यदि ढह गया तो ईंजिनियर से पूछा जाना चाहिये कि पुल क्यों ढहा.."
" तो सारा दोष आप ईंजिनियर को देते हैं ?"
" नहीं...बिल्कुल नहीं. लोहे-सिमेंट की ब्रिज हो या आदमी--किसी के लाइफ़ की गारंटी कोई कैसे दे सकता है."
"लेकिन पापाजी फ़ुट-ओवरब्रिज के ढहने से तेइस लोग मामुली रुप से घायल हो गये और चार लोग जिन्दगी-मौत के बीच झूल रहे हैं"
" दिल्ली में तो बस में चढे लोग भी मामुली रुप से घायल हो जाते हैं. जो लोग जिन्दगी-मौत के बीच झूल रहे हैं उन्हें बधाई देता हूं---झूला झूलने का आनन्द उठावें. झूला झूलना तो हम भारतियों का प्रिय शौक रहा है. इसमें तो हमें मजा ही आता है."
" फ़िर आप किसको दोषी मानते हैं..?"
" किसी को भी नहीं. देश को कोई नुकसान नहीं हो रहा जो किसी को गलत मानूं..अपने देश का पैसा था देश के लोगों ने खाया. कोई चार्ल्स शोभराज तो पैसा नहीं लूट गया. देश की छवि भी सुधरी है."
"देश की छवि सुधरी है ? "
"बिल्कुल...अब तक अमेरिका और पश्चिमी देश कहते थे भारत गरीबों का देश है, यह सपेरों का देश है ,यहां के लोग जादू-टोना में यकीन करते हैं. अब देखियेगा दामादजी ...यही लोग कहेंगे भारत चालाकों और धूर्तों का देश है. इतना अमीर है कि सत्तर हजार करोङ रुपये फ़ूंककर सङकों पर गड्ढे बनवाती है. करोङो रुपयों से ओवरब्रिज बनवाती है जिसके रोतो-रात ढह जाने से किसी को दुख नहीं होता"

"और सुरक्षा व्यवस्था...?"
"सुरक्षा व्यवस्था तो इतनी अच्छी है कि विस्फ़ोटक लेकर भी एक ओस्ट्रेलियाई सकुशल स्टेडियम तक पहुंच गया. दिल्ली में खुलेआम बिक रहा है लेकिन विस्फ़ोटक बेचनेवाले, खरीदनेवाले और दिल्ली की देखनेवाली जनता सभी सुरक्षित हैं....इससे बढकर सुरक्षा व्यवस्था क्या होगी."
"ऐसे में खेल चलने लगेगा और सीमा-पार से आतंकवादी घुस आये तो...?"
"कौन सी सीमा. कहीं आप भारत पाक सीमा की बात तो नहीं कर रहे. जब आतंकवादी और विस्फ़ोटक इधर भी है और उधर भी...तो सीमा बीच में कैसे हो गयी. सीमा तो अफ़गानिस्तान के आस पास होनी चाहिये.दूसरी बात हम सात साल से गेम की तैयारी कर रहे हैं तो पाकिस्तान गेम चालू हो जाने के बाद तैयारी करेगा..?"..........वैसे पाकिस्तान तो शान्ति-प्रिय देश है जहां कोई भी आतंकवादी नहीं है."

"क्या कह रहे हैं आप...पाकिस्तान में कोई आतंकवादी नहीं है."
"बिल्कुल नहीं. वहां के लोग तो सिर्फ़ युद्ध का प्रशिक्षण लेते है. प्रशिक्षण के बाद वे अमेरिका, औस्ट्रेलिया और इंगलैंड चले जाते हैं...जो बाच जाते है ईंडिया आ जाते है. पाकिस्तान में तो कोई रहता नहीं...बेकार लोग बदनाम करते हैं"
"अभी तो मणिशंकर अय्यर जी कह रहे थे कि खेल का अयोजन होना चाहिये जिससे हमारा हुंह काला न हो..."

"मणिशंकरजी खुद गोरे हैं क्या जो मुंह काला हो जायेगा. गोरे तो अंग्रेज थे..हम भारतियों को तो वे लोग सदा से काले समझते रहे. जितना लूटना था लूट गये और इस हाल में छोङ गये कि और भी मुह काला होने की नौबत आ गयी है."

अब मैं नहीं सह पा रहा था. हर गलत बात को ससुरजी जस्टिफ़ाइ कर रहे थे. पुन: मेरे दिल का दर्द जुबां से निकला
"इंगलैंड और आस्ट्रेलिया के कई एथलीट भारत नहीं आ रहे हैं......?,,,,,,"
"इससे क्या फ़र्क पङता है .यहां डेंगू के सिवा उन्हें कुछ भी हाथ नहीं लगता. दौङ में मेडल नहीं जीत पाते. हमारे देश की जनता दिल्ली दौङती ही रहती है ...न ही कभी नेताजी के दर्शन होते हैं और न ही मेडल मिलता है...इसलिये दौङ का मेडल तो हमारे देश में ही रहेगा."

"बांकी खेलों में..?"
"बांकी कौनसी खेल...? स्वीमिंग....? दिल्ली में बाढ आयी हुई है. देश के तैराकों के पास प्रेक्टिस का सुनहाल मौका है...देखियेगा ये सारे मेडल देश में ही रहेंगे.जिस तरह से तैयारी चल रही है. कोई भी खेलने दिल्ली नहीं आयेंगे....अपने देश के खिलाङी भी नहीं.फ़िर सुरेश कलमाडीजी शुटिंग करेंगे, शीला दीदी तैराकी में भाग लेंगी, खेल मंत्री एथलीट बनेंगे और मनमोहन सिंहजी गोला फ़ेकेंगे. सारे के सारे मेडल देश में ही रह जायेगा. इतिहास बन जायेगा.
"मुझे नहीं लगता कि कोई भी खिलाङी खेलने नहीं आयेगा.."
"आयेंगे तो आयें...हमने मना थोङे ही किया है. यमुना का जल स्तर बढ ही रहा है. कुछ दिनों के बाद एयर-पोर्ट और बस अड्डे पर भी पानी होगा... लंदन से नई दिल्ली पानी के जहाज से आ सकें तो आयें.....उपर से यदि कहीं सङक धंस गया तो हम जिम्मेवारी नहीं लेगें और......डेंगू फ़ैलानेवाले मच्छर हमारी बात नहीं मानते ये भी जान लें. हम अच्छा खेलने पर गोल्ड की गारंटी दे सकते है...लाइफ़ की नही."

