कैसे गाऊं गौरव गाथा ?
बच्चे मां के दुध के प्यासे
फ़ुटपाथों पर सोते हैं.
आज भी भूखी-नंगी जनता
गम के साये मे जीते हैं.
आज भी ईंसां बेचा जाता,
झुकता जाता अपना माथा.
कैसे गाऊं गौरव गाथा ?
आतंकी के बंदूकों से
काटी जाती जीवन की रेखा.
मंहगाई पर विधि-निर्माता,
कहते हैं यह भाग्य का लेखा.
आज भी खुशियां अपनी-अपनी,
अलग-अलग हैं गम और बाधा.
कैसे गाऊं गौरव गाथा ?
निर्वासित गांधी का भारत,
बलात्कार सच का होता है.
आजद हिन्द है जंजीरों में,
ईमान बाजारों मे बिकता है.
टकराते हैं जाति और मजहब,
अब लडती है क्षेत्र और भाषा,
कैसे गाऊं गौरव गाथा ?
अब तो अपनी मातृ-भूमि मे
बारूदों की खेती होती है.
नीलाम हो चुकी पुलिस की वर्दी,
इंसाफ़ सदा ही सोती है.
डालर मे अब वोट हैं विकते,
बदले शब्द, बदली परिभाषा.
कैसे गाऊं गौरव गाथा ?
मां रोती है अब बेटों को,
चुमते हैं बच्चे फ़ंदों को.
झूठे सपने दिखा-दिखाकर,
फ़हराये जाते झंडों को.
लुटते हैं इज्जत औरत की,
मारी जाती हैं भ्रुण-मादा.
कैसे गाऊं गौरव गाथा ?
Tuesday, January 26, 2010
Friday, January 22, 2010
चांद
मां बाजरे की रोटी पका रही थी.कच्चे लकडी के जलने से घर में धुआं फ़ैल चुका था.चारपाई पर पिताजी लेटे हुए थे.दस साल की बच्ची चुपके से घर से निकल पडी.आज पुर्णीमा की रात है.साहब के घर कविजन आए होंगे.कविताऎं गाऎंगे और पुरी-जलेबी खाऎंगे.उसे भी खाने को मिलेगा-यह सोचकर वह चुपके से साहब के कमरे मे आकर खडी हो गयी.एक कवि ने कहा "मेरे मह्बुब की तरह यह चांद भी खुबसुरत लग रहा है. इसक रंग भी उसके होठों की तरह लाल है."
तभी उसकी मां चिल्लाती हुई आई और उसके बालों को पकडकर खीचने लगी."उधर तेरा बाप बीमार है,घर मे खाने को कुछ भी नही है और इधर तु साहेब लोगों की कविता सुन रही है." फ़िर उसने खिडकी से झांकते हुए पुनम की चांद को देखा और कहने लगी "देखो तो आज ये चांद कितना बदसुरत लग रहा है,इसका रंग गर्म तवे की तरह लाल है."
तभी उसकी मां चिल्लाती हुई आई और उसके बालों को पकडकर खीचने लगी."उधर तेरा बाप बीमार है,घर मे खाने को कुछ भी नही है और इधर तु साहेब लोगों की कविता सुन रही है." फ़िर उसने खिडकी से झांकते हुए पुनम की चांद को देखा और कहने लगी "देखो तो आज ये चांद कितना बदसुरत लग रहा है,इसका रंग गर्म तवे की तरह लाल है."
Wednesday, January 20, 2010
मयखाना और मोहब्बत
जब से इश्क वालों के वफ़ा मे कमी आयी है.
जिधर देखो मयखाने मे हरियाली सी छायी है.
लोग यहां आते हैं , खूब आंसु बहाते हैं.
शराब के पैमाने मे मिलाकर पी जाते है.
गम कम नही होता,दर्द बढता ही जाता है.
दिल-जलों ने तो शराब की कीमतें बढायी है.
जब से इश्क वालों के वफ़ा मे कमी आयी है.
बिना जाने ही गैरों को अपना बनाते हैं.
सैकडो वादे करते हैं,हजारो कसमे खाते हैं
मिले जो वक्त फ़ुरसत की तो सपने सजाते हैं
कभी सूरज उगाते हैं, कभी चंदा बनाते हैं
मगर जब आंख खुलती है नजारा और होता है
इस खेल मे हर सख्श ने बस जख्म खायी है.
जब से इश्क वालों के वफ़ा मे कमी आयी है.
मोहब्बत और मयखाने के रिश्ते बताते है.
मजा दोनो मे आता है, नशा दोनो पिलाते है
शुरुआत मे दोनो जगह कहकहे लगाते हैं
मगर जब अन्त आता है तो लडखडाते हैं
फ़र्क इतना है कि शराब कभी धोखा नही देता,
और मोहब्बत के खून मे सिर्फ़ बेवफ़ाई है.
