Thursday, February 25, 2010

खेल

रुद्रप्रताप क्लब स्तर के क्रिकेट वन डे श्रृंखला का मेन ओफ़ दि सिरीज चुना गया.घर पहुंचा तो थाल सजाकर आरती उतारी गयी.कप को टेबुल पर सजाया गया.यादगार बल्ला स्टैंड के सहारे खडी कर दी गयी.तस्वीरें दीवार से चिपका दी गयी.घर के सारे लोग एक साथ बैठकर जश्न मना रहे थे.तभी बडा भाई रविप्रताप अन्य दिनों की तरह चुपचाप घर मे घुसा और अपने निजी कक्ष मे चला गया.अन्दर से दरबाजा बन्द कर दिया और अपनी एक तस्वीर छिपाकर चुपचाप अपनी एक एलबम मे लगा दी.फ़िर जेब से एक पदक निकाला.एशियाड के बेस्ट एथलीट का यह मेडल उसने अपने सीने से सटाकर आंखें बंद कर ली.

Monday, February 22, 2010

भ्रष्टतंत्र का बाबू साहेब

एक छोटी सी भूल भी आपकी नौकरी खा सकती है.विजिलेंस विभाग आज के समय में इतनी सशक्त हो गयी है कि बडे से बडे गुनहगारों को भी अभयदान दे सकती है और मानवीय गलतियों के लिये भी नौकरी से निकाल सकती है. यह बात छोटे-मोटे बाबू लोग विल्कुल नही समझते.कुछ दिनों पहले रोज की तरह बाबू टिकट काट रहा था. लोग पंक्ति मे खडे थे.तभी अचानक तीन लोग एक दुसरे के समानान्तर खडे होकर टिकट मांगने लगे. बाबू नें पहले तो एक-एक कर टिकट लेने को कहा फ़िर आग्रह करने पर तीनों से पैसे लेकर एक साथ टिकट देने को तैयार हो गया.अभी बाबू नें एक ही टिकट काटा था कि विजिलेंस का छापा पड गया.विजिलेंस ने पाया कि बाबू के पास टिकट के हिसाब से ज्यादा रुपये थे.प्राथमिकी दर्ज की गयी.जांच के दौरान बाबू अपने आप को निर्दोष साबित नहीं कर पाया.न ही किसी की सिफ़ारिश ली और न ही युनियन के नेताओं को बचाव हेतु मध्यस्थ बनाया.मामले की गंभीरता को देखते हुए बाबू को नौकरी से हटा दिया गया.

यदि वह नौकरी के दौरान भ्रष्ट रहा होता तो कुछ दिन घर पर बठकर भी रोटी-मक्खन खा सकता था,लेकिन ईमानदारी की कमाई मे बरकत कहां होती.......जो उसे घर बैठे रोटी मिल पाता.उसे एक विजिलेंस अधिकारी नें बताया था कि उनके उपर भी कुछ मामले निश्चित रुप से बनाते रहने का दबाब रहता है.काफ़ी मशक्कत करने के बाद विभाग नें उसे पदावनति कर नौकरी वापस कर दी.

बाबू ने नौकरी की दुसरी पारी काफ़ी शानदार ढंग से शुरु किया.वह बाबू से बाबू साहेब बन गये.कुछ ही दिनों में बाबू साहेब युनियन का नेता बन गया.विजिलेंस के साथ उनके संबंध मधुर हो गये.विभाग के सभी कर्मचारी और अधिकारी उससे प्रसन्न रहने लगे और कभी दो वक्त की रोटी के लिये तरसनेवाला अब निश्चिंत रहने लगा कि दो पुस्त तक यदि उसके घर में किसी को नौकरी न भी मिले तो भी वह आराम से रोटी और मक्खन खा सकता है.कुछ दिनों के बाद विजिलेंस सप्ताह मनाया गया.बाबू साहेब नें भी अपना भाषण पेश किया. उसने सभी विभागों के क्रिया-कलापों की भूरि-भूरि प्रशंसा की और विभाग के प्रति लोगों की निष्ठा औए ईमानदारी की सराहना की.साथ ही साथ उसनें राष्ट्र के प्रगति में सभी लोगों के योगदान की चर्चा करते हुए विभिन्न उपलब्धियों हेतु बधाई दी.तालियों की गडगडाहट के बीच बाबू साहेब मंच से नीचे उतरकर सीधे अपने कार्यालय आ गये.पहले रिवोल्विंग कुर्सी को बांये हाथ से नचाया फ़िर उसे रोककर उसपर आराम से बैठ गये.

