Monday, March 7, 2011

बीत मैं खुद ही रहा हूं.



काल को क्यों दोष दूं ?

बीत मैं खुद ही रहा हूं.



खंडों में बांटूं तो देखूं

काल यौवन के प्रवाह को.

जीवन के वे निशा-रात्रि

व्यथा के सागर अथाह को.

एक सी वह स्यामल काया

प्रीत मैं खुद ही रहा हूं.



गर काल के आकार होते

तो अतीत में वे न घुलते.

होते दृढ उसके चरण तो

निकट क्षण से वे न मिलते.

जन्म-मृत्यु के क्षणिक पथ का

रीत मैं खुद ही रहा हूं...

8 comments:

kshama said...

गर काल के आकार होते

तो अतीत में वे न घुलते.
Kya baat kahee hai!

Shekhar Suman said...

बहुत खूब लिखा है आपने..... :)

क्या आप भी अपने आपको इन नेताओं से बेहतर समझते हैं ???

vijai Rajbali Mathur said...

संक्षेप में गहरी बातें कह दीं हैं.

दिगम्बर नासवा said...

बहुत ही गहरी बात कर दी है ...

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर गहन अभिव्यक्ति..

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर गहन अभिव्यक्ति..

अनामिका की सदायें ...... said...

socho to bahut kuchh hai...bahut gahri soch.

संजय भास्‍कर said...

गहन अभिव्यक्ति..