अगले भाग में ससुर जी थाइलैन्ड से मिले नौकरी के ओफर का जवाब देंगे .... क्रमश

मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-4,5,6 (व्यंग्य)

मैं चुपके से सुन रहा था. उनके रेखा गणित में गणित कहीं नहीं था सिर्फ़ रेखा ही रेखा दिख रही थी. ससुरजी को कैसे समझाया जाये गणित में भी बहकी बातें ही पढाते हैं. वह कभी भी गलत नहीं बोलते लेकिन बच्चों पर तो इसका दुष्प्रभाव ही पङेगा न ?. मैंने सोचा देव-भाषा संस्कृत के साथ छेङखानी नहीं करेंगे.इसलिये मैंने उन्हें टिंकू को संस्कृत पढाने का आग्रह किया.अगले दिन आकर दरबाजे पर ठहर गया. ससुरालवालों ने सुनने की क्षमता तो बढा ही दिया है.सुनने लगा------

"विद्या ददाति लोभम , लोभम ददाति धूर्तताम

धूर्तत्वा धनमाप्नोति,धनात पाप: तत: दुखम.



अर्थ बाद मे बताउंगा पहले श्लोक लिखो.

"उत्तमा कारं ईच्छन्ति , मोटर सायकिलं मध्यमा

अधमा सायकिलं ईच्छान्ति सायकिलं महती धनं.


"असत्यं वद प्रियं वद न वद असत्यं अप्रियं

विना विलम्बे सत्यम प्रियम वद अवश्यम.


अगला श्लोक: नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र नेता ".


तभी मेरे मुंह से निकल गया---"नेता नहीं देवता.". ससुरजी बोलने लगे---" दामादजी मैंने जान-बूझकर मोडिफ़ाइ करके बताया है.आज के बच्चे देवी-देवता के बारे में नहीं जानते और देवता और नेता में अब फ़र्क ही कहां है. अब तो सुर-असुर साथ-साथ बैठकर पक्ष और विपक्ष की भूमिका निबाहते हैं. दोनो मिलकर सत्ता का अमृत पीते हैं. उपर से संसार का विष इतना विषैला हो चुका है कि आज के महादेव विष पीकर कोमा में जा चुके हैं....देखियेगा जल्दी ही कोमा से फ़ुल-स्टोप लग जायेगा ".


ओह कोमा में तो मेरी जिंदगी चली गयी थी. ससुरजी के रहते टिंकू का भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा था. अंधकार में तो रोशनी डाला जा सकता है लेकिन इसी तरह वह पढाते रहे तो उसका भविष्य गर्त में चला जायेगा.मैंने फ़िर से उस ब्लोगर मित्र से सलाह लिया तो उसने कहा कि उनसे शोपिन्ग-वोपिंग करवाओ.मेरी बात को मानते हुए ससुरजी सायंकाल टिंकू के साथ शोपिंग के लिये चले गये.

अब घर में मैं और श्रीमतीजी ही बच गये थे.कुछ ही देर में मौका देखकर अपने पिता के सेवा और सत्कार में हुई कमी से आहत होकर पानी से भरा हुआ श्रीमतीजी की आंखों का स्टोर हाउस रिसने लगा----"जानते हो जब मेरे पापा शोपिंग के लिये जाने लगे मैंने रुपयों के लिये ड्रावर खोला.उसमे गांधी जी के फ़ोटो वाला एक भी नोट नहीं निकला.मेरी आंखों मे आंसू तैर गये....पापा क्या सोचे होंगे....उन्हें कितना बुरा लगा होगा ".

मैंने कहा---" इसमे बुरा लगनेवाली क्या बात है...मेरे ससुरजी ग्रेट हैं. उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगा होगा "

" हां..वह कहने लगे कि कोई बात नहीं है, जो लोग आज के जमाने में सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलते हैं, गांधीजी उनसे दूर ही रहते हैं. आजकल वह भी उन बन्दरों से नफ़रत करते है जो उनके कहे अनुसार जीवन जीते थे. क्योंकि उन्हीं बन्दरों के चलते उन्हें गोली मारा गया था..."

मैंने समझाया----" डार्लिंग कहां से कहां बात ले जा रही हो. नोटों पर गांधीजी की तस्वीर होती है गांधीजी थोङे ही होते हैं.".वह फ़िर रोने लगी----"उनको तो गोडसे मरवाया गया था. अब तो उनकी तस्वीर ही बची है न ? ".

मैंने कहा---" स्वीटहर्ट गांधीजी तो हमारे दिल में रहते हैं ".

वह झला उठी---" मुझे बेवकूफ़ मत बनाओ छोटे से दिल में तो हर अच्छे लोग रहते हैं जिनसे हम प्यार करते हैं. लेकिन इतने महान हैं तो हमारे बङे से पेट में क्यों नहीं समा जाते जो खाली है."


मैं उछल पङा----" ब्लोग पे डालुंगा...डार्लिंग तुमने ऐसी बात कह दी जो आजतक बङे से बङे नेता भी नहीं कह पाये....मैं लिखुंगा कि जिसका पेट खाली है उसके पेट को भरो सिर्फ़ उसके दिल में ही जगह बनाने से क्या होगा.सबसे बङा सत्य तो ये है कि आज भी लोगों का पेट खाली है और सबसे बङी अहिंसा यह है कि भूखे पेट रहकर भी जिससे प्यार होता है हम उसे दिल में जगह दे देते हैं. जिसने हमारे लिये वस्त्र तक का त्याग कर दिया उसे हम दिल में जगह क्यों न दें चाहे वह महात्मा गांधी हों या मल्लिका शेरावत ".

