शब्दों का ये जाल नहीं, मृदु-भाव मेरे हैं अंगूरी
रात की काली चादर पर दिखती है यह सिंदूरी.
अल्हङ सी नदिया के जैसी बहती है मेरी कविता.
फ़ूस के घर में रानी जैसी रहती है मेरी कविता.
पानी की रिम-झिम बूंदों से बात बहुत करती है
रहती है भूखे पेट भले , पर कभी नहीं मरती है
दिल के घर मन के बिस्तर सोती है मेरी कविता.
खुशियों के जोर ठहाकों में भी रोती है मेरी कविता.
सागर के खारे पानी में भी वह मय भर देती है
मरने वाले इंशानों को भी वह जिंदा कर देती है.
सन्नाटे में नाच - नाचकर गाती है मेरी कविता
टूटे दिल की गहराई तक जाती है मेरी कविता.
9 comments:
मस्त कविता है मित्र.........
जब रात अंगूरी हो तो सुबह सिंदूरी होती है.........:)
बहुत अच्छी लगी यह कविता.... अरविन्द जी
अल्हङ सी नदिया के जैसी बहती है मेरी कविता.
क्या खूब कहा है…………दिल को छू गयी आपकी अभिव्यक्ति।
अच्छी प्रस्तुति ...
बेहतरीन प्रस्तुति ।
यह विश्वास अच्छा लगा।
आप सब को विजयदशमी पर्व शुभ एवं मंगलमय हो।
sundar!
sundar!
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