जब से इश्क वालों के वफ़ा मे कमी आयी है.
जिधर देखो मयखाने मे हरियाली सी छायी है.
जिधर देखो मयखाने मे हरियाली सी छायी है.
लोग यहां आते हैं , खूब आंसु बहाते हैं.
शराब के पैमाने मे मिलाकर पी जाते है.
गम कम नही होता,दर्द बढता ही जाता है.
दिल-जलों ने तो शराब की कीमतें बढायी है.
जब से इश्क वालों के वफ़ा मे कमी आयी है.
बिना जाने ही गैरों को अपना बनाते हैं.
सैकडो वादे करते हैं,हजारो कसमे खाते हैं
मिले जो वक्त फ़ुरसत की तो सपने सजाते हैं
कभी सूरज उगाते हैं, कभी चंदा बनाते हैं
मगर जब आंख खुलती है नजारा और होता है
इस खेल मे हर सख्श ने बस जख्म खायी है.
जब से इश्क वालों के वफ़ा मे कमी आयी है.
मोहब्बत और मयखाने के रिश्ते बताते है.
मजा दोनो मे आता है, नशा दोनो पिलाते है
शुरुआत मे दोनो जगह कहकहे लगाते हैं
मगर जब अन्त आता है तो लडखडाते हैं
फ़र्क इतना है कि शराब कभी धोखा नही देता,
और मोहब्बत के खून मे सिर्फ़ बेवफ़ाई है.
जब से इश्क वालों के वफ़ा मे कमी आयी है.
जिधर देखो मयखाने मे हरियाली सी छायी है.
Monday, January 18, 2010
क्रांति के बीज
झुलसाते रवि-किरणों से
जब मानव मृत हो जाता है.
मैं बदरी बनकर छाता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं।
आती है जब निशा-रात्रि
घनघोर अंधेरा छाता है.
मैं दीपक की लौ बनकर
स्वयं ही जलता जाता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं।
वे बहुत ही अभिमानी हैं.
करते अपनी मनमानी हैं.
जग को झूठे पाठ पढाते,
इतने वे अग्यानी हैं.
सही राह पर लाने उनको,
राजनीति सिखाता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं।
देते हैं मां को विष-प्याला.
मां के लिये है जग-आला.
कहते हैं पी गयी रक्त वह,
मां है या राक्षसनी है.
सुख की दुनियां का श्रेय कहां,
मां तो बस दुख का कारण है.
नही है ममता लेश-मात्र,
मां तो अत्याचारण है.
मां की ममता को नमण मेरा,
उस पुत्र का अंत मैं करता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं.
जब मानव मृत हो जाता है.
मैं बदरी बनकर छाता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं।
आती है जब निशा-रात्रि
घनघोर अंधेरा छाता है.
मैं दीपक की लौ बनकर
स्वयं ही जलता जाता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं।
वे बहुत ही अभिमानी हैं.
करते अपनी मनमानी हैं.
जग को झूठे पाठ पढाते,
इतने वे अग्यानी हैं.
सही राह पर लाने उनको,
राजनीति सिखाता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं।
देते हैं मां को विष-प्याला.
मां के लिये है जग-आला.
कहते हैं पी गयी रक्त वह,
मां है या राक्षसनी है.
सुख की दुनियां का श्रेय कहां,
मां तो बस दुख का कारण है.
नही है ममता लेश-मात्र,
मां तो अत्याचारण है.
मां की ममता को नमण मेरा,
उस पुत्र का अंत मैं करता हूं.
मैं बीज क्रान्ति के लाता हूं.