तभी एक आदमी मिलने आया.बात ही बात मे वह कहने लगा "बाबू साहेब ,प्रजातंत्र मे तो सबको अपनी बात कहने का हक है".अचानक पहले की कुछ बातें बाबू साहेब को याद आ गयी.बाबू साहेब कहने लगे----------"किताबी बातें मत करो.......प्रजातंत्र...? कौन सा प्रजातंत्र..? कैसा प्रजातंत्र....? हमारे देश मे तो भ्रष्टतंत्र चलता है.भ्रष्टों के द्वारा, भ्रष्टों के लिये और भ्रष्टों पर किया गया शासन भ्रष्टतंत्र.. सदाचार की जगह कदाचार, निष्ठा की जगह दलाली, शासन के बदले जुर्म, देश-भक्ति के बदले धोखा----यही हैं इस भ्रष्टतंत्र के गुण.इस तंत्र मे खाने-पीने का सामान मंहगा बिकता है, वोट ,न्याय, और भावनायें सस्ते मे बिक जाती है. इस तंत्र मे भ्रष्ट लोग महलों में रहते हैं, बांकी लोग झोपडी के कुत्ते (स्लमडाग) कहलाते हैं.इस तंत्र मे छिनकर खानेवालों को पांच सितारा होटल में ठहराया जाता है और मांगकर जिंदगी बितानेवालों को रेलवे प्लेटफ़ोर्म से भी खदेड दिया जाता है. इस तंत्र मे निर्लज्ज भ्रष्ट लोग चौराहे पर औरत के जिस्म की खरीददारी करते हैं और छे्डखानी के शिकार औरतें पुलिस और अदालत के लोगों के द्वारा न्याय के बदले अपना ईज्जत बांटनें के लिये विवश हो जाती हैं. इस तंत्र में ईमानदार बुकिंग क्लर्क बाबू कहलाता है और भ्रष्ट टिकट क्लर्क बाबू साहेब."

Sunday, February 21, 2010

"कशिश"-श्री अरविंद मेश्राम की शायरी

कभी मौसम सुहाना हो,घटा सावन की छा जाये,
कभी जब शाम तन्हा हो, तुम्हारी याद आ जाये.
कभी हम साथ चलते हों , अकेले सूनी राहों में,
चांद बादल से निकले , तेरी बाहों मे आ जाये.
कभी मौसम ..............

कभी बादे सबा आये इधर जुल्फ़ें तेरी छूकर,
कभी खुशबू उडे हरसू,सरे गुलसन पे छा जाये.
कभी मौसम ...............

सभी ये सोचते हैं , मैं हमेशा मुस्कुराता हूं,
मैं डरता हूं कोई आंसू मेरे पहचान न जाये.
कभी मौसम ............

वो सब कुछ जानता है पर कभी मिलने नही आता,
मेरे दिल को कहीं न भूल से , आराम आ जाये.
कभी मौसम ...............

कितना मुद्दत से रुठे हैं,ख्वाब मेरी निगाहों से,
ना आये मौत मुझको तो, थोडी नींद आ जाये.
कभी मौसम ..............

वो मुझको माफ़ कर देगा, तो थोडा और जी लेंगे,
न हो मुमकिन तो मेरी मौत का पैगाम आ जाये.
कभी मौसम ..............

महकते फ़ूल बन जायेंगे , जो अबके फ़ना होंगे,
अपने जूडे मे सजा लेना,जो हमारी याद आ जाये.
कभी मौसम ..............

