आज है खाली नभ का आंगन
चांद बहुत भूखा लगता है.
आज फ़ूस की छत से छनकर
काला धुआं नहीं निकला है.
आज नहीं है चमकी आंखें
घर का चुल्हा नहीं जला है.
वे लेट गये हैं पानी पीकर
फ़िर क्यों चेहरा सूखा लगता है.
आज है खाली नभ का आंगन
चांद बहुत भूखा लगता है.
उसकी मां भी गले लगाकर
आज बहुत रोयी होगी.
आज भी गायी होगी लोरी
पर वह नहीं सोयी होगी.
घने बादल, शीतल पुरवाई
क्यों इतना रूखा लगता है
आज है खाली नभ का आंगन
चांद बहुत भूखा लगता है.
22 comments:
chaand ke aansu kaun samajhta hai....
भावुक कर देने वाली प्रस्तुति।
बहुत ही ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने! बढ़िया लगा!
दिल को छूती हुई रचना ... बहुत ही संवेदनशील रचना ....
ढल ही जाता है हर रंग सख्त ,
तो क्या गर अभी चोखा लगता है
अच्छी रचना.
bahut dino ke baad itni khubsurat rachna padhi hai.....
bahut khub...
आज फ़ूस की छत से छनकर
काला धुआं नहीं निकला है.
आज नहीं है चमकी आंखें
घर का चुल्हा नहीं जला है
आज है खाली नभ का आंगन
चांद बहुत भूखा लगता है.
...ये पंक्तियाँ तो इतनी शानदार बन पड़ी हैं कि तारीफ के लिए शब्द ही नहीं मिल रहे। दीन-हीन की पीड़ा कागज पर उतर आई है।
...बधाई।
... bahut khoob abhivyakti !!!
उसकी मां भी गले लगाकर
आज बहुत रोयी होगी.
आज भी गायी होगी लोरी
पर वह नहीं सोयी होगी.
Kya kahun?Dilme ek tees uth gayi..
"Bikhare Sitare" pe aapki shukrguzari ada kee hai...aapki tippanee yaad karte hue.."In sitaron se aage",is post pe...zaroor gaur farmayen!
वाह-वाह,बहुत बढिया-
आज तो कमाल कर दिया
अरविंद भाई-साधुवाद
खोली नम्बर 36......!
ताजगी भरी काव्य दृष्टि.
भावपूर्ण प्रस्तुति………।
भावमय गहरी अभिव्यक्ति। शुभकामनायें
बहुत खूबसूरती से भावों को पिरोया...उत्तम प्रस्तुति..बधाई.
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'शब्द सृजन की ओर' में 'साहित्य की अनुपम दीप शिखा : अमृता प्रीतम" (आज जन्म-तिथि पर)
लाजवाब प्रस्तुति...
मार्मिक और सुन्दर प्रस्तुति ...
बहुत ही ख़ूबसूरत रचना....संवेदनशील और भावपूर्ण प्रस्तुति...
उसकी मां भी गले लगाकर
आज बहुत रोयी होगी.
आज भी गायी होगी लोरी
पर वह नहीं सोयी होगी.
घने बादल, शीतल पुरवाई
क्यों इतना रूखा लगता है
आज है खाली नभ का आंगन
चांद बहुत भूखा लगता है.
very nice para in the poetory.
क्योकि भूख ऐसी है की हर किसी को हर तरफ अन्धंकार दिखायी देती हैं.
अच्छी रचना,
आप भी बहस का हिस्सा बनें और
कृपया अपने बहुमूल्य सुझावों और टिप्पणियों से हमारा मार्गदर्शन करें:-
अकेला या अकेली
जीवन की यथार्थ और आदर्शवाद के द्वन्द को रेखांकित करती एक ऐसी सार गर्भित रचना जो पाठक को अन्दर तक झकझोर देती है. संदेहपूर्ण रचना. शब्द, अर्थ सम्प्रेषण में पुर्णतः समर्थ .
जीवन की यथार्थ और आदर्शवाद के द्वन्द को रेखांकित करती एक ऐसी सार गर्भित रचना जो पाठक को अन्दर तक झकझोर देती है. संदेहपूर्ण रचना. शब्द, अर्थ सम्प्रेषण में पुर्णतः समर्थ .
आज फ़ूस की छत से छनकर
काला धुआं नहीं निकला है.
आज नहीं है चमकी आंखें
घर का चुल्हा नहीं जला
ओह बहुत मार्मिक चित्रण ...अच्छी भावाभिव्यक्ति
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