"दामादजी बिल्कुल सही कह रहे हैं "----- तब तक ससुरजी शोपिंग कर लौट आये थे------" आज मैंने महात्मा गांधी की तस्वीर खोजी.....नहीं मिली फ़िर चिर-यौवना मल्लिका शेरावतजी की तस्वीर ले आया. यह सोचकर कि किन हालातों में इस लङकी ने अपने वस्त्र का त्याग किया होगा ?"

मैंने समानपूर्वक उन्हें समझाया---" पिताजी ये फ़िल्म की हिरोईन है. अपने शरीर को दिखाकर ये करोङो रुपये कमाती है". वह चौंक गये------" शरीर को दिखाकर करोङो रुपये ..? कैसे..?"

"लोग इनके शरीर को देखना चाहते हैं इसलिये.."
" वाह जन-इच्छा का कितना सम्मान करती है यह अबला "
" पापाजी आप गलत समझ रहे हैं. इन हिरोइन को तो एक्टिंग करना चाहिये न ? "
" ये अच्छा एक्टिंग नहीं करती क्या..?"
" अच्छा एक्टिंग करती है लेकिन आज-कल के लोग सिर्फ़ आंग-प्रदर्शन देखना चाहते हैं. "
"फ़िर.......मैं तो इसी हालात की बात कर रहा था. हालात ही ऐसे हो गये हैं जिससे इस बेचारी मल्लिका शेरावत को स्वयं अपना चीर-हरण करना पङा. कौरव- पांडव सभी एक जैसे हो गये. द्रौपदी करे भी तो क्या. महाभारत की पांचाली...आधुनिक भारत की सहस्त्रचाली बन गयी. धृतराष्ट्र तब भी अंधा था और आज भी अंधा है."---ससुरजी कुछ देर तक शांत रहे फ़िर अपनी बेटी से कहने लगे-----" अब तो बाजार भी बहुत बदल गया है. पहले सत्तु खोजा जब नहीं मिला तो कोल्ड-ड्रींक पी आया. लिट्टी-चोखा भी बाजार से गायब हो गया है .इसलिये मैंने फ़ास्ट फ़ूड पैक करवा लिया ."

हमलोगों ने काफ़ी फ़ास्टली फ़ास्ट-फ़ूड खाया और अपने कामों मे लग गये. मक्के की रोटी---सरसो का साग और आलू चोखा---सत्तु लिट्टी जैसे विशुद्ध भारतीय खानों पर आजकल फ़ास्ट-फ़ूड और कोल्ड ड्रींक हावी है. यदि इस समय आप लंच या डीनर न कर रहे हों तो मैं उस फ़ास्ट फ़ूड का एफ़ेक्ट बताना चाहुंगा. कुछ देर में खतरनाक रुप से घर में प्रदुषण भी फ़ैला और ग्लोबल वार्मिंग भी बढता चला गया. ससुर दामाद का हमारा संबंध ही इतना मधुर रहा है कि हम दोनों में से किसी ने एक दूसरे पर उंगलिया नहीं उठायी. जबकि घर में फ़ैल रहे प्रदुषण में हम दोनों के योगदान के बारे में हम कन्फ़र्म थे. विडंबना देखिये कि हमारी उंगलियां वायु ग्रहण और त्याग स्थलों के इर्द-गिर्द मंडराता रही. प्रकृर्ति के नियम के मुताबिक इन छिद्रों को बंद भी नहीं किया जा सकता. हमारा पेट तो गैस का सिलिंडर बन ही चुका था. वो तो अच्छा था कि किसी ने माचिस की तिल्ली नहीं जलायी. हम दोनों ससुर दामाद एक दूसरे की समस्या को जान रहे थे लेकिन एक दूसरे से कहते भी तो क्या..इसी बीच टिकू आकर पूछने लगा----"नानाजी ग्लोबल वार्मिंग से क्या होता है ?" पता नहीं टिंकू खुद इस समस्या से परेशान था या शरारत कर रहा था. जो भी हो ससुरजी ने उन्हें समझाना चालू किया----" ग्लोबल वार्मिंग से तापमान बढ जाता है. घर को ठंढा रखो तो सब ठीक है....लेकिन यदि ग्लेशियर पिघले लगे तो जीना मुश्किल हो जाता है."----- अचानक ससुरजी का चेहरा लाल हो गया----" कल विस्तार से बताउंगा." कहते हुए दीर्घशंका के लिये लघु कक्ष में प्रवेश कर गये. जब उनका पुराना ग्लेशियर पिघलने लगा था तो पता नहीं मेरे ग्लेशियर का क्या होनेवाला था.
भीतर से तो मेरा भी तापमान बढ गया था उपर से गैस का दवाब भी. मेरा भी जी करने लगा और स्वत: मेरे पांव ससुरजी के पद-चिह्नों पर आगे बढता चला गया.ऐसे अवसरों पर चाह कर भी शिष्टता का ख्याल रखना कठिन होता है, लेकिन मैं उनका सम्मान ही इतना करता हूं कि शौचालय के द्वार तक जाकर ठिठक गया. विपरीत परिस्थितियों में भी शिष्टता का पालन अवश्य होना चाहिये लेकिन हालात बहुत ज्यादा विपरीत होने लगी थी. उपर से ससुरजी बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहे थे. अब मैं और रोकता तो प्राण निकल जाते. घर के शौचालय में ऐसी समस्या कभी-कभी हो जाती है लेकिन सार्वजनिक शौचालयों में ऐसी समस्या नहीं आती. वहां कई कमरे होते हैं जिससे यह कार्य सुलभता से हो जाती है.. इसीलिये उसे सुलभ शौचालय कहते है. तभी दरबाजा खोलकर ससुरजी बाहर आये जैसे ओलम्पिक का मेडल लेकर आये हों. मैं भी बिना धैर्य का प्रदर्शन किये शौचालय में प्रवेश कर गया.