रचनाकार:-
अरविंद मेश्राम
उप मुख्य सामग्री प्रबंधक
दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे.
बिलासपुर, छ.ग.

Thursday, February 18, 2010

स्वर्ग की यात्रा-टिकट

आखिर स्वर्ग किसे अच्छी नहीं लगेगी.स्वर्ग तो आखिर स्वर्ग ही है तभी तो लोग उसे स्वर्ग कहते हैं.स्वर्ग जाने के लिये बडे से बडे अपराधी भी कुछ न कुछ पुण्य का काम कर ही लेता है.मिला-जुलाकर सभी स्वर्ग की चाहत रखते हैं.......लेकिन स्वर्गानन्दजी की बात अलग थी.वह सभी इच्छुक लोगों को मुफ़्त स्वर्ग का टिकट देना चाहते थे,वैसे ही जैसे कभी-कभी रेलवे और दिल्ली की सीएन्जी बसें टिकट तो गण्तब्य की देते हैं लेकिन लोग मुफ़्त में स्वर्ग तक पहुंच जाते हैं.इस मामले मे बाबा स्वर्गानन्दजी अधिक उदार थे .स्वर्ग की यात्रा टिकट जारी करने का लाइसेंस तो आखिर भगवान ही दे सकते थे और आज के प्रोफ़ेसनल युग में बाबा के लिये कोई भी लाइसेंस लेना बांये हाथ का खेल था.घूस देना,मिठाई खिलाना,शराब पिलाना,कमीशन बांटना,चापलुसी करना आदि कई हथियारों का सफ़ल प्र्योग करने में उन्हें महारत हासिल था,लेकिन पहली बार उन्होनें भगवान को पटाने की कोशिस की और उनके सारे हथियार विफ़ल हो गये. आज के भ्रष्ट युग, क्षमा करें प्रोफ़ेसनल युग में जब मां भी बच्चों को डिब्बे मे बंद मिलावटी दुध ही पिलाती है,भगवान की ईमानदारी और न्याय करने की निष्ठा देखकर बाबा व्यथित हो गये.भगवान ने साफ़ संकेत दे दिया कि साधना और तपस्या के बिना लाइसेंस प्रदान नहीं किया जा सकता.कठोर साधना के बाद अचानक भगवान प्रगट हुए और बाबा स्वर्गानन्द जी की मनोकामना पुरी कर दी.मुफ़्त मे वाहन भी दिया गया,जिसपर बैठकर कोई भी स्वर्ग की यात्रा कर सकता था.

