Tuesday, February 9, 2010

पत्थर की देवी

विश्वास.........,
आस्था..........,
श्रद्धा.............,
कितने झूठे शब्द,
पैदा किये हैं तुमने.

पाखंडियों के हाथों से
रिश्वत खाकर,
कितने गुनाहगारों को,
माफ़ किये हैं तुमने.
कितने निरपराधों की,
बलि दी है तुमने.
कितनी अभागिनों ने
सिर पटका है,
तुम्हारे चरणों पर.
कितने सपूतों ने
न्याय की देवी कहकर,
दया मांगी है तुमसे.
क्यों नहीं पिघली तुम ?
तुम्हारी आंखों से,
रक्त क्यों नहीं टपके ?

दया की भीख के बदले,
तुमने ही बलि दे दी,
विश्वास.........,
आस्था..........,
और श्रद्धा की.
क्योंकि
तुम देवी नही,
सिर्फ़ पत्थर हो,
सिर्फ़ पत्थर...............

7 comments:

निर्मला कपिला said...

मन का आक्रोश साफ झलक रहा है कविता अच्छी लगी। धन्यवाद शुभकामनायें

कडुवासच said...

...ये सोचने पर मजबूर होना पड रहा है कि किन हालात मे ये भाव जन्मे होंगे!!!!

रानीविशाल said...

Krantikari vicharo wali rachana !!
Aabhar
http://kavyamanjusha.blogspot.com/

रंजना said...

Devi ko patthar ka bana uske aankhon par patti insaan ne hi to lagayi hai...Devi to swayan bandini hai manushyon ke dwara..

arvind said...

devi maa vandini hai tabhi to usake patthar ki murty ke saamne manushya chillataa hai.--apna aakrosh jatata hai.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

न्याय की देवी को पत्थर बनाने वाले भी हम ही हैं.

संजय भास्‍कर said...

सोचने पर मजबूर होना पड रहा है