कुछ देर के बाद मैं भी सामान्य महसूस करने लगा. काम हो जाने के बाद यही शौचालय सोचालय बन जाता है. नींचे की ओर पीले तरल को देखकर मैं सोचने के लिये बाध्य हो गया कि किन हालातों में यमुना का नीला पानी आज पीला हो चुका है----दिल्लीवालों ने फ़ास्ट-फ़ूड और विदेशी कंपनियों के कोका कोला को पीकर यमुना का ये हाल कर दिया होगा. देवी -देवता ही अच्छे हैं जो लाख गंगा प्रदुषित हो जाये गंगाजल ही चढवाते हैं पेप्सी और थम्स-अप नहीं..अन्यथा वे भी गैस-ट्रीक के शिकार हो जाते. देश की करोङो जनता के पास एक वक्त के खाने के लिये दस रुपये नहीं हैं वहीं लोग खुद को आधुनिक दिखाने के चक्कर में मात्र २५० मिली कोल्ड ड्रींक बारह रुपये में खरीदकर पी जाते हैं.देशी-खाना, देशी-पेय पीनेवाले लोगों को बेवकूफ़ ही समझा जाता है पर बुद्धिमान तो वही है जो ५० पैसे के निंबू और १-२ रुपये के चीनी का शर्बत पीता है.

तब मैं जिस कुर्सी पर बठा था उसके नींचे लग रहा था फ़ास्ट-फ़ूड को मिक्सी में पीसकर डाल दिया गया हो. उपर से बास भी मार रहा था. मैंने तो दोनो हाथों से कान पकङ लिया था. देशी-खाना, देशी-पेय ही खाउंगा. लग रहा था जैसे पेट से ठक-ठक की आवाज आ रही थी---बाद में जाना कि ससुरजी दरबाजा ठकठका रहे थे. वह पुन: शौचालय पधारना चाहते थे. मैंने इतना समय लगा दिया कि वह न ही ठीक से दरबाजा बंद कर पाये और न ही बैठ पाये थे. कार्य स्वत: हो गया. जैसे ही बाहर आया श्रीमतीजी कहने लगी---"सो गये थे क्या? जल्दी से जाकर डाक्टर को बुला लाओ...पापा को दिखा दो". समस्या तो हम दोनो ससुर दामाद की एक ही थी लेकिन केन्द्र की सरकार की तरह श्रीमतीजी का दोहरा मापदंड मुझे अजीब सा लगा. इलाज के बाद ससुरजी स्वस्थ हो गये.

अगले भाग में कोमनवेल्थ गेम्स पर ससुरजी विचार प्रगट करेंगे.... क्रमश

भाग-४ एवं भाग-५ क्रमश:  kaduasach.blogspot.com , sanjaybhaskar.blogspot.com  पर भी देख सकते हैं.

Sunday, September 19, 2010

मैं ,श्रीमतीजी और..........भाग ३ (व्यंग्य)

उसने अपना भाषण जारी रखा ---" शान्ति का सन्देश देने से भले ही पब्लिक न माने लेकिन नेता , पुलिस , अपराधी सबके साथ आपके सम्बन्ध अच्छे हो जायेंगे ......लेकिन  क्रान्ति के नाम पर तो ये लोग मुझे विधवा कर देंगे .फिर बिना परेशानी के मैं अपनी जिन्दगी कैसे काट पाउंगी ?".
अब मुझे  वर्दास्त नहीं हो रहा था----" तो क्या तुम्हारी परेशानी मैं हूँ  ?"
" नहीं जी ये तो मेरे पापा के विचार थे .मैंने तो सिर्फ उनका समर्थन किया था "
" समर्थन...?"---अब मैं सहन  नहीं कर पा रहा था---" समर्थन किस बात के लिए ?'.
"इस बात के लिए की वह महिलाओं का दर्द समझते हैं.".
"क्या बहकी बातें कर रही हो ? तुम्हारे कहने का मतलब महिलाओं का दर्द पुरुषों के चलते है  ?"
" नहीं जी. मैंने ऐसा कब कहा. यदि पुरुषों ने महिलाओं को दर्द दिया है तो चूड़ी और  बिंदी लाकर खुश भी तो कर देता है और  यदि डांटते -पीटते हो तो शाम को पिज्जा भी तो खिलाते हो"----श्रीमतीजी के हंसी में दर्द के छीटे साफ़ दिखाई दे रहे थे. मैं जान रहा था जल्दी ही उसकी आँखों में घरियाली आंसू के सैलाब आनेवाले हैं.

                                                                           ससुरजी जब भी आते हैं चाहे तो सैलाब आता है या तूफ़ान.अगले दिन मेरे एक ब्लोगर मित्र ने सुझाव दिया की ससुरजी को बच्चे को पढ़ाने के काम में लगा दिया करो. मैंने ऐसा ही किया.जब शाम को घर पहुंचा तो चुप चाप खिड़की   से झांककर देखा वह टिंकू को पढ़ा रहे थे---" पढो...ए फॉर   अमीर , बी फॉर बेईमान.
टिंकू ने टोका---" लेकिन पापा तो ए फॉर एप्पल पढ़ाते हैं....."
"बेटे एप्पल से तुम याद नहीं रख पाओगे ...आजकल एप्पल कहीं दिखता नहीं अस्सी रुपये किलो चल रहा है और  आज के महगाई के दौर में अमीर लोग तो फुटपाथ पर भी मिल जायेंगे. पढो सी फॉर करप्सन "   टिंकू ने फिर टोका------"नानाजी ....ये भी एप्पल  और बनाना की तरह कोई फल होता है क्या ?".
" नहीं..करप्सन  पौधे  का नाम है जिसे आजकल हर डिपार्टमेंट में लगा दिया गया है.इसका फल सीधे कैश के रूप में निकलता है." ओह गोड ससुरजी बच्चे को पढ़ाने के बदले बिगार रहे थे.मैं कमरे में घुसा और बोला-----" पापाजी चलिए दूसरे रूम में बैठकर बात करते हैं ". वह बोले---" नहीं दामादजी मुझे अपने नाती को पढ़ाने दीजिये----पढो डी फॉर दंगा ". अब उनको रोकना बहुत जरुरी था.सो मैंने कहा---" पापाजी मुझे आपसे बहुत जरुरी सलाह लेना है." इसबार वह मान गए.

