Thursday, September 15, 2011

मेरी कविता.




शब्दों का ये जाल नहीं, मृदु-भाव मेरे हैं अंगूरी

रात की काली चादर पर दिखती है यह सिंदूरी.

अल्हङ सी नदिया के जैसी बहती है मेरी कविता.

फ़ूस के घर में रानी जैसी रहती है मेरी कविता.



पानी की रिम-झिम बूंदों से बात बहुत करती है

रहती है भूखे पेट भले , पर कभी नहीं मरती है

दिल के घर मन के बिस्तर सोती है मेरी कविता.

खुशियों के जोर ठहाकों में भी रोती है मेरी कविता.



सागर के खारे पानी में भी वह मय भर देती है

मरने वाले इंशानों को भी वह जिंदा कर देती है.

सन्नाटे में नाच - नाचकर गाती है मेरी कविता

टूटे दिल की गहराई तक जाती है मेरी कविता.

9 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

मस्त कविता है मित्र.........
जब रात अंगूरी हो तो सुबह सिंदूरी होती है.........:)

संजय भास्‍कर said...

बहुत अच्छी लगी यह कविता.... अरविन्द जी

संजय भास्‍कर said...

अल्हङ सी नदिया के जैसी बहती है मेरी कविता.
क्या खूब कहा है…………दिल को छू गयी आपकी अभिव्यक्ति।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अच्छी प्रस्तुति ...

सदा said...

बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

यह विश्वास अच्छा लगा।

vijai Rajbali Mathur said...

आप सब को विजयदशमी पर्व शुभ एवं मंगलमय हो।

siddheshwar singh said...

sundar!

siddheshwar singh said...

sundar!