सदियों से जो दलित बनकर
पैर को तेरे पखारा
तेरी जय में भी पराजित
तेरी हारों में भी हारा
आज उसके पग धरो रे
पंक को निर्मल करो रे.
फ़ूलों की भेंट हुई पुरी
नीरजों की हो चुकी पूजा.
अशक्त हैं कुछ अस्थियां
उन तन्तुओं में बल भरो रे
पंक को निर्मल करो रे.
भर चुके आंखों की प्याली
सुख दुखों के ही अमिय से
कुछ कटोरे रिक्त हैं जो
उनमे भी तुम जल भरो रे
पंक को निर्मल करो रे.
हुई अर्चना मां लक्ष्मी की
सरस्वती की वंदना भी
बिक रही बाजार बनकर
शीष उनपे नत करो रे
पंक को निर्मल करो रे.
5 comments:
अरविन्द जी,बहुत सुन्दर व भावपूर्ण रचना है। बधाई स्वीकारें।
....bahut sundar !!!
कइसे लिख लेते हैं जी आप इतना अच्छा?
हमें भी बताईए, सिखाईए।
ई टोपी वाला फ़ोटु बहतै सुंदर है
एकदमे करमचंद जासूस जईसे।
भीम पुत्र घटोत्कच
हुई अर्चना मां लक्ष्मी की
सरस्वती की वंदना भी
बिक रही बाजार बनकर
शीष उनपे नत करो रे
पंक को निर्मल करो रे ..
अनुपम रचना ... दिल को छू गयी ...
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
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