                                                                      मैंने सोचा गणित में बहकी बातें करने की संभावना नहीं है इसलिए मैंने उनसे आग्रह किया की टिंकू को गणित पढ़ाया करें. अगले दिन शाम को वह टिंकू को रेखा-गणित पढ़ाने   लगे ------- ---
" रखा-गणित को समझाने के लिए पहले रेखा को जानो.पहले लोग बिंदु से शुरू करते थे तब जाकर रेखा के बारे में जान पाते थे.आजकल लोग रेखा से शुरू कर रेखा पर ही गणित समाप्त कर देते हैं.रेखा को जानने के प्रयास में कई विद्वान् स्वर्ग सिधार गए.मेरे जैसे कई लोग जिन्हें रेखा से लगाव रहा युवा से वृद्ध होते गए लेकिन रेखा जस की तस बनी रही.उसका महत्व कभी भी कम नहीं हुआ. गणित, वाणिज्य और कला के क्षेत्र में रेखा के योगदान को कभी भी नहीं भूला जा सकेगा.यदि रेखा न होती तो आज से तीस चालीस वर्ष पूर्व ही कला दम तोड़  देती, मुंबई जैसी महानगरी का वाणिज्य रसातल में चला जाता और कई लोगों का जीवन गणित कागजी बनाकर रह जाता.रेखा को आधार बनाकर जितने भी थ्योरेम्स लिखे गए लोगों के बीच हिट हुए.आधार ही नहीं वह लम्ब और कर्ण भी बनी ऊपर से सौन्दर्य तो उसमें है ही. बड़े  से बड़े  नटवरलाल भी सरल रेखा के खेल के सामने बौने सावित होते रहे .मुकद्दर  के सिकंदर भी अपने मुकद्दर की रेखा को बदल नहीं पाए .मुझे लगता है रेखा की प्रासंगिकता कभी भी कम नहीं होगी. कभी अंतहीन सीधी रेखा लोगों के अग्निपथ को सरल -पथ बनाती रही तो कभी शराब के प्याले की परिधि की तरह किसी वृत्त का रूप लेती रही जिसके क्रन्द्रक में मयखाना ही समा जाया करता था. सत्तर के दशक में आज की तरह ना ही कैट हुआ करती थी न ही करिश्मा होती थी.तब पढ़ाई का माहौल अच्छा था. वह रेखा का स्वर्णकाल था.उस समय सभी छात्र  रेखा के अध्ययन में लगे रहते थे.....लेकिन कोई भी रेखा को नहीं जान पाया.

अगले भाग में ससुरजी टिंकू को संस्कृत के श्लोक पढ़ाएंगे.............क्रमश:

Thursday, September 16, 2010

मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-2(व्यंग्य)

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सोचते सोचते मैं "ससुर" शब्द का लैंगिक विश्लेषण करने लगा. यह शब्द पुलिंग होता है और आजीवन पुलिंग ही बना रहता है यदि और केवल यदि दामाद शब्द को स्त्रीलिंग शब्द की भांति अर्थ दे.कभी-कभी पुलिंग से स्त्रीलिंग शब्द बनाने पर शब्द एक दूसरे के विपरीतार्थक भी हो जाते है.....मेरे मामले मे यह बिल्कुल सही बैठता है.जहां ससुरजी असुर की तरह पेश आते हैं वहीं मेरी सासू मां साक्षात देवी हैं यदि नागिन बनकर मेरी श्रीमतीजी के कानों में फ़ूंक न मारा करें तो.

मैं यह सब सोच ही रहा था.तभी अचानक श्रीमतीजी आकर बोली----"लगता है मेरे पापा के आने से तुम खुश नहीं हुए...". मैंने अपने भाव पर नियंत्रण करते हुए कहा---
" ऐसी बात नहीं है. मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं है. वैसे तुम्हारे पापा किस वक्त आ टपके..?".वह गुस्सा गयी---
"ऐसे क्यों बोल रहे हो जी ?".भाव को कंट्रोल करने के चक्कर में मैं भाषा पर कंट्रोल ही नहीं रख पाया था.मैं पूरा ध्यान भाषा पर फ़ोकस करते हुए कहा...."प्रिये...तुम्हारे परम पूज्य पिताश्री किस सुकाल में पधारे थे ?"
उसने कहा--"तीन घंटे हो गये....". "तीन घंटे...?"---मेरे जवाब प्रश्न कम विस्मयादिबोधक थे.----"तीन घंटे में तो तुम उन्हें घर के इतिहास से लेकर मनोविज्ञान तक बता दिया हिगा..?"
"हां, मैंने तुम्हारे ब्लोग के बारे में भी बताया. बहुत खुश हुए. कहने लगे कि फ़ालतु लोगों के लिये फ़ालतु समय का इससे अच्छा उपयोग कुछ भी नहीं हो सकता. मैंने जब कहा कि टिप्पनियां कम मिल रही है तो उन्होंने मशविरा दिया कि भिखारियों की तरह भगवान या अल्लाह के नाम पे मांगेंगे तो जरुर मिलेगा. नहीं तो आजकल लोग देह का मैल भी मुफ़्त में नहीं देते.लेकिन तुम्हारे ब्लोग "क्रांतिदूत" से वह चिंतित है.कहने लगे क्रांति तो अपने आप आयेगी दूत बननें की जरुरत नहीं है.क्रांति के दूत के साथ कभी अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता. दूत ही बनना है तो शांतिदूत बनें."
मैंने कहा---"तुमने यह नहीं पूछा कि शान्तिदूत बनुंगा तो लिखुंगा क्या..?"
"हां..पूछा...कहने लगे......देश के महान नेता लोग, मंत्री महोदय भले ही खुलेआम खजाना लूट रहे हों---फ़िर भी शांति बनाये रखें.......खुलेआम चौराहे पर किसी की इज्जत लूटी जा रही हो---फ़िर भी शांति बनाये रखें.....आतंकवादी और नक्सली खुलकर लोगों को मार रहे हों---फ़िर भी शांति बनाये रखें...खुलेआम मजहब के नाम पर नफ़रत फ़ैलाये जा रहे हों---फ़िर भी शांति बनाये रखें.....भ्रष्टाचार और मंहगाई बेलगाम हो जाये--फ़िर भी शांति बनाये रखें. उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि देश भांङ में जाये---फ़िर भी शांति बनाये रखें.......