Friday, January 15, 2010
सूर्यग्रहण- पाखंडियों का महापर्व
वैसे सूर्यग्रहण तो पहले भी होते रहे हैं लेकिन आज का सूर्यग्रहण बहुत ही अनोखा है। पहली बार मीदिया ने इसे इतना बडा कवरेज दिया है कि लगता है बीते सप्ताह यह खबर हमारे देश मे पहले पायदान पर रही. तीन दिनों से सभी न्यूज चैनलों पर सिर्फ़ यही दिखाया जा रहा है. ज्योतिषों और पंडितों को बुलाकर चैनलों पर घंटों भर उनसे बातचीत की जा रही है. कोई दूसरी खबर नहीं है. यदि और कोइ खबर होगी भी तो सूर्यग्रहण के बाद ही उसमे मसाला लगाकर परोसा जायेगा.प्रकृर्ति की इस नियमित घटना को पाखंडियों ने आजकल एक हथियार बना लिया है. इसमे मीडिया का योगदान तो अभूतपूर्व है. अपनी रोटी सेंकने के लिये लगता है मीडिया ने नेतओं, उद्योगपतियों के साथ साथ अब ज्योतिषों और पाखंडियों के साथ भी हाथ मिला लिया है॥ मीडियावालों ! सभी से हाथ मिलाते रहो.....यह बुरी बात नही है....लेकिन राष्ट्रहित तो देखो.देश के महन वैग्यानिकों की अनदेखी कर यदि ज्योतिषों का इस तरह महिमा-मंडन किया जायेगा तो देश का क्या हाल होगा? कुछ चैनलों ने भले ही वैग्यानिकों से बातचीत को भी टी.वी पर दिखाय, लेकिन एक सामान्य प्राकृतिक घटना जिसका रहस्य काफ़ी पहले खुल गया है उसके बारे मे वैग्यानिकों से पूछना कहां तक उचित है?.मैं मानता हूं आज भी देश की आबादी का एक हिस्सा अशिक्षित है जो चैनलों की हर बात को चाव से देखती है लेकिन बांकी लोगों को बेवकूफ़ बनाना अच्छी बात नही है. कौन नही जानता है कि सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा के आने से सूर्यग्रहण लगता है. जहां तक प्रभाव की बात है तो निश्चय ही कुछ देर तक सौर-उर्जा का कुछ हिस्सा चंद्रमा के अवरोध से पृथ्वी तक नही आ पाता. यह प्रभाव तो अच्छा नही है लेकिन सामान्यतः इसे नगन्य माना जा सकता है.
दूसरी तरफ़ मीडिया के द्वारा पैदा किया गया दुष्प्रभाव सूर्यग्रहण के प्रभाव से कई गुणा अधिक है। क्या मीडिया के पास इस बात की कोई प्रमाणिकता है कि इस सूर्यग्रहण से कुछ लोगों पर अच्छे या बुरे प्रभाव पडेंगे॥ जिस जादु-टोना, भूत-प्रेत और टोटकों जैसे अंधविश्वास को धार्मिक-रूढवादिता कहकर हम आगे बढते चले गये, क्या मीडिया फ़िर हमें वहीं ले जाना चाहती है?। ज्योतिष तो श्रद्धा की बात कहकर पीछे हट जायेंगे लेकिन मीडिया के लोग इन अप्रमाणिक बातों का क्या जबाव देंगे. जिस महादान को चैनल करोडो जनता को दिखा रही है, क्या वे लोग जानते हैं कि तत्काल इसका आर्थिक प्रभाव क्या होगा? घी, दूध,गुड,दाल और अन्य खाद्द्यान्न यदि देश की सौ करोड जनता खरीदकर दान करने लगे तो............दूसरी ओर दान के लिये पात्रता की बात. कही यह ब्राह्मणों का षडयंत्र तो नहीं? खैर विषय चिंतन करने की है. दूसरी बात महास्नान की. इलाहाबद, हरिद्वार और वारणसी में लाखों लोग महास्नान का पूण्य प्राप्त करने जुट गये हैं जो सूर्यग्रहण के दुष्प्रभाव से बचायेगी. मीडिया बार-बार यही बात दुहरा रही है. जबकी ट्रेफ़िक जाम, भगदड, दूर्घटनायें और गंगाजल मे प्रदूषण के सिवा इससे कुछ भी प्राप्त नही होनेवाला. किसी की श्रद्धा और भावनाओं को चोट नही पहुंचाना चाहिये, लेकिन किसी के भीतर के अंधविश्वास को जगाना या बढावा देना---मीडिया के लिये ठीक नही है.
मीडिया को राष्ट्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। लगभग एक सप्ताह से इनकी स्थिति देखकर श्पष्ट हो चुका है कि चौथा स्तंभ बहुत कमजोर हो चुका है. यह भी रुपयों के बदले बिक चुका है. करोडो लोगों को दिग्भ्रमित करना, समाचारों को तोड-मरोडकर पेश करना और देशहित के समाचारों को वरीयता ना देना----आज के न्यूज चैनलों के कार्य-लक्षण हैं. यह दंडनीय अपरध है. इसके लिये न्यूज-चैनल चलानेवालों को(यदि शर्म बचा हुआ है तो) माफ़ी मांगनी चाहिये. हमारे हजारो जनप्रतिनिधि सदन मे बठकर राष्ट्रहित के मुद्दों पर बहस कर रहे हैं, लाकों लोगों की नजर शेयर बाजार पर लगी हुई है, करोडो लोग आम जरुरत को पूरा करने के लिये संघर्ष कर रहे हैं.कई विद्वान, वैग्यानिक, खिलाडी आदि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. ऎसी स्थिति मे जन-साधारण तक खबर पहुचानेवाली संस्थायें यदि सभी खबरों को छोडकर कुछ ज्योतिषों, ब्रह्मणो और पाखडियों को साथ लेकर सूर्यग्रहण का महापर्व मना रही है तो..........यह दुखद है.
