Tuesday, July 6, 2010

कोठा (भाग-तीन)----जिस्म और जमीर

आज एक वर्दीवाला पुलिस शराब पीकर कोठे पर पहुंचा. जाते ही नोटों कि गड्डी पुतलीबाई के हाथों में पकङा दिया.कहने लगा--"मुझे सबसे खूबसूरत जिस्म चाहिये". "जानती हूं कीमत को देखते ही समझ गयी थी.अच्छा पीस नहीं दिया तो जेल के अन्दर भी डाल सकते हो.पुलिस वाले हो ना..."----कहते हुए पुतलीबाई हंसने लगी. कुछ देर के बाद वह किसी कमरे से बाहर निकला और पुतलीबाई के पास आकर बोला--"बहुत सही सौदा करती हो तुम".
पुतलीबाई कहने लगी---"साहब हमारा सौदा इसलिये सही होता है क्योंकि हम सिर्फ़ अपना जिस्म बेचते हैं ईमान नहीं".वह कुछ सोचने लगी फ़िर बोली---".....और आप जिस्म के लिये अपना जमीर बेच देते है. हमारा जिस्म घायल होता है और आपके जमीर के टुकङे होते हैं. हम वजन के दर से जिस्म का सही कीमत वसुलते हैं पर आप जमीर की कीमत जानते ही नहीं.क्योंकि आपको जमीर का वजन ही नहीं पता. इसलिये चंद रुपयों में ही बेच दिया करते हैं.
.................फ़िर अंत में हमारा जिस्म मर जाता है और आपका भी.पर आपके पास तब कुछ नहीं बचता, आपका जमीर तो पहले ही मर चुका था.........".वह पुलिसवाला बहुत पहले वहां से जा चुका था.पुतलीबाई स्वयं से बात कर रही थी.

5 comments:

सूर्यकान्त गुप्ता said...

"साहब हमारा सौदा इसलिये सही होता है क्योंकि हम सिर्फ़ अपना जिस्म बेचते हैं ईमान नहीं". एकदम खरी बात। बढ़िया लेखन।

आचार्य उदय said...

सुन्दर भाव।

kshama said...

Aah..pata nahi kitne log zameer ko zinda rakhte hain?
Aapki shaili gazab hai..!

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

Nice

karari chot

soni garg goyal said...

खरी और सच्ची बात .............