मैं चुपके से सुन रहा था. उनके रेखा गणित में गणित कहीं नहीं था सिर्फ़ रेखा ही रेखा दिख रही थी. ससुरजी को कैसे समझाया जाये गणित में भी बहकी बातें ही पढाते हैं. वह कभी भी गलत नहीं बोलते लेकिन बच्चों पर तो इसका दुष्प्रभाव ही पङेगा न ?. मैंने सोचा देव-भाषा संस्कृत के साथ छेङखानी नहीं करेंगे.इसलिये मैंने उन्हें टिंकू को संस्कृत पढाने का आग्रह किया.अगले दिन आकर दरबाजे पर ठहर गया. ससुरालवालों ने सुनने की क्षमता तो बढा ही दिया है.सुनने लगा------
"विद्या ददाति लोभम , लोभम ददाति धूर्तताम
धूर्तत्वा धनमाप्नोति,धनात पाप: तत: दुखम.
अर्थ बाद मे बताउंगा पहले श्लोक लिखो.
"उत्तमा कारं ईच्छन्ति , मोटर सायकिलं मध्यमा
अधमा सायकिलं ईच्छान्ति सायकिलं महती धनं.
"असत्यं वद प्रियं वद न वद असत्यं अप्रियं
विना विलम्बे सत्यम प्रियम वद अवश्यम.
अगला श्लोक: नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र नेता ".
तभी मेरे मुंह से निकल गया---"नेता नहीं देवता.". ससुरजी बोलने लगे---" दामादजी मैंने जान-बूझकर मोडिफ़ाइ करके बताया है.आज के बच्चे देवी-देवता के बारे में नहीं जानते और देवता और नेता में अब फ़र्क ही कहां है. अब तो सुर-असुर साथ-साथ बैठकर पक्ष और विपक्ष की भूमिका निबाहते हैं. दोनो मिलकर सत्ता का अमृत पीते हैं. उपर से संसार का विष इतना विषैला हो चुका है कि आज के महादेव विष पीकर कोमा में जा चुके हैं....देखियेगा जल्दी ही कोमा से फ़ुल-स्टोप लग जायेगा ".
ओह कोमा में तो मेरी जिंदगी चली गयी थी. ससुरजी के रहते टिंकू का भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा था. अंधकार में तो रोशनी डाला जा सकता है लेकिन इसी तरह वह पढाते रहे तो उसका भविष्य गर्त में चला जायेगा.मैंने फ़िर से उस ब्लोगर मित्र से सलाह लिया तो उसने कहा कि उनसे शोपिन्ग-वोपिंग करवाओ.मेरी बात को मानते हुए ससुरजी सायंकाल टिंकू के साथ शोपिंग के लिये चले गये.
अब घर में मैं और श्रीमतीजी ही बच गये थे.कुछ ही देर में मौका देखकर अपने पिता के सेवा और सत्कार में हुई कमी से आहत होकर पानी से भरा हुआ श्रीमतीजी की आंखों का स्टोर हाउस रिसने लगा----"जानते हो जब मेरे पापा शोपिंग के लिये जाने लगे मैंने रुपयों के लिये ड्रावर खोला.उसमे गांधी जी के फ़ोटो वाला एक भी नोट नहीं निकला.मेरी आंखों मे आंसू तैर गये....पापा क्या सोचे होंगे....उन्हें कितना बुरा लगा होगा ".
मैंने कहा---" इसमे बुरा लगनेवाली क्या बात है...मेरे ससुरजी ग्रेट हैं. उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगा होगा "
" हां..वह कहने लगे कि कोई बात नहीं है, जो लोग आज के जमाने में सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलते हैं, गांधीजी उनसे दूर ही रहते हैं. आजकल वह भी उन बन्दरों से नफ़रत करते है जो उनके कहे अनुसार जीवन जीते थे. क्योंकि उन्हीं बन्दरों के चलते उन्हें गोली मारा गया था..."
मैंने समझाया----" डार्लिंग कहां से कहां बात ले जा रही हो. नोटों पर गांधीजी की तस्वीर होती है गांधीजी थोङे ही होते हैं.".वह फ़िर रोने लगी----"उनको तो गोडसे मरवाया गया था. अब तो उनकी तस्वीर ही बची है न ? ".