अरविन्द झा
०९७५२४७५४८१
दूसरी तरफ़ मीडिया के द्वारा पैदा किया गया दुष्प्रभाव सूर्यग्रहण के प्रभाव से कई गुणा अधिक है। क्या मीडिया के पास इस बात की कोई प्रमाणिकता है कि इस सूर्यग्रहण से कुछ लोगों पर अच्छे या बुरे प्रभाव पडेंगे॥ जिस जादु-टोना, भूत-प्रेत और टोटकों जैसे अंधविश्वास को धार्मिक-रूढवादिता कहकर हम आगे बढते चले गये, क्या मीडिया फ़िर हमें वहीं ले जाना चाहती है?। ज्योतिष तो श्रद्धा की बात कहकर पीछे हट जायेंगे लेकिन मीडिया के लोग इन अप्रमाणिक बातों का क्या जबाव देंगे. जिस महादान को चैनल करोडो जनता को दिखा रही है, क्या वे लोग जानते हैं कि तत्काल इसका आर्थिक प्रभाव क्या होगा? घी, दूध,गुड,दाल और अन्य खाद्द्यान्न यदि देश की सौ करोड जनता खरीदकर दान करने लगे तो............दूसरी ओर दान के लिये पात्रता की बात. कही यह ब्राह्मणों का षडयंत्र तो नहीं? खैर विषय चिंतन करने की है. दूसरी बात महास्नान की. इलाहाबद, हरिद्वार और वारणसी में लाखों लोग महास्नान का पूण्य प्राप्त करने जुट गये हैं जो सूर्यग्रहण के दुष्प्रभाव से बचायेगी. मीडिया बार-बार यही बात दुहरा रही है. जबकी ट्रेफ़िक जाम, भगदड, दूर्घटनायें और गंगाजल मे प्रदूषण के सिवा इससे कुछ भी प्राप्त नही होनेवाला. किसी की श्रद्धा और भावनाओं को चोट नही पहुंचाना चाहिये, लेकिन किसी के भीतर के अंधविश्वास को जगाना या बढावा देना---मीडिया के लिये ठीक नही है.
मीडिया को राष्ट्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। लगभग एक सप्ताह से इनकी स्थिति देखकर श्पष्ट हो चुका है कि चौथा स्तंभ बहुत कमजोर हो चुका है. यह भी रुपयों के बदले बिक चुका है. करोडो लोगों को दिग्भ्रमित करना, समाचारों को तोड-मरोडकर पेश करना और देशहित के समाचारों को वरीयता ना देना----आज के न्यूज चैनलों के कार्य-लक्षण हैं. यह दंडनीय अपरध है. इसके लिये न्यूज-चैनल चलानेवालों को(यदि शर्म बचा हुआ है तो) माफ़ी मांगनी चाहिये. हमारे हजारो जनप्रतिनिधि सदन मे बठकर राष्ट्रहित के मुद्दों पर बहस कर रहे हैं, लाकों लोगों की नजर शेयर बाजार पर लगी हुई है, करोडो लोग आम जरुरत को पूरा करने के लिये संघर्ष कर रहे हैं.कई विद्वान, वैग्यानिक, खिलाडी आदि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. ऎसी स्थिति मे जन-साधारण तक खबर पहुचानेवाली संस्थायें यदि सभी खबरों को छोडकर कुछ ज्योतिषों, ब्रह्मणो और पाखडियों को साथ लेकर सूर्यग्रहण का महापर्व मना रही है तो..........यह दुखद है.
अरविन्द झा
०९७५२४७५४८१
Thursday, January 7, 2010
चोर-विद्या
चोर-विद्या
तब मैं दस साल का था। एक दिन जब मैं दुकान से सामान खरीद रहा था चतुरानन्दजी की नजर मेरे उपर पडी. वह मुझे ऎसे देखने लगे जैसे कोइ छिछोले स्वभाव का व्यक्ति किसी सुकोमल और खूबसूरत नवयौवना को देखता है. फ़िर उन्होने मेरी आंखों में झांकते हुए पूछा "चोकलेट खाओगे?". मैने हामी भर दी.उन्होने ढेर सारी टोफ़ी अपनी जेब से निकालकर मुझे दे दिया. फ़िर कहने लगे "सारे ले लो, फ़्री के हैं". "फ़्री के?"---मैने पूछा "कैसे?". कहने लगे "बेटे, मुझे किसी चीज के लिये किसी के पास हाथ नहीं फ़ैलाना पडता.बहुत ही प्रेक्टिकल लाइफ़ जीता हूं मैं. तुम भी यदि प्रेक्टिकल लाइफ़ जीना चाहते हो तो मुझे अपना गुरू बना लो.". मैं ठहरा दस साल का अबोध बालक, प्रेक्टिकल लाइफ़ समझ मे नहीं आया. मैं सोचने लगा यदि प्रेक्टिकल लाइफ़ जीने से फ़्री मे चोकलेट मिल जाये ......तो अच्छा ही है. " हूं.......तो आप मुझे सिखायेंगे?"मेरे आग्रह को सहर्ष स्वीकारते हुए कहा "क्यों नही. जरूर......तुम आज शाम को मेरे घर आ जाओ."