अब तो सिर्फ़ यात्रियों की जरुरत थी.बाबा सोच रहे थे कि सभी लोग कष्ट में ही जीवन बिता रहे है ऐसे में कौन स्वर्ग नहीं जाना चाहेगा.गरीब किसान, मजदूर,बूढे लोग,बेरोजगार नौजवान, पति और सास से पडेशान महिलायें--- सभी स्वर्ग जाना चाहेंगे.आखिर उन्हें दुख से मुक्ति जो मिलेगी.बाबा ने सबसे पहले एक गरीब किसान से स्वर्ग चलने को कहा.उसने जबाब दिया-"बाबा, अभी-अभी तो मैनें शादी किया है.एक बार एक बच्चे का बाप बन जाऊं उसके बाद चलुंगा.आप बुढे लोगों से क्यों नहीं कहते?" फ़िर उन्होंने एक वृद्ध से पुछा "दादा स्वर्ग चलेंगे?" वृद्ध ने जबाव दिया-" बेटे,यदि मैं स्वर्ग चला गया तो मेरे पोते-पोती को स्वर्ग कौन पहुंचायेगा? तुम नेतओं को स्वर्ग पहुंचाओ.उन्होंने तो सुख-भोग भी कर लिया है और किसी को उनकी जरुरत भी नही है." सलाह मानकर बाबा ने एक नेता से स्वर्ग चलने को कहा.नेताजी भी नहीं माने--"दो साल बाद चुनाव होना है.एक बार मंत्री बन जाने दो,फ़िर वादा करता हूं जहां कहोगे चलुंगा" बाबा समझ गये यह नेताजी के वायदे थे. नेताजी ने फ़िर कहा "तुम किसी पुलिसवाले को क्यों नहीं कहते ,वह तो वैसे भी नक्सलियों के गोली के शिकार होते रहते हैं".सो बाबा ने पुलिसवाले से भी बात की.पुलिस ने कहा " बाबा, पब्लिक की सुरक्षा के नाम पर आजकल अच्छी कमाई हो रही है.मेरे लिये तो हमारा देश ही स्वर्ग है.आप मीडियावाले से बात कीजिये वे समाचारों के लिये मुफ़्त मे भटकते रहते हैं.फ़िर बाबा स्वर्गानन्दजी नें एक पत्रकार से संपर्क किया.उनका जबाब था "हम यदि स्वर्ग चले गये तो दुनियां को खबर कौन देगा? फ़िर तो चन्द लोग सारी दुनियां को उल्लु बनाते रहेंगे.........और हमारी औकात आप नेता और पुलिस से कम मत आंकिये.हम कभी भी सच को झूठ और झूठ को सच बना सकते हैं.आजकल लेखकों और कवियों की हालत अच्छी नहीं है,उनकी किताबें कोई नहीं पढता".फ़िर लेखकों और कवियों सि भी पुछा गया. उनका जबाब था-"हमारे लिये नरक की कल्पना स्वर्ग के यथार्थ से अधिक प्रिय है बंधु."

सभी ओर से नाकारात्मक जबाब सुनकर बाबा व्यथित हो गये. उनका श्रम बेकार जा रहा था. उन्होंने इर से भगवान का आवाहन किया.भगवान बोले " वत्स कोई नही जाना चाहता तो तुम्ही चलो.बाबा बोले "नहीं प्रभु, मैं तो कदापि नहीं जाउंगा. एक मैं ही तो संसार का स्वरुप बदल सकता हूं."भगवान बोले-"वत्स मैं जानता था.स्वर्ग की यात्रा कोई नहीं करना चाहता. लोग गलत सोचते हैं कि संसार मे दुख ही दुख है.सच तो यह है कि संसार मे सुख ही सुख है.तभी तो मरने के बाद भी जब लोग स्वर्ग पहुंचते हैं पुनर्जन्म लेकर फ़िर से धरती पर आ जाते हैं.".

रचनाकार-
सोलोमन मार्टिन
सहायक सामग्री प्रबंधक
द.पु.म.रेल्वे,बिलासपुर.
छत्तीसगढ.

Wednesday, February 10, 2010

कैद

पुलिस अधीक्षक का आदेश था.पुलिस और सरकारी तंत्रों को कलम के जरिये भ्रष्ट कहनेवाले आरोपी को हथकडी पहना दी गयी थी.सवाल मानहानि का था.थानेदार यह जानते हुए भी कि आरोपी बेकसूर है कुछ नही कर सकता था.आरोपी को मुजरिमों की कोठरी मे डाल दिया गया.वह एक पतली सी डायरी निकालकर लिखने लगा -"इन चाहर-दिवारी के बीच मेरे शरीर को कैद कर दिया गया है,लेकिन मैं निडर होकर सच चाहे जैसा भी हो,लिखुंगा.मेरे विचार अभी भी आजाद हैं....... और वह थानेदार आजादी की सांस ले रहा है.उसे आत्म-ग्लानि हो रही है. वह डरा हुआ है और गलती करने के लिये बाध्य है.वह आजाद है लेकिन उसके विचारों को कैद कर दिया गया है.पता नही कैदी मैं हूं या वह थानेदार.

Tuesday, February 9, 2010

पत्थर की देवी

विश्वास.........,
आस्था..........,
श्रद्धा.............,
कितने झूठे शब्द,
पैदा किये हैं तुमने.

