मैं अल्हड सी मदमस्त हुई
अपने यौवन पर इतराती,
अपनी धारा के संग खेल
हंसती जाती-गाती जाती।
न लोभ मुझे न क्षोभ मुझे
जग है क्या? जानूं अर्थ नही,
आगे बढना ही आदत है
रुकने का कोई तर्क नही।
वह देखो झांक रहा सूरज
पीपल की ओझल टहनी से,
मादक किरणों की धार लिये
मेरे यौवन की गहराई
माप रहा वह चुपके से,
मैं मंद-मंद हूं मुस्काती.
मैं अल्हड सी मदमस्त हुई
अपने यौवन पर इतराती.
2 comments:
मैं मंद-मंद हूं मुस्काती.
मैं अल्हड सी मदमस्त हुई
अपने यौवन पर इतराती.
बहुत सुन्दर कविता है आपका स्वागत है अच्छा लिखते हैं बधाई और शुभकामनायें
अरविंद जी ...बहुत सुंदर रचना...सरिता को परिभाषित करते हुई ..लिखते रहें..आपसे संवाद करके अच्छा लगा....
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