मैं शाम को उनके घर पहुंचा। वह समझाने लगे " बेटे मैं तुम्हे चोरविद्या कि शिक्षा दुंगा. प्रेक्टिकल लाइफ़ से मेर मतलब चोरविद्या ही था" .मैने पूछा "चोरविद्या? ये क्या होती है?" कहने लगे "ये एक प्रकार की शिक्षा अर्थात एडुकेसन है जिसमे बिना मांगे,बिना खर्च किये और बिना औरों के जानकारी के गुप्त तरीके से अपने दिमाग,शरीर और हृदय के उपयोग से किसी अन्य व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र मे आनेवाले वस्तु को ग्रहण किया जाता है." तब मैं चौथी कक्षा मे पढता था,मुझे परिभाषा बिल्कुल ही समझ मे नही आया." बेटे ये एक कला है."मेरे मुंह से निकल पडा "ओ.....,मेरे बाबूजी कहते हैं कि मुझे तो बिजनेस करना है." " तो तुम्हे व्यवसायी बनना है यही ना? बेटे आजकल इस कला का व्यवसायीकरण हो चुका है और जब तुम इस कला को अपनाओगे तब ये कला जो व्यवसाय बन चुका है उसे फ़िर से कलाकृत कर दोगे". मैं फ़िर से उनकी बात नहीं समझ पाया.उनकी पारखी नजरें यह जान रही थी.वह पुनः समझाने लगे "अच्छा बताओ बिजनेस क्या होता है?" स्वयं ही जबाव देने लगे "पूंजी खर्च कर लाभ कमाना,यही ना?" मैंने सिर हिला दिया. " इसमे पूंजी नही लगता है,थोडा सा जोखिम है पर मार्जिन ओफ़ प्रोफ़िट बहुत ज्यादा है.यदि ज्यादा जोखिम लोगे तो मार्जिन ओफ़ प्रोफ़िट इतना ज्यादा हो सकता है कि तुम सोच भी नही सकते.यदि तुमने इस कला को अपना लिया तो विद्या की देवी मां सरस्वती की कृपा से तुम्हारे घर मे मां लक्ष्मी का भंडार होगा" .मैं सोच मे पड गया.मैं पूरी तरह समझ तो नही रहा था लेकिन सोच रहा था चाचाजी कुछ अच्छी बात कह रहे थे. तभी मेरे मूंह से निकल पडा "मां भी तो सरस्वती और लक्ष्मी मैया की पूजा करती है."वह झट से बोल पडे "बिल्कुल. दूसरों के घरों मे रखे हुए धन अर्थात लक्ष्मी को अपने सरस्वती अर्थात बुद्धि के बल पर गुप्त रूप से प्राप्त करना सबसे बडी पूजा है.रात के अंधेरे मे जब सभी सो रहे हो, वातावरण शांत हो, किसी परायी मुल्यवान वस्तु पर दृष्टि केन्द्रित करना सबसे बडा ध्यान है.समय एवं परिस्थिति के अनुरूप शरीर को ढालकर कभी अतिमंद गति से चलना और कभी अतिवेग से दौडना-शरीर के लिये भी स्वास्थ्यप्रद है.बेटे इस कला मे गुण ही गुण हैं. इसे चोर-दर्शन कहते हैं" .चाचा किसी बहुत बडे दार्शनिक की तरह बोल रहे थे. मैने पूछा "लेकिन चाचा यह शिक्षा तो काफ़ी कठिन होगा न?" उन्होने कहा- " थोडा सा........,लेकिन कुछ नैसर्गिक गुणों के आधार पर तुम सर्वथा योग्य हो." मैने पुछा " कैसे?.उनका जबाव था "तुम्हारे पिता एक सम्मानित व्यक्ति हैं, उनके नाम पर अन्य लोग तुम पर विश्वास करेंगे.दिखने मे काले हो----अंधकार की तो बात छोडो,प्रकाश मे भी तुम्हे आसानी से देखना मुश्किल है.उपर से काले होने के कारण शनि की कृपा-दृष्टि सदैव बनी रहेगी.दुबले-पतले हो--छोटे से रास्ते से भी आ जा सकते हो. नाटे भी हो---समय आने पर इसका भी लाभ प्राप्त होगा.ईश्वर ने तुम्हें तेज दिमाग दिया है, देखना मैं तुम्हे इस कला मे मास्टर बना दूंगा".
