भाग-३
मां,हृदय मेरा अति सुक्ष्म-तुच्छ है.
कहां समेटूं ग्यान का सागर ?
होता क्यों यह चित्त अति चंचल?
क्यों न थमता यह कुछ पल भर?
थम गयी नयन की नीर-वृष्टि,
मैने पाय ममतामयी दृष्टि.
मां हुई प्रश्न से इतनी खुश,
छाया चेहरे पर इन्द्रधनुष।
रख धैर्य पुत्र यह संभव होगा.
ग्यान का अमृत तुम्हे मिलेगा.
हो विश्वास स्व और प्रभु पर,
फ़िर जग में क्या होत दुष्कर।
जीवन मे वसंत फ़िर आयी.
चारों ओर छायी हरियाली.
सुख का सागर जब देखा मैंने,
भूल गया क्या कहा था उसने।
हृदय से लिपटा अभिमान का चादर
भूल गया क्या होता ईश्वर.
सोचा, उसकी सत्ता मैं क्यों मानूं ,
जब सब कुछ होता अपने बल पर।
क्रमश:................,
3 comments:
हो विश्वास स्व और प्रभु पर,
फ़िर जग में क्या होत दुष्कर।
achi kavita.deevali ki subhkamna.pls continue.
arvindji likhte rahiye---bahut achi kavita hai.badhayee.
जीवन मे वसंत फ़िर आयी.
चारों ओर छायी हरियाली.
सुख का सागर जब देखा मैंने,
भूल गया क्या कहा था उसने।
अकसर यही होता हओ मानव के साथ । दुनिया की अन्धी दौड मी सारी सीखें भूल जाता है । अच्छी रचना है बधाई और शुभकामनायें
Post a Comment