पाखंडियों के हाथों से
रिश्वत खाकर,
कितने गुनाहगारों को,
माफ़ किये हैं तुमने.
कितने निरपराधों की,
बलि दी है तुमने.
कितनी अभागिनों ने
सिर पटका है,
तुम्हारे चरणों पर.
कितने सपूतों ने
न्याय की देवी कहकर,
दया मांगी है तुमसे.
क्यों नहीं पिघली तुम ?
तुम्हारी आंखों से,
रक्त क्यों नहीं टपके ?

दया की भीख के बदले,
तुमने ही बलि दे दी,
विश्वास.........,
आस्था..........,
और श्रद्धा की.
क्योंकि
तुम देवी नही,
सिर्फ़ पत्थर हो,
सिर्फ़ पत्थर...............

Friday, February 5, 2010

भूख

"साहब, दो दिनों से घर में खाने को दाना नही है. कोई काम दे दो साहब." रामदीन साहब के सामने गिरगिरा रहा था. साहब ने कुत्ते को पुचकारते हुए जबाब दिया "एक सप्ताह और रुक जाओ, फ़िर मैं तुम्हे जरुर काम दूंगा.".रामदीन फ़िर आग्रह करने लगा " नहीं, साहब तब तक तो हम भूखे मर जायेंगे." तभी साहब ने आलमारी खोलकर उसमे से एक पांव-रोटी का पैकेट निकाला और कुत्ते की ओर फ़ेंक दिया.कुत्ता झपट्टा मारते हुए बडे चाव से पाव-रोटी खाने लगा. साहब ने कुत्ते के उपर हाथ फ़ेरते हुए मुस्कुरा कर कहा " मेरा पप्पी दो घंटे से भूखा था."रामदीन दबे पांव साहब के घर से वापस चला गया.