मुझे गुरू तो मिल ही गया था।सोचा जल्दी ही अवसर का फ़ायदा उठाया जाय. मैंने कहा -"चाचा आप कल से ही मुझे यह विद्या सिखाना चालू कर दो." " कल नहीं बेटे आज. काल करे सो आज कर आज करे सो अब.और प्राथमिक शिक्षा अपने मात-पिता से ग्रहण करो अर्थात घर की लक्ष्मी पर हाथ फ़ेरने का अभ्यास करो. तुम्हारी मां रुपये कहां रखती है?." "अपने कमरे की टेबुल पर एक डब्बे मे." उन्होंने धीरे से कहा-" आज रात उस डब्बे मे रखे सारे रुपये गायब कर दो.......ध्यान रहे मात-पिता को बिल्कुल पता नहीं चलना चाहिये." चाचा की बात सुनकर मैं सन्न रह गया. अब मैं पूरी बात समझ रहा था. चाचा मुझे चोर बनाना चाह रहे थे.मैं भले ही नटखट था लेकिन चोरी को पाप समझता था.मैंने कहा-" तो आप मुझे चोरी करना सिखा रहे हैं?" " नहीं बेटे. मैं तुम्हे व्यवहारिक जीवन जीना सिखा रहा हूं.मानव जीवन तो क्षणिक होता है .सोचो इस संसार मे कोई भी व्यक्ति ऎसा नहीं है जिसने चोरी न किया हो. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी एक बार अपने घर से सोना चुराया था." मैने कहा -"लेकिन गांधीजी ने बाद मे चोरी करना बंद कर दिया था." " मैं आशा करता हूं तुम वही गलती नही करोगे. वीर एक बार जिस रास्ते पर निकल पडता है उस रास्ते से वापस नहीं आता. गांधीजी ने चोरी बंद कर दिया....इसका परिणाम क्या हुआ? अपनी रोजी-रोटी के लिये दक्षिण-अफ़्रिका तक उन्हें भटकना पडा."- चाचा ने चोरी और वीरता को समानार्थक सिद्ध कर दिया था. कहने लगे "भगवान श्रीकृष्ण ने भी मूल रूप से चोरी की शिक्षा ही दिया है अपने जीवन से."चाचा की बातों मे दम था. पहली ही रात सफ़लता-पूर्वक मैंने अपने कार्य को पूरा किया,घर से पूरे दो सौ रुपये गुप्त रूप से प्राप्त किया.चाचा के जादुई व्यक्तित्व के प्रभाव ने मेरे भीतर ग्लानि के बदले गर्व को पैदा किया.चोरी की इस पहली घटना ने न केवल मेरे आत्म-विश्वास को बढाया बल्कि मेरी हिम्मत को भी चौगुना कर दिया.
अरविन्द कुमार झा
डिपो वस्तु अधिक्षक
भंडार नियंत्रक कार्यालय
द.पु.म.रेलवे, बिलासपुर
९७५२४७५४८१
तब मैं दस साल का था। एक दिन जब मैं दुकान से सामान खरीद रहा था चतुरानन्दजी की नजर मेरे उपर पडी. वह मुझे ऎसे देखने लगे जैसे कोइ छिछोले स्वभाव का व्यक्ति किसी सुकोमल और खूबसूरत नवयौवना को देखता है. फ़िर उन्होने मेरी आंखों में झांकते हुए पूछा "चोकलेट खाओगे?". मैने हामी भर दी.उन्होने ढेर सारी टोफ़ी अपनी जेब से निकालकर मुझे दे दिया. फ़िर कहने लगे "सारे ले लो, फ़्री के हैं". "फ़्री के?"---मैने पूछा "कैसे?". कहने लगे "बेटे, मुझे किसी चीज के लिये किसी के पास हाथ नहीं फ़ैलाना पडता.बहुत ही प्रेक्टिकल लाइफ़ जीता हूं मैं. तुम भी यदि प्रेक्टिकल लाइफ़ जीना चाहते हो तो मुझे अपना गुरू बना लो.". मैं ठहरा दस साल का अबोध बालक, प्रेक्टिकल लाइफ़ समझ मे नहीं आया. मैं सोचने लगा यदि प्रेक्टिकल लाइफ़ जीने से फ़्री मे चोकलेट मिल जाये ......तो अच्छा ही है. " हूं.......तो आप मुझे सिखायेंगे?"मेरे आग्रह को सहर्ष स्वीकारते हुए कहा "क्यों नही. जरूर......तुम आज शाम को मेरे घर आ जाओ."
