Wednesday, June 30, 2010

चश्मदीद मैं भी हूं.

राक्षस बाप के हाथों
लक्ष्मी बिटिया के गर्दन कटने का,
राखी पहनानेवाली हाथों को
भरोसे की अंगुली पकङाकर
कोठे तक पहुंचाने का
चश्मदीद मैं भी हूं.

मजहब की आग में
गाजर-मूली की तरह
इंसानों के कटने का,
मासूमों पर बोझ डालकर
फ़ंदों तक पहुंचाने का
चश्मदीद मैं भी हूं.

कुर्सी के खेल में
दंगा करवाने का,
न्याय के मंदिर में
अन्याय को जन्माने का
चश्मदीद मैं भी हूं.

तुम्हारी रगों में बहनेवाला
खून जम गया था
फ़्रीज में रखे पानी की तरह.
मेरा भी वही हाल था
क्योंकि
चश्मदीद मैं भी हूं.

वे तो पापी हैं.
जुर्म तुम्हारा भी कम नहीं
मुझे भी उतनी ही सजा मिलेगी
क्योंकि अन्याय का
चश्मदीद मैं भी हूं.

11 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत भावमयी रचना.....

आचार्य उदय said...

सुन्दर लेखन।

vandana gupta said...

बेहद उम्दा रचना…………झकझोरती है।

कडुवासच said...

...बेहतरीन !!!

36solutions said...

यह कड़आ सच है भाई.

धन्‍यवाद.

Udan Tashtari said...

बहुत सटीक बयानी...

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

अच्छी पोस्ट

आपके ब्लाग की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर

सूर्यकान्त गुप्ता said...

आज के बिगड़ते हालात का चश्मदीद मैं भी हूं। लाजवाब! बधाई।

Sadhana Vaid said...

बहुत खूब ! मन की पीड़ा को पूरी इमानदारी से बयान किया है आपने ! बधाई !

नीरज गोस्वामी said...

आपकी रचना ने हिला के रख दिया है...सोचने पर मजबूर किया है...
नीरज

vandana gupta said...

बहुत ही सुन्दर भावनायें………………सच कहा है हम सब भी उतने ही शामिल हैं।