मैंने कहा---" स्वीटहर्ट गांधीजी तो हमारे दिल में रहते हैं ".
वह झला उठी---" मुझे बेवकूफ़ मत बनाओ छोटे से दिल में तो हर अच्छे लोग रहते हैं जिनसे हम प्यार करते हैं. लेकिन इतने महान हैं तो हमारे बङे से पेट में क्यों नहीं समा जाते जो खाली है."
मैं उछल पङा----" ब्लोग पे डालुंगा...डार्लिंग तुमने ऐसी बात कह दी जो आजतक बङे से बङे नेता भी नहीं कह पाये....मैं लिखुंगा कि जिसका पेट खाली है उसके पेट को भरो सिर्फ़ उसके दिल में ही जगह बनाने से क्या होगा.सबसे बङा सत्य तो ये है कि आज भी लोगों का पेट खाली है और सबसे बङी अहिंसा यह है कि भूखे पेट रहकर भी जिससे प्यार होता है हम उसे दिल में जगह दे देते हैं. जिसने हमारे लिये वस्त्र तक का त्याग कर दिया उसे हम दिल में जगह क्यों न दें चाहे वह महात्मा गांधी हों या मल्लिका शेरावत ".
"दामादजी बिल्कुल सही कह रहे हैं "----- तब तक ससुरजी शोपिंग कर लौट आये थे------" आज मैंने महात्मा गांधी की तस्वीर खोजी.....नहीं मिली फ़िर चिर-यौवना मल्लिका शेरावतजी की तस्वीर ले आया. यह सोचकर कि किन हालातों में इस लङकी ने अपने वस्त्र का त्याग किया होगा ?"
मैंने समानपूर्वक उन्हें समझाया---" पिताजी ये फ़िल्म की हिरोईन है. अपने शरीर को दिखाकर ये करोङो रुपये कमाती है". वह चौंक गये------" शरीर को दिखाकर करोङो रुपये ..? कैसे..?"
"लोग इनके शरीर को देखना चाहते हैं इसलिये.."
" वाह जन-इच्छा का कितना सम्मान करती है यह अबला "
" पापाजी आप गलत समझ रहे हैं. इन हिरोइन को तो एक्टिंग करना चाहिये न ? "
" ये अच्छा एक्टिंग नहीं करती क्या..?"
" अच्छा एक्टिंग करती है लेकिन आज-कल के लोग सिर्फ़ आंग-प्रदर्शन देखना चाहते हैं. "
"फ़िर.......मैं तो इसी हालात की बात कर रहा था. हालात ही ऐसे हो गये हैं जिससे इस बेचारी मल्लिका शेरावत को स्वयं अपना चीर-हरण करना पङा. कौरव- पांडव सभी एक जैसे हो गये. द्रौपदी करे भी तो क्या. महाभारत की पांचाली...आधुनिक भारत की सहस्त्रचाली बन गयी. धृतराष्ट्र तब भी अंधा था और आज भी अंधा है."---ससुरजी कुछ देर तक शांत रहे फ़िर अपनी बेटी से कहने लगे-----" अब तो बाजार भी बहुत बदल गया है. पहले सत्तु खोजा जब नहीं मिला तो कोल्ड-ड्रींक पी आया. लिट्टी-चोखा भी बाजार से गायब हो गया है .इसलिये मैंने फ़ास्ट फ़ूड पैक करवा लिया ."