मैं शाम को उनके घर पहुंचा। वह समझाने लगे " बेटे मैं तुम्हे चोरविद्या कि शिक्षा दुंगा. प्रेक्टिकल लाइफ़ से मेर मतलब चोरविद्या ही था" .मैने पूछा "चोरविद्या? ये क्या होती है?" कहने लगे "ये एक प्रकार की शिक्षा अर्थात एडुकेसन है जिसमे बिना मांगे,बिना खर्च किये और बिना औरों के जानकारी के गुप्त तरीके से अपने दिमाग,शरीर और हृदय के उपयोग से किसी अन्य व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र मे आनेवाले वस्तु को ग्रहण किया जाता है." तब मैं चौथी कक्षा मे पढता था,मुझे परिभाषा बिल्कुल ही समझ मे नही आया." बेटे ये एक कला है."मेरे मुंह से निकल पडा "ओ.....,मेरे बाबूजी कहते हैं कि मुझे तो बिजनेस करना है." " तो तुम्हे व्यवसायी बनना है यही ना? बेटे आजकल इस कला का व्यवसायीकरण हो चुका है और जब तुम इस कला को अपनाओगे तब ये कला जो व्यवसाय बन चुका है उसे फ़िर से कलाकृत कर दोगे". मैं फ़िर से उनकी बात नहीं समझ पाया.उनकी पारखी नजरें यह जान रही थी.वह पुनः समझाने लगे "अच्छा बताओ बिजनेस क्या होता है?" स्वयं ही जबाव देने लगे "पूंजी खर्च कर लाभ कमाना,यही ना?" मैंने सिर हिला दिया. " इसमे पूंजी नही लगता है,थोडा सा जोखिम है पर मार्जिन ओफ़ प्रोफ़िट बहुत ज्यादा है.यदि ज्यादा जोखिम लोगे तो मार्जिन ओफ़ प्रोफ़िट इतना ज्यादा हो सकता है कि तुम सोच भी नही सकते.यदि तुमने इस कला को अपना लिया तो विद्या की देवी मां सरस्वती की कृपा से तुम्हारे घर मे मां लक्ष्मी का भंडार होगा" .मैं सोच मे पड गया.मैं पूरी तरह समझ तो नही रहा था लेकिन सोच रहा था चाचाजी कुछ अच्छी बात कह रहे थे. तभी मेरे मूंह से निकल पडा "मां भी तो सरस्वती और लक्ष्मी मैया की पूजा करती है."वह झट से बोल पडे "बिल्कुल. दूसरों के घरों मे रखे हुए धन अर्थात लक्ष्मी को अपने सरस्वती अर्थात बुद्धि के बल पर गुप्त रूप से प्राप्त करना सबसे बडी पूजा है.रात के अंधेरे मे जब सभी सो रहे हो, वातावरण शांत हो, किसी परायी मुल्यवान वस्तु पर दृष्टि केन्द्रित करना सबसे बडा ध्यान है.समय एवं परिस्थिति के अनुरूप शरीर को ढालकर कभी अतिमंद गति से चलना और कभी अतिवेग से दौडना-शरीर के लिये भी स्वास्थ्यप्रद है.बेटे इस कला मे गुण ही गुण हैं. इसे चोर-दर्शन कहते हैं" .चाचा किसी बहुत बडे दार्शनिक की तरह बोल रहे थे. मैने पूछा "लेकिन चाचा यह शिक्षा तो काफ़ी कठिन होगा न?" उन्होने कहा- " थोडा सा........,लेकिन कुछ नैसर्गिक गुणों के आधार पर तुम सर्वथा योग्य हो." मैने पुछा " कैसे?.उनका जबाव था "तुम्हारे पिता एक सम्मानित व्यक्ति हैं, उनके नाम पर अन्य लोग तुम पर विश्वास करेंगे.दिखने मे काले हो----अंधकार की तो बात छोडो,प्रकाश मे भी तुम्हे आसानी से देखना मुश्किल है.उपर से काले होने के कारण शनि की कृपा-दृष्टि सदैव बनी रहेगी.दुबले-पतले हो--छोटे से रास्ते से भी आ जा सकते हो. नाटे भी हो---समय आने पर इसका भी लाभ प्राप्त होगा.ईश्वर ने तुम्हें तेज दिमाग दिया है, देखना मैं तुम्हे इस कला मे मास्टर बना दूंगा".
