Monday, January 18, 2010

क्रांति के बीज

झुलसाते रवि-किरणों से
जब मानव मृत हो जाता है.
मैं बदरी बनकर छाता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं।

आती है जब निशा-रात्रि
घनघोर अंधेरा छाता है.
मैं दीपक की लौ बनकर
स्वयं ही जलता जाता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं।

वे बहुत ही अभिमानी हैं.
करते अपनी मनमानी हैं.
जग को झूठे पाठ पढाते,
इतने वे अग्यानी हैं.
सही राह पर लाने उनको,
राजनीति सिखाता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं।

देते हैं मां को विष-प्याला.
मां के लिये है जग-आला.
कहते हैं पी गयी रक्त वह,
मां है या राक्षसनी है.
सुख की दुनियां का श्रेय कहां,
मां तो बस दुख का कारण है.
नही है ममता लेश-मात्र,
मां तो अत्याचारण है.
मां की ममता को नमण मेरा,
उस पुत्र का अंत मैं करता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं.

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