Wednesday, February 3, 2010

दिवा-स्वप्न

रात मे तो सभी सोते हैं क्योंकि रात सोने के लिये ही होता है.जब सोते हैं तो सपने देखना स्वाभाविक ही है.नेताओं को रात के सपने में कुर्सियां दिखाई देती है, चोरों को खजाना.पुलिस जो पुरे-दिन निर्दोषों को पडेशान करती है और मुजरिमों के पीछे दौडती है,रात के सपने मे उसी मुजरिम को सलाखों मे डालती है.ईमानदार सरकारी बाबू सपने मे महगाई भत्ता बढता हुआ देखता है तो मेरे जैसे आलसी नौकरीवालों को रात के सपने मे फ़ुरसत ही फ़ुरसत दिखाई देता है. कल एक ज्योतिषी जी बता रहे थे जब से उन्हें टी.वी. न्यूज चैनल पर बुलाया गया है तब से सपने में सूर्य-ग्रहण दिखाई देने लगा है.. स्वयं ही ज्योतिष हैं सो फ़लादेश जानकर चिंतित हैं.कुछ दिन पहले मेरे एक मीडियावाले मित्र कह रहे थे "यार, आजकल सपने मे ऎसे वारदात आने लगे हैं जो दिल और दिमाग मे सनसनी पैदा कर देते हैं.लेकिन आदमी मजबूर है,क्या करे, सोयेगा तो सपने तो आयेंगे ही.वैसे मेरी मुश्किलें अलग हैं.आजकल रात को नींद नहीं आती,सो सपने भी नहीं देखता.सोना आदमी के लिये जरूरी है इसलिये दिन में ही सोने का काम पूरा कर लेता हूं.एक तो सूचना-प्रोद्योगिकी की मेहरबानी है कि काम कम हो गया है भय के कारण सीनियरों को नींद मे खलल डालने मे संकोच होता है.उपर से रिक्त पदों के कारण कई कुर्सियां खाली रहती है जिन्हें जोडकर आसानी से सोने के लिये छह फ़ीट का बेड तैयार हो जाता है. कार्यालय के छह फ़िट्टा बेड पर प्रतिदिन छह घंटे सोने का मजा ही अलग है.इससे कार्यालय में शांति-व्यवस्था बनी रहती है.कनिष्ठजनों के साथ किसी तरह के दुर्व्यवहार के पाप से बचाव होता है और सीनियरों के अत्याचार का सामना करने से मुक्ति मिलती है.वातानुकुलित कक्ष में सोने से प्रदुषण से भी छुटकारा मिलता है और कर्मठता भले ही संदिग्ध हो जाये लेकिन योग्यता पर वरिष्ठजनों का औचित्य से अधिक विश्वास बना रहता है.
पहले जब बहुत काम करता था,मेरी गलतियों से सभी परेशान रहते थे.काम करने के बाद पुरस्कार स्वरूप गलतियों के लिये प्रमाण-पत्र के रुप मे चार्ज-शीट थमा दिये जाते थे.सबेरे ताजे सेब की तरह कार्यालय जाता था और शाम को सूखे संतरे की तरह घर आता था.बहुत परेशान रहता था. तभी एक दिन मेरे ही विभाग की दूसरे कार्यालय मे काम करनेवाली एक महिला किसी कम से कार्यालय आयी. वह अच्छी तरह से सज-संवरकर आयी थी.मैं उन्हे देखकर चकित रह गया.वह देखने मे साधारण थी लेकिन चेहरे का मेक-अप उत्कृष्ट था. वह आते ही खाली कुर्सी पर निश्चिंत होकर बैठ गयी औए अपने पर्स से एक छोटा सा आईना निकालकर अपने चेहरे को देखने लगी.फ़िर मुझे टोका "महाशय, टेंशन मे लग रहे हो?" फ़िर जोरदार ठहाका मारते हुए कहा"रेलवे मे लोगे टेंशन तो वाइफ़ उठायेगी पेंशन".उस महिला के उत्कृष्ट व्यंग्य को महान सलाह मानकर उस दिन मैंने अपनी सारी चिंताये राम-भरोसे(मेरे कार्यालय का चपरासी) छोड दिया.राम भरोसे ने भी मेरे भरोसे को कायम रखा और मुझे चिंता मुक्त कर दिया.
चिंता से तो मैं मुक्त हो गया लेकिन.........अब भी डर बना रहता है.जब दिन मे सोता हूं काफ़ी डरावने सपने आते हैं.वैसे यह दिवास्वप्न लगता है जैसे हकीकत हो,लेकिन फ़िर भी भयानक ही होता है..किसी दिन सपने मे वकील सारी कमाई चूस लेता है तो कभी निर्दोष होते हुए भी बेरहम पुलिस भद्दी गालियों के साथ्लाठियों से स्वागत करता है. कभी अपने दो वक्त की रोटी का टुकडा अपना ही नेता हडप कर जाता है तो कभी चंद रुपयों मे बिककर चैनलवाले नंगा कर देते हैं.किसी दिन दूधवाला थोडी सी शुद्ध दूध मे पानी औएर केमिकल-जहर मिलाकर दे जाता है तो किसी दिन शराब पीकर अपना पडोसी मेरे पुरे खनदान को गाली देने लगता है.कभी कोई दलाल चुप-चाप मेरे पुस्तैनी जमीन को बेच देता है तो कभी कोई ठेकेदार मुझ जैसे गरीब के घर को उजारने का ठेका ले लेता है.किसी दिन जब पेट की भूख बैचेन कर देती है तो आज के लेखक हंसाने के लिये व्यंग्य करते हैं और कवि खुबसूरत कविता बनाकर लोडी सुनाते हैं. किसी दिन बेखौफ़ अपराधी आंखों के सामने चौराहे पर किसी औरत की ईज्जत लूटता है तो किसी दिन बडे ओहदेवाला आदमी किसी नाबालिग..........ओह.....,.
लेकिन यह मेरी शिकायत नहीं है.किससे शिकायत की जाये. न्याय की देवी भी आजकल मेरी तरह अपने कार्यालय मे सोती रहती है और दिवास्वप्न देखती रहती है.