हमलोगों ने काफ़ी फ़ास्टली फ़ास्ट-फ़ूड खाया और अपने कामों मे लग गये. मक्के की रोटी---सरसो का साग और आलू चोखा---सत्तु लिट्टी जैसे विशुद्ध भारतीय खानों पर आजकल फ़ास्ट-फ़ूड और कोल्ड ड्रींक हावी है. यदि इस समय आप लंच या डीनर न कर रहे हों तो मैं उस फ़ास्ट फ़ूड का एफ़ेक्ट बताना चाहुंगा. कुछ देर में खतरनाक रुप से घर में प्रदुषण भी फ़ैला और ग्लोबल वार्मिंग भी बढता चला गया. ससुर दामाद का हमारा संबंध ही इतना मधुर रहा है कि हम दोनों में से किसी ने एक दूसरे पर उंगलिया नहीं उठायी. जबकि घर में फ़ैल रहे प्रदुषण में हम दोनों के योगदान के बारे में हम कन्फ़र्म थे. विडंबना देखिये कि हमारी उंगलियां वायु ग्रहण और त्याग स्थलों के इर्द-गिर्द मंडराता रही. प्रकृर्ति के नियम के मुताबिक इन छिद्रों को बंद भी नहीं किया जा सकता. हमारा पेट तो गैस का सिलिंडर बन ही चुका था. वो तो अच्छा था कि किसी ने माचिस की तिल्ली नहीं जलायी. हम दोनों ससुर दामाद एक दूसरे की समस्या को जान रहे थे लेकिन एक दूसरे से कहते भी तो क्या..इसी बीच टिकू आकर पूछने लगा----"नानाजी ग्लोबल वार्मिंग से क्या होता है ?" पता नहीं टिंकू खुद इस समस्या से परेशान था या शरारत कर रहा था. जो भी हो ससुरजी ने उन्हें समझाना चालू किया----" ग्लोबल वार्मिंग से तापमान बढ जाता है. घर को ठंढा रखो तो सब ठीक है....लेकिन यदि ग्लेशियर पिघले लगे तो जीना मुश्किल हो जाता है."----- अचानक ससुरजी का चेहरा लाल हो गया----" कल विस्तार से बताउंगा." कहते हुए दीर्घशंका के लिये लघु कक्ष में प्रवेश कर गये. जब उनका पुराना ग्लेशियर पिघलने लगा था तो पता नहीं मेरे ग्लेशियर का क्या होनेवाला था.
भीतर से तो मेरा भी तापमान बढ गया था उपर से गैस का दवाब भी. मेरा भी जी करने लगा और स्वत: मेरे पांव ससुरजी के पद-चिह्नों पर आगे बढता चला गया.ऐसे अवसरों पर चाह कर भी शिष्टता का ख्याल रखना कठिन होता है, लेकिन मैं उनका सम्मान ही इतना करता हूं कि शौचालय के द्वार तक जाकर ठिठक गया. विपरीत परिस्थितियों में भी शिष्टता का पालन अवश्य होना चाहिये लेकिन हालात बहुत ज्यादा विपरीत होने लगी थी. उपर से ससुरजी बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहे थे. अब मैं और रोकता तो प्राण निकल जाते. घर के शौचालय में ऐसी समस्या कभी-कभी हो जाती है लेकिन सार्वजनिक शौचालयों में ऐसी समस्या नहीं आती. वहां कई कमरे होते हैं जिससे यह कार्य सुलभता से हो जाती है.. इसीलिये उसे सुलभ शौचालय कहते है. तभी दरबाजा खोलकर ससुरजी बाहर आये जैसे ओलम्पिक का मेडल लेकर आये हों. मैं भी बिना धैर्य का प्रदर्शन किये शौचालय में प्रवेश कर गया.
कुछ देर के बाद मैं भी सामान्य महसूस करने लगा. काम हो जाने के बाद यही शौचालय सोचालय बन जाता है. नींचे की ओर पीले तरल को देखकर मैं सोचने के लिये बाध्य हो गया कि किन हालातों में यमुना का नीला पानी आज पीला हो चुका है----दिल्लीवालों ने फ़ास्ट-फ़ूड और विदेशी कंपनियों के कोका कोला को पीकर यमुना का ये हाल कर दिया होगा. देवी -देवता ही अच्छे हैं जो लाख गंगा प्रदुषित हो जाये गंगाजल ही चढवाते हैं पेप्सी और थम्स-अप नहीं..अन्यथा वे भी गैस-ट्रीक के शिकार हो जाते. देश की करोङो जनता के पास एक वक्त के खाने के लिये दस रुपये नहीं हैं वहीं लोग खुद को आधुनिक दिखाने के चक्कर में मात्र २५० मिली कोल्ड ड्रींक बारह रुपये में खरीदकर पी जाते हैं.देशी-खाना, देशी-पेय पीनेवाले लोगों को बेवकूफ़ ही समझा जाता है पर बुद्धिमान तो वही है जो ५० पैसे के निंबू और १-२ रुपये के चीनी का शर्बत पीता है.