मुझे गुरू तो मिल ही गया था।सोचा जल्दी ही अवसर का फ़ायदा उठाया जाय. मैंने कहा -"चाचा आप कल से ही मुझे यह विद्या सिखाना चालू कर दो." " कल नहीं बेटे आज. काल करे सो आज कर आज करे सो अब.और प्राथमिक शिक्षा अपने मात-पिता से ग्रहण करो अर्थात घर की लक्ष्मी पर हाथ फ़ेरने का अभ्यास करो. तुम्हारी मां रुपये कहां रखती है?." "अपने कमरे की टेबुल पर एक डब्बे मे." उन्होंने धीरे से कहा-" आज रात उस डब्बे मे रखे सारे रुपये गायब कर दो.......ध्यान रहे मात-पिता को बिल्कुल पता नहीं चलना चाहिये." चाचा की बात सुनकर मैं सन्न रह गया. अब मैं पूरी बात समझ रहा था. चाचा मुझे चोर बनाना चाह रहे थे.मैं भले ही नटखट था लेकिन चोरी को पाप समझता था.मैंने कहा-" तो आप मुझे चोरी करना सिखा रहे हैं?" " नहीं बेटे. मैं तुम्हे व्यवहारिक जीवन जीना सिखा रहा हूं.मानव जीवन तो क्षणिक होता है .सोचो इस संसार मे कोई भी व्यक्ति ऎसा नहीं है जिसने चोरी न किया हो. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी एक बार अपने घर से सोना चुराया था." मैने कहा -"लेकिन गांधीजी ने बाद मे चोरी करना बंद कर दिया था." " मैं आशा करता हूं तुम वही गलती नही करोगे. वीर एक बार जिस रास्ते पर निकल पडता है उस रास्ते से वापस नहीं आता. गांधीजी ने चोरी बंद कर दिया....इसका परिणाम क्या हुआ? अपनी रोजी-रोटी के लिये दक्षिण-अफ़्रिका तक उन्हें भटकना पडा."- चाचा ने चोरी और वीरता को समानार्थक सिद्ध कर दिया था. कहने लगे "भगवान श्रीकृष्ण ने भी मूल रूप से चोरी की शिक्षा ही दिया है अपने जीवन से."चाचा की बातों मे दम था. पहली ही रात सफ़लता-पूर्वक मैंने अपने कार्य को पूरा किया,घर से पूरे दो सौ रुपये गुप्त रूप से प्राप्त किया.चाचा के जादुई व्यक्तित्व के प्रभाव ने मेरे भीतर ग्लानि के बदले गर्व को पैदा किया.चोरी की इस पहली घटना ने न केवल मेरे आत्म-विश्वास को बढाया बल्कि मेरी हिम्मत को भी चौगुना कर दिया.
अरविन्द कुमार झा
डिपो वस्तु अधिक्षक
भंडार नियंत्रक कार्यालय
द.पु.म.रेलवे, बिलासपुर
९७५२४७५४८१
Friday, January 1, 2010
नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है.
आओ खुशियां लेकर चाहे,
या दुखों के काले बादल.
आओ तुफ़ां बनकर जीवन में
या बन जाओ खुशियों के पल.
तुम जो चाहो हम सहमत है,
नव वर्ष तुम्हार स्वागत है।
तुम चाहो तो धावक भी
ठोकर खाकर गिर जाते हैं.
कोई लाख करे कोशिस लेकिन,
तुम्हे रोक ना पाते हैं.
जो भी होता इस जग मे
वह सबकुछ तेरी रहमत है.
नव वर्ष तुम्हार स्वागत है।
हम नहीं जानते हैं तुमको,
न कोई तुम्हें समझ पाया.
तुमने अपनी माया से
ऎसे ऎसे दिन दिखलाया.
छिन्न न होने देंगे क्षण को
इतनी हममे हिम्मत है.
नव वर्ष तुम्हार स्वागत है.
या दुखों के काले बादल.
आओ तुफ़ां बनकर जीवन में
या बन जाओ खुशियों के पल.
तुम जो चाहो हम सहमत है,
नव वर्ष तुम्हार स्वागत है।
तुम चाहो तो धावक भी
ठोकर खाकर गिर जाते हैं.
कोई लाख करे कोशिस लेकिन,
तुम्हे रोक ना पाते हैं.
जो भी होता इस जग मे
वह सबकुछ तेरी रहमत है.
नव वर्ष तुम्हार स्वागत है।
हम नहीं जानते हैं तुमको,
न कोई तुम्हें समझ पाया.
तुमने अपनी माया से
ऎसे ऎसे दिन दिखलाया.
छिन्न न होने देंगे क्षण को
इतनी हममे हिम्मत है.
नव वर्ष तुम्हार स्वागत है.