क्रमश:

Wednesday, September 15, 2010

मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१(व्यंग्य)

कार्यालय से प्रस्थान कर घर पहुंचने ही वाला था ,आज फ़िर श्रीमतीजी द्वार पर प्रतीक्षा कर रही थी.मैंने गहरी सांसें ली अवश्य कोई अशुभ क्षण आ गया है.
"जानते हो आज मेरे पापा घर आये हैं "--वह बोली.
"तो कौन सा दिन में चांद निकल आया है. जो इतनी खुश हो रही हो. यह समाचार कुछ देर के बाद नहीं दे सकती थी."---मैं स्वयं को नियंत्रित नहीं रख पाया था. वह बोली---"मैं सरप्राइज दे रही हूं और तुम..........."
" सरप्राइज दे रही हो या हार्ट अटेक करवाना चाहती हो...?जिससे जमकर रेल्वे का पेंशन खा सको......ये सब समाचार कम से कम दस दिन पहले बता दिया करो........."----मैं तब भी सहज नहीं हो पाया था. कमरे में जाकर चुप-चाप बैठ गया.

तीन अक्षरों से बना यह शब्द "ससुर" आकारान्त में आते ही ससुरा (गाली) बन जाता है अर्थात एक संज्ञा से दूसरी संज्ञा या संबोधन बन जाता है.संधि विच्छेद करें तो स+सुर ,लेकिन अक्सर ये दामाद के सुर को बिगाङ दिया करते है.बिना कोई कुसूर किये ही यह दामाद के साथ असुरों सा व्यवहार करते हैं जो ससुर का व्याकरण कि दृष्टि से विपरीतार्थक है.वैयाकरणाचार्यों को चुनौती देते हुए मेरे हिसाब से तो ससुर,असुर और कुसूर समानार्थक शब्द हैं.समानार्थक ही नहीं एकार्थक कहिये. हिन्दी के जन्म-दाताओं ने यदि इन तीनों शब्दों के बदले एक ही शब्द बनाया होता तो मातृ-भाषा हिन्दी भी सरला होती और लोगों का जीवन भी कुशल होता.

साहित्य और व्याकरण से हटना नहीं चाहता. मूल शब्द सुर ही है अर्थात देवता, वीर आदि.अब "अ" पहले लगा दें तो असुर अर्थात राक्षस....लेकिन दामादों का दुर्भाग्य देखिये सुर में स लगाकर ससुरा क्षमा करें ससुर बनाया गया. यदि वे सचमुच देवता या वीर होते तो सीधे सुर कहा जाता.यहां सुर में ’स’ लगाकर पूर्व के विद्वानों ने सीधे संकेत किया है कि ससुर अर्थात कन्या के पिता उतने ही सुर हैं जितना उनमें स लगा है बांकी उतने ही असुर जितना स नहीं लगा है. अर्थात उनके विशेषण ससुरत्व या ससुरता से उनके योग्यता को मांपना चाहिये.यह शब्द अक्सर करण कारक बनकर संबंध कारक को बुरी तरह से प्रभावित करते हैं. कर्ता , कर्म और सम्बोधन कारकों में बिना गलती किये सम्प्रदान कारक पर कार्य करें तो संबंध कारक सुरक्षित रहेंगे ,अन्यथा शनि सहित अन्य सभी ग्रहों के अच्छे प्रभाव भी उन्हें करण कारक बनने से नहीं रोक सकते. लाख भाषा और साहित्य को मधुर कर लें ससुर के मामले में तो व्याकरण का ही चलता है.......

अगले भाग मे इस शब्द का लैंगिक विश्लेषण करेंगे........क्रमश:

Tuesday, September 14, 2010

मदर लेंग्वेज--व्यंग्य

डिपार्टमेंट के एच ओ डी का फ़ोन आया.."गुड मोर्निंग...आज से सभी वर्क मदर लेंग्वेज में करना है"---लगा जैसे साहब रोमन स्क्रिप्ट पढ रहे हों----"जी. एम साहब का ओर्डर है कि सारा काम आन लेंग्वेज में करना है.आजकल हिन्दी काफ़ी वीक चल रहा है". मैंने रिप्लाई किया.."यस सर...,हिन्दी वीक तो चल ही रहा है दिनों-दिन और भी वीकर होती जा रही है."---मैं अपनी स्मार्टनेस का प्रूफ़ दे रहा था लेकिन टाइम के प्रोबलेम के चलते साहब ने फ़ोन हेंग ओफ़ कर दिया.मैं सिरियसली सोचने लगा .अभी तो हिन्दी वीक से वीकर हुई है यदि सिचुएशन को कंट्रोल नहीं किया गया तो हिन्दी वीकर से वीकेस्ट हो जायेगी. एक बार यदि सुपरलेटिव डिग्री में पहुंच गयी तो कोई भी इस पूअर लेंग्वेज को रिस्पोंस नहीं देगा....सभी लोग ’द’ लगाकर छोङ देंगे.

नेक्स्ट डे डेली की तरह सनराइज होते ही विन्डो से लाइट आने लगी. जब से मेडम शेक अप नहीं देती सनलाइट ही मुझे जगाती है. फ़्रेश होकर ब्रेकफ़ास्ट और काफ़ी ले लिया. हिन्दी आखिर मदर लेंग्वेज है उसके वेलफ़ेयर के लिये सोचना हमारी ड्युटी है.क्वार्टर से सीटी की ओर निकल पङा. एक औटोवाले से पूछा--" सी. एम.डी कालेज का कितना लोगे..?.उसने अपना दाहिना हाथ उपर किया और सारे फ़िंगर्स फ़ैला दिये.आजकल ये लोग काफ़ी चिटिंग करते हैं.मैंने कहा..."फ़िंगर्स क्यों दिखा रहे हो ? मुंह से बोलो." वह अपने फ़िंगर्स को काउंट करने लगा---"वन, टू...फ़ाइव".मैंने कहा--"हिन्दी में नहीं कह सकते..?" उसने सीधा जवाब दिया---"ईशारा तो हिन्दी में ही किया था. लेकिन लोग तो हिन्दी का ईशारा समझते ही नहीं, इंगलिश से अफ़ेयर चला रहे हैं और हिन्दी के साथ एमोशनल अत्याचार कर रहे हैं. उसके फ़ीलिंग्स को हर्ट करते हैं जिससे उसका हार्ट पिसेज में ब्रेक अप हो जाता है. इस पूअर लेडी के लीवर को तो अंग्रेजों ने ही डैमेज कर दिया था. उपर से इमप्युरिटी को फ़िल्टर करने के चक्कर में किडनी भी चोक हो गयी है. रेस्ट तो पूरे वर्ल्ड के सामने विजिबुल है.."..उसके स्पीच ने मुझे स्पीचलेस कर दिया था. वह ड्राइवर कम स्कोलर था.हम सी. एम.डी कालेज पहुंच गये थे.

