Thursday, September 15, 2011

मेरी कविता.




शब्दों का ये जाल नहीं, मृदु-भाव मेरे हैं अंगूरी

रात की काली चादर पर दिखती है यह सिंदूरी.

अल्हङ सी नदिया के जैसी बहती है मेरी कविता.

फ़ूस के घर में रानी जैसी रहती है मेरी कविता.



पानी की रिम-झिम बूंदों से बात बहुत करती है

रहती है भूखे पेट भले , पर कभी नहीं मरती है

दिल के घर मन के बिस्तर सोती है मेरी कविता.

खुशियों के जोर ठहाकों में भी रोती है मेरी कविता.



सागर के खारे पानी में भी वह मय भर देती है

मरने वाले इंशानों को भी वह जिंदा कर देती है.

सन्नाटे में नाच - नाचकर गाती है मेरी कविता

टूटे दिल की गहराई तक जाती है मेरी कविता.