जब भी करता हूं प्रेमालिंगन
राज खोलती प्रकृति-प्रियतमा.
अपनी कानों से सुनता हूं
बात बोलती प्रकृति-प्रियतमा.
उसके यौवन को तो देखो
अल्हङ नदिया सी बहती है.
चांद समेट सौन्दर्य-पीयुश
कामुक दृष्टि-वाण सहती है.
जब भी करता हूं मैं ईशारा
तभी डोलती प्रकृति-प्रियतमा.
है ज्ञात नहीं उसकी ताकत
हजार भुजाएं फ़ैली है.
उसके रंग-रुप अपने हैं
चाल चलन अपनी शैली है.
प्रति-पल प्रेयस के प्रणय का
भाव मोलती प्रकृति-प्रियतमा.
जब भी करता हूं प्रेमालिंगन
राज खोलती प्रकृति-प्रियतमा.
9 comments:
Wednesday, March 9, 2011
प्रकृति-प्रियतमा
जब भी करता हूं प्रेमालिंगन
राज खोलती प्रकृति-प्रियतमा.
अपनी कानों से सुनता हूं
बात बोलती प्रकृति-प्रियतमा.
उसके यौवन को तो देखो
अल्हङ नदिया सी बहती है.
चांद समेट सौन्दर्य-पीयुश
कामुक दृष्टि-वाण सहती है.
जब भी करता हूं मैं ईशारा
तभी डोलती प्रकृति-प्रियतमा.
है ज्ञात नहीं उसकी ताकत
हजार भुजाएं फ़ैली है.
उसके रंग-रुप अपने हैं
चाल चलन अपनी शैली है.
प्रति-पल प्रेयस के प्रणय का
भाव मोलती प्रकृति-प्रियतमा.
वाह! बहुत सुंदर भाव हैं मित्र कविता के
आभार
वाह...गज़ब की रचना....
बधाई....
गहरा राज है, भ्रम होता है खुलने का बस.
वाह! बहुत सुंदर
धन्यवाद|
है ज्ञात नहीं उसकी ताकत
हजार भुजाएं फ़ैली है.
उसके रंग-रुप अपने हैं
चाल चलन अपनी शैली है....
सच है ये प्रकृति एक प्रेमिका ही तो है ... मायावी ... अध्बुध ...
अच्छे भावों को समेटे सुंदर रचना।
बहुत खूब लिखा है लाजवाब. सुंदर बिम्ब प्रयोग.
कई दिनों व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..
bahut sundar
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