वहां पहुंचते ही वह ट्वेंटी फ़ाइव रुपये का डिमांड करने लगा. मैंने कहा--"तुमनें तो फ़ाइव रुपीज ही कहा था..?" उसने जवाब दिया--"आपने तो मेरा दूसरा हाथ देखा ही नहीं था. मैंने लेफ़्ट हेन्ड का मिडिल और फ़ोर फ़िंगर भी फ़ैलाया था. ".उसके रिप्लाइ से मेरा बी.पी हाइ हो गया--" तो...फ़ाइव प्लस टू सेवेन ही हुआ ना, मल्टिप्लाइ भी करोगे तो टेन हुआ". वह हंसते हुए बोला--" मैंने स्क्वायर किया था." मेरे साथ चीटिंग तो हो ही गयी थी. मैं बुदबुदाया---"ओफ़, करप्शन का रूट (मूल) कितना गहरा हो गया है" वह झट से बोला--"एक्चुअली साहेब अभी फ़्लाइ ओवर से नींचे आये न इसलिये रूट गहरा लग रहा है."
"शट अप..मैं करप्शन के रूट की बात कर रहा हूं....तुम्हारे रूट (रास्ता) की नहीं."
"मैं भी उसी रूट की बात कर रहा हूं साहेब. इंडिपेंडेस के बाद हम लोग लैंड को छोङकर फ़्लाइ ओवर पे उङने लगे थे. अंग्रेजों के सब कुछ चुराये लेकिन उसका दिया हुआ ओनेस्टी बेच दिया. अब तो कोई डिपार्टमेंट नहीं बचा है जहां यह रूट नहीं जाता. इस रूट से आप जहां कहेंगे पहुंचा दुंगा...ये रूट तो आजकल नेशनल हाइ वे बन चुका है."

वह सही कह रहा था. हम करप्शन के रूट (मूल) के बारे में बेकार सोच रहे हैं हमें उसके रूट (रास्ते) को ही बंद कर देना चाहिये. वह फ़िर शुरु हो गया--"बिल्कुल सही सोच रहे हैं आप. लेकिन नजरिया बदलने की जरुरत है. यदि मैं पांच के बदले पच्चीस ले रहा हूं तो आप पूछिये क्यों. मेरे पास जवाब है. उनके पास क्या जवाब है जो लाख रुपये वेतन पाते हैं और करोङो रुपये संदूक में भरकर रखते हैं.......दूसरी बात हिन्दी को..तो आजकल लोग हिन्दी के साथ बलात्कार कर रहे हैं और आप भी कम छिनाल नहीं हैं कहने को हिन्दी बोलते हैं पर बीच-बीच में अंग्रेजी ठूस देते है. हम गरीब क्या करें आपकी भाषा नहीं बोलेंगे तो आप जुबान नहीं काट लेंगे हमारी..?"..अब वह शुद्ध हिन्दी बोल रहा था.मैं आत्म-ग्लानि से भर गया था.मैंने भी सोच लिया कि अब शुद्ध हिन्दी में ही बातें करुंगा.

Monday, September 13, 2010

हिन्दी हम हिन्दी की भाषा

मत भूलें, हम हिन्दुस्तानी
हिन्दी हम हिन्दी की भाषा
इसके स्वर हों सारे जग में
हों पुर्ण हम सबकी आशा

मां के मुख से सुना है जिसको
कैसे भूल सकेंगे उसको..?
रची बसी जो अस्थि रक्त में
कैसे दूर करेंगे उसको..?
हर कण में हों इसकी प्रतिध्वनि
यही एक अपनी अभिलाषा
मत भूलें, हम हिन्दुस्तानी
हिन्दी हम हिन्दी की भाषा

कहता पर्वतराज हिमालय
सागर की लहरें कहती है.
बिन बदले अपने स्वर लय को
गंगा की धारा बहती है.
आओ हम भी आज करें प्रण
न बदलें अपनी लय भाषा.
मत भूलें, हम हिन्दुस्तानी
हिन्दी हम हिन्दी की भाषा

Tuesday, September 7, 2010

क्या सोचा था क्या ये लोकतंत्र हो गया !

सत्ता पाना ही भ्रष्टों का मूलमंत्र हो गया,
क्या सोचा था क्या ये लोकतंत्र हो गया !
परदे के पीछे से चल रहा आज छद्म-राज है,
कुर्सी पर बैठी कठपुतली एक यंत्र हो गया !!


युवराज यूं घूमता है अपने इस साम्राज्य में,
मानो यह प्रजातंत्र नहीं राजतंत्र हो गया !
चाटुकार लूटता खूब, उसके लिए तो यह देश,
नोट उत्पादन का एक खासा सयंत्र हो गया !!

Monday, September 6, 2010

आज चांदनी घर आयी है.

सपने भी न देख सका था,
भरकर पेट सोया ही कब था
खाकर घाव हमने कांटों से
जी भरकर रोया ही तब था.
उसे जो उपर बैठा प्रति पल
आज मेरी दुनियां भायी है
आज चांदनी घर आयी है.

