मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१२ (व्यंग्य)
उनकी काव्य-प्रतिभा का यह मामुली उदाहरण था.दीवाली की रात जब मेरी सासू मां ने अपनी बेटी के कानों में फ़ूंक मारा उसी वक्त मां लक्ष्मी मेरे घर से रूठकर चली गयी. अब चुंकी मां लक्ष्मी का फ़्लाइट इमानदारों के घर दीवाली के र्प्ज ही लैंड करता है इसलिये सोच लिया हूं कि आगामी दिवाली सासू मां या श्रीमतीजी में से किसी एक के साथ ही मनाउंगा...क्योंकि लगातार दो बार यदि लक्ष्मी मैया घर से रूठकर लौटीं तो अगली बार से हर बार दिवाली के दिन वह अपना फ़्लैट कैंसिल कर लिया करेंगी.वैसे उस दिवाली की रात जो आधी बात मैंने सुनीं उसे कविता की तरह लिख तो लिया पर समझ न पाया. हां इतना कन्फ़र्म था कि मामला पारिवारिक नहीं है.यह बात इतिहास या विज्ञान से भी नहीं था.यह चाहे भूगोल या फ़िलोस्फी से हो सकता था. अतः किसी भी तरह से पूछना अनुचित नहीं था. कविता ऐसे बनी थी------दिवाली...नागिन...चंद्रमा
दिन...प्रकाश......आग
लजाते हुए शिष्टतापूर्वक श्रीमतीजी से पूछा कि मेरी सासू मां के मुखारबिन्दु से उनकी सुकर्णों किस प्रकार की अमृतवर्षा की गयी थी तो शब्दार्थ ये समझाया गया कि....दिवाली की रात नागिन की तरह काली होती है जिसमें चंद्रमा भी नहीं दिखते जबकि दिन में प्रकाश फ़ैला होता है जिसे आग की तरह जलनेवाला सूर्य पैदा करता है. इसे शब्दार्थ के बदले गद्यानुवाद समझा जाये. भावार्थ मैं आज तक नहीं समझ पाया आप कहां से समझेंगे. उनके फ़ूंक का भावार्थ समझने का प्रयास भी मत कीजिये. मैं यह सोचकर कि बहुत गूढ भावार्थ रहा होगा आज तक शोध करता रहा हूं. जितना अर्थ निकालता हूं उतना ही पागल होता जा रहा हूं. औरतों का इतिहास, मनोविज्ञान और सौन्दर्य-दर्शन का खाक छानने पर भी इस मामले में कुछ भी हाथ नहीं लगता. बस यूं समझ लीजिये मां बेटी का संबंध एक पुल की तरह होता है जिसपर हर समय दामाद नामका वाहन चक्कर लगाता रहता है.पुल उसे पानी में डूबने नहीं देती पर तट पर पहुंचने भी नहीं देती.
मैं इस फ़ूंक से सचमुच परेशान था. सोचा डाक्टर महेश सिन्हा के पास जाना चाहिये.डा.साहब ने कहा----"आपकी समस्या बहुत ही जटिल लगती है.". मेरा जवाब था---" डा. साहब पारिवारिक समस्या सबके पास होता है जिसका काफ़ी जटिल होता है वही आपके पास आता है.". वह कहने लगे " वैसे मैं पेशे से लोगों को निश्चेत किया करता हूं लेकिन आपको सचेत कर रहा हूं आपकी समस्या काफ़ी अनोखा है...". मैंने झट से कहा---"इतना अनोखा है कि मुझे भी अनोखा बना दिया है "..वह गंभीर हो गये, बोले---" मुझे लगता है उस फ़ूंक में ही विषाणु (वायरस) है "मेरे मुह से निकल पङा---"उसी का तो गोली लेने आया हूं" पता नहीं क्यों वह गुस्सा गये---"जब सबकुछ जानते हो जाओ दवा की दुकान से जाकर खरीद लो, मेरे पास क्यों आये..?" मैंने उत्तर दिया----"उस गोली का नाम...." वह बीच में ही बोल पङे---" चुप रहो क्या समझते हो जिस समस्या को सुनकर मैं नहीं सुलझा पा रहा हूं..तुम सुलझा चुके हो..? इतने समझदार हो गये हो तुम..?...फ़िर तो दवा की दुकान से खरीद लो." मुझे लगा अब यदि कुछ भी बोलुंगा तो मार बैठेंगे. धीरे धीरे मैं डा. साहब के कक्ष से बाहर निकलने लगा. पर समस्या इतनी जटिल थी कि रहा न गया, पूछ ही दिया---"उस गोली का नाम बता देते तो..." अब डा. साहब क्रोध को स्वयं में समटते हुए कहने लगे-----" कोई भी एन्टी-वायरस या एन्टी-प्वायसन को लेकर अपनी श्रीमतीजी एवं मां जगदम्बा --सासू मां के मुख छिद्र में डाल देना अथवा शरीर के किसी भी मांसल भाग के जरिये किसी बेलनाकार, खोखले व लघु-व्यास वाले धातु निर्मित उपकरण से उनके नसों में प्रविष्ट कर देना......"
क्रमशः
9 comments:
दामाद जी से सहानुभूति है। लेकिन आपने बढ़िया डॉ पकड़ा है । सचेत रहिये। पुल खतरनाक है ।
हा-हा.. अगली बार बचने में ही समझदारी है :)
दीवाली के काफी दिन बाद आपके व्यंग्य ने फिर दीवाली की यादें ताज़ा कर दीं ,ऐसे ही हर रोज़ दीवाली मानते रहें.
दीवाली पर ज़बरदस्त रॉकेट छोड़ा है आपने.....व्यंग्य रूप में ये आतिशबाजी कमाल की है...:)
फेसबुक पर मेरे साथ जुड़ने के लिए शुक्रिया.
बहुत सुन्दर मज़ेदार
... jaandaar-shaandaar !!!
पूरी सहानुभूति है। मजेदार व्यंग।
संदेश युक्त व्यंग्य।
आभार
bahut badiya vyang......
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