अब ससुरजी के सिवा और कोई नहीं था जो मेरी समस्या हल कर दे..मैं उनके पास गया ,पर जाते ही बिना कुछ सुने कहने लगे----" दामादजी अभी तक चार वेद और अठारह पुराण लिखे गये हैं. मैं उन्नीसवां पुराण लिख रहा हूं....जिसका नाम है भ्रष्ट-पुराण. आपको शुरुआत की पंक्तियां सुनाता हूं.---
लिखत व्यास हो मुदित देख मुख भक्त भ्रष्टण के
हर्षित गावत हरि-लीला, हर-लोभी, हरे-रुपयण के
भ्रष्टाचार - विरोधी जन-जन के सकुशल दमन के
हृदय-भाव भांपत कवि महा-भारत के जन-गण के.
व्यास उवाच
स्वर्ग-भूमि से महर्षि नारद भारत भूमि जावत है.
देव दनुज और नर-नारि सबहिं को भ्रष्ट पावत हैं.
लोक-सभा के केंटिन में सस्ता रस्गुल्ला खावत हैं.
प्रभु के लिये वहां से मंहगी पेप्सी-कोला लावत हैं.
अर्थ और भूगोल विविधता देख स्वं में खोवत हैं
सुनकर कथा काले धन की फ़ूट-फ़ूटकर रोवत हैं.
खाली पेट पंद्रह - रुपये का पानी पीकर सोवत हैं.
नर किन्नर पशु पक्षी सभ के दुख-गठरी ढोवत है.
न सहत जात नारद से तब खोपङिया तनिक घुमावत हैं.
स्वर्ग - लोक में नारायण को फ़ोनहिं से हाल सुनावत हैं.
वोट लीला का मानचित्र तब हर्षित हो प्रभु को दिखावत हैं.
एक-एक कर काले धन का डाटा पलभर में ही लिखावत हैं.
सुनकर व्यथा भारत माता की स्वयं नारायण रो रहा था.
नरक की तरह अर्थ पर भी अर्थ का अनर्थ हो रहा था.
नारायण उवाच
तेरे दुख को देख रहा हूं स्वर्ग लोक से.
हे नारद, होकर सहज निष्कर्ष बताओ.
पता है गैस-सिलिन्डर मंहगा हुआ है.
कैसे हुआ मुद्रास्फ़िति का उत्कर्ष बताओ.
संसद भवन स्वर्ग-लोक से भी दिखता है.
निर्धन जन करते कितना संघर्ष बताओ.
बलात्कार और हत्या की बातें रहने दो.
हो कोई अच्छी खबर तो सहर्ष बताओ.
नारद उवाच
नारायण नारायण कुछ भी सहज नहीं है.
कीचङ का सागर फ़ैला पर जलज नहीं है.
कंस और रावण घर घर में बैठे दिखते हैं.
धृत-राष्ट्र को हस्तिनापुर की गरज नहीं है.
(प्रिय ब्लोगर बंधुओं, भ्रष्ट-पुराण की रचना अभी जारी है.पूरा होने पर इसे अलग से प्रकाशित किया जायेगा. इस संबंध में आप सब के सुझाव सादर आमंत्रित हैं. कृपया सुझाव टिप्पणी या मेल- अथवा फ़ोन न-९७५२४७५४८१ पर भेजें.साकारात्मक सुझाव भेजनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को मेरी स्वरचित काव्य---"मां ने कहा था" भेंटस्वरुप निःशुल्क भेजा जायेगा.) क्रमश:
6 comments:
sateek baten likh rahen hain aap .prabhu aap ki sahayta karen .hardik shubhkamnayen.
वाह! बहुत बढ़िया लगा अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा!
करीब १५ दिनों से अस्वस्थता के कारण ब्लॉगजगत से दूर हूँ
आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
like they way you said it all
सुनकर व्यथा भारत माता की स्वयं नारायण रो रहा था.
नरक की तरह अर्थ पर भी अर्थ का अनर्थ हो रहा था.
हम केवल महसूस कर सकते हैं अब तो शायद भगवान भी बेबस हैं।
बहुत बढ़िया लगा ! शानदार प्रस्तुती!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
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