तब मैं जिस कुर्सी पर बठा था उसके नींचे लग रहा था फ़ास्ट-फ़ूड को मिक्सी में पीसकर डाल दिया गया हो. उपर से बास भी मार रहा था. मैंने तो दोनो हाथों से कान पकङ लिया था. देशी-खाना, देशी-पेय ही खाउंगा. लग रहा था जैसे पेट से ठक-ठक की आवाज आ रही थी---बाद में जाना कि ससुरजी दरबाजा ठकठका रहे थे. वह पुन: शौचालय पधारना चाहते थे. मैंने इतना समय लगा दिया कि वह न ही ठीक से दरबाजा बंद कर पाये और न ही बैठ पाये थे. कार्य स्वत: हो गया. जैसे ही बाहर आया श्रीमतीजी कहने लगी---"सो गये थे क्या? जल्दी से जाकर डाक्टर को बुला लाओ...पापा को दिखा दो". समस्या तो हम दोनो ससुर दामाद की एक ही थी लेकिन केन्द्र की सरकार की तरह श्रीमतीजी का दोहरा मापदंड मुझे अजीब सा लगा. इलाज के बाद ससुरजी स्वस्थ हो गये.
अगले भाग में कोमनवेल्थ गेम्स पर ससुरजी विचार प्रगट करेंगे.... क्रमश
भाग-४ एवं भाग-५ क्रमश: kaduasach.blogspot.com , sanjaybhaskar.blogspot.com पर भी देख सकते हैं.
11 comments:
वाह क्या व्यंग्य किया है .........झा साहब
मजा आया पढ़कर। बधाई।
-----" अब तो बाजार भी बहुत बदल गया है. पहले सत्तु खोजा जब नहीं मिला तो कोल्ड-ड्रींक पी आया. लिट्टी-चोखा भी बाजार से गायब हो गया है .इसलिये मैंने फ़ास्ट फ़ूड पैक करवा लिया ." मक्के की रोटी---सरसो का साग और आलू चोखा---सत्तु लिट्टी जैसे विशुद्ध भारतीय खानों पर आजकल फ़ास्ट-फ़ूड और कोल्ड ड्रींक हावी है. यदि इस समय आप लंच या डीनर न कर रहे हों तो मैं उस फ़ास्ट फ़ूड का एफ़ेक्ट बताना चाहुंगा.
.....हमारी भारतीय संस्कृति के बदलते व्यावहारिक परिद्रश्य को आपने पारिवारिक माहौल के मार्फ़त बहुत ही सटीक ढंग से प्रस्तुत किया है .....सच में संस्कृति के नाम पर जिस तरह दोहरे मापदंड समाज में व्याप्त हैं वह बहुत सोचनीय और गहन चिंतनीय स्थिति है ....
वो व्यंग्य क्या जिसमे हास्य न हो
और वो हास्य क्या जो गंभीर न हो
मेरा तो यही मानना है अरविन्द जी कि हास्य व्यंग्य ही केवल अभिव्यक्ति का एक ऐसा माध्यम है जो मनोरंजन के साथ साथ व्यवस्था पर भी तीखी चोट करता है.
इस शानदार श्रृंखला के लिए हार्दिक बधाई.
bazar badal gaya hai aap bhee badal jaiye.
... shaandaar ... bahut khoob !!!
भाई ... आका ये व्यंग पढ़ कर तो बहुत मज़ा आ रहा है ....
hahaha...
bahut khub...
वाह वाह क्या व्यंग है बस लिखते जाओ। आशीर्वाद।
बहुत ही बढ़िया, शानदार और मज़ेदार व्यंग्य किया है आपने! मज़ा आ गया पढ़कर!
"दामादजी बिल्कुल सही कह रहे हैं "----- तब तक ससुरजी शोपिंग कर लौट आये थे------" आज मैंने महात्मा गांधी की तस्वीर खोजी.....नहीं मिली फ़िर चिर-यौवना मल्लिका शेरावतजी की तस्वीर ले आया. यह सोचकर कि किन हालातों में इस लङकी ने अपने वस्त्र का त्याग किया होगा ?"
हा-हा-हा.... यहाँ पर तो आपने उच्च कोटि का छोड़ा अरविन्द भाई !
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