पूनम की रौशन रातों में
हमने देखा था गुप्प अंधेरा
हर रात अमावस जैसी थी
उजङा था हम सब का बसेरा
आज हवा गुनगुना रही है
दर्द दिलों के शरमायी है
आज चांदनी घर आयी है.

बहुत दिनों के बाद आज
चावल के दाने घर आये
खुशियां सबके दिल में छायी
हंसे, चेहरे जो थे मुरझाये
मां की पथरीली आंखों में
गजब आज चमक छायी है.
आज चांदनी घर आयी है.

Friday, September 3, 2010

मेरी बिटिया सो रही है

आज सुलाकर चिर-निद्रा में
उसे गर्भ में दफ़न करेंगे.
मां का आंचल ही बेटी के
शव ढकने को कफ़न बनेंगे.
अपनी प्यारी माता को वह
डायन कहकर रो रही है.
मेरी बिटिया सो रही है

मां की गोद का पता नहीं
उसे यह दुनियां नहीं दिखेगी
नहीं बनेगी कभी वो बहना
उसकी डोली नहीं सजेगी.
उसको कुछ भी नहीं मिला है
फ़िर जानें क्या खो रही है.
मेरी बिटिया सो रही है

जा रही वह नील गगन में
कोस रही है अपने बाप को
कभी नहीं अब वह लौटेगी
जान गयी वह जग के पाप को
बहुत दूर है मेरी बिटिया
कितने दुख वह ढो रही है
मेरी बिटिया सो रही है

Wednesday, September 1, 2010

कृष्ण--क्यों जनम लेते हो तुम (व्यंग्य)

कृष्ण--क्यों जनम लेते हो तुम (व्यंग्य)

अब कौन सी देवकी इतना रिश्क लेकर तुम्हे जनम देगी ? जिस मां लक्ष्मी से तुम्हें जन्म के साथ ही एक्सचेंज किया गया था उसे भ्रुण में ही मार नहीं दिया गया होगा..?. अब तो गायों के चारे लोग खुलकर खाने लगे हैं. क्या खिलाओगे अपनी गैया को ? राधा जैसी हजारो गोपियों के साथ जात और उम्र की परवाह किये बगैर इश्क करने पर चौराहे पर टांगकर जिंदा नहीं जला दिये जाओगे?. आज की औरतें जो फ़िगर के लिये अपने बच्चों को भी अपना दूध नहीं पिलाती , मक्खन चोरी करने पर तुम्हारा फ़िगर नहीं बिगार देंगी....? उपर से मक्खन आइ एस ओ सर्टिफ़ाइड तो होगा नहीं.मिलावट भी हो सकती है...यदि जहरीला निकला तो...? सुदामा जैसे जो छोकङा लोग तुम्हारे साथ गायें चराया करते थे..आज के डेट में चाइल्ड लेबर बने हुए हैं, जो अच्छे घर के थे ईंगलिश स्कूल में पढ रहे हैं. किसके साथ खेलोगे..? तुम्हीं बताओ तुम्हारा एडुकेशन कैसे होगा..? तुम्हारे पापा बसुदेव के पास कोई खजाना तो है नहीं कि लाखो रुपये डोनेशन दे देन्गे..रही बात नन्दराज की तो सुन लो आजकल पूरे भारत में राजा कंस की चलती है.

अब तुम यमुना में नहा भी नहीं सकते. दिल्ली की सङकों का हाल ऐसा है कि द्वारका से यमुना तक जाने में ही दिन से रात हो जायेगी.....पता भी नहीं चलेगा कि यमुना किधर है और गड्ढा किधर..यदि मेट्रो बगैरह से पहुंच भी गये तो काले तो पहले से हो पीले होकर निकलोगे. दिल्ली की पब्लिक ने यमुना का वो हाल कर दिया है. कलर तो मोडिफ़ाइ हो जायेगा लेकिन इतने गंदे हो जाओगे कि मां यशोदा भी गोद नहीं लेगी. आखिर कहां कहां हगीज पहनायेगी.?

रही बात राधा की...तो सुनो आजकल के कै साधु-संत और तुम्हारे भक्त राधाओं के चक्कर में कानुनी धाराओं के साथ बह गये. स्वामी सत्यानन्दवाली हाल हो जायेगी.आखिर जन्म लेने का कुछ परपस तो होगा ? महाभारत करोगे..? कोमनवेल्थ से बढकर कोई महाभारत क्या होगा..? आज्कल अर्जुन भी इतना बीजी रहता है कि टाईम नहीं देगा.युधिष्ठिर सट्टेबाजी में लगा रहता है और भीम को होटलबाजी से फ़ूर्सत नहीं मिलता. बचा नकुल और सहदेव तो इन्हें आज के जमाने में खेल संघों के अधिकारी ग्राउन्ड तक पहुंचने भी नहीं देते.. किसको सुनाओगे अपनी गीता..? तुम्हारी गीता अब कौन सुनता है. अब तो वह अदालतों में लेटी रहती है जिस पर जब जी चाहे दुर्योधन अपनी हाथ फ़ेर आता है.

इसलिये मैं दिल से कह रहा हूं...बेकार जन्म ले रहे हो. इसबार जेल में ही पैदा
होओगे और उसी में सङते रहोगे.....तुम्हें कभी जमानत नहीं मिलेगी. कानून चोरों और छिनालों के प्रति काफ़ी सख्त हो गयी है.यहां गद्दारों, डकैतों और बलात्कारियों को ही जमानत दी जाती है. मैं मानता हूं कि तुम छिनाल नहीण हो लेकिन जहां लङकियों को देखकर सीटी बजाना अपराध है वहां पांवों से ट्रेंगिल बनाकर बांसुरी बजाओगे तो जूते पङेंगे.उपर से बदनामी अलग.

सारी बातें सोच लो. अबकी बार हर आदमी में तुम्हें कंस नजर आयेगा.पर्पस डेफ़ाईन कर लो और किसी अच्छे होस्पीटल मे जन्म लो.मक्खन के बदले..आइस-क्रीम खाओ. पिक्चर-विक्चर देखो और लाइफ़ को एन्जोय करो.......अब किसी धर्म की ग्लानि नहीं होती, धर्म तो कब का मर चुका है.