प्रिये ,
यह खत नहीं है.यह मेरे हृदय में उठ रहे विचारों का ज्वार है,दिमागी तारों को हिला देनेवाली एक कंपन है,धमनियों में बह रहे रक्त-कणों का आवेग है,एक साथ कई भावनाओं के मिलने से बना एक शब्द है.इसलिये प्रिये तुम मेरे दिल की तरह इसके भी टुकङे कर कूङेदान में मत फ़ेक देना.एक बार जरुर पढना.
आज मैं तुमसे दूर हूं.....काफ़ी दूर और बीच में सारा का सारा समन्दर आ गया है.जिसमें निर्दयी सुनामी भी है और रुला देनेवाली सन्नाटा भी.जिसमें अनन्त गहराई भी है और आकाश को छू लेनेवाली ऊंचाई भी..............और इसका नमकीन पानी तो इतना जहरीला है कि हमदोनों को एक कर देनेवाले हर रास्ते को ऎसे डंक मारता है कि उसका वजूद ही मिट जाता है.
जानती हो.... आज मेरे पास सब कुछ है.खूब सारा पैसा, कई घर, दर्जनों गाङियां, सैकङो नौकर-चाकर और वह सब कुछ जो मुझे नहीं चाहिये.मैं जो चाहता था वह प्रिये तुम ही थी.गरीबी और अमीरी की जिस दीवार नें हमेंअलग कर दिया था,लंबी छलांग लगाकर उस दीवार को मैनें कबका फ़ांद लिया है प्रिये. ऎसा मैनें गरीबी से पीछा छुङाने या अमीरी को पाने के लिये नहीं किया.मैं तो सिर्फ़ उस रास्ते पर आगे बढा जिसका मंजिल प्रिये तुम ही थी.
मुझे तुम्हारा प्यार क्या मिला, मानो सब कुछ मिल गया था,सारे सपनें पुरे हो गये थे.किसी चीज की जरुरत ही न बची थी.सिर्फ़ चंद रुपये वाली नौकरी नहीं होने की वजह से तुमनें मुझे ठोकर मार दिये, जितने रुपयों के बिस्किट से आज मेरे कुत्ते का भी पेट नहीं भरता.वह ठोकर भी इतनी जोरदार कि मैं लगातार गिरता ही जा रहा हूं और दुनियां समझती है कि मैं बुलंदी को छु रहा हूं.
हो सकता है कि तुम्हें चाहनेवाले कई रहे हों.प्रिये तुम तो ऐसी हो ही कि हर कोई तुम्हें जरुर चाहेगा........लेकिन तुमने यह कैसे सोच लिया कि मुझसे ज्यादा प्यार करनेवाला कोई और हो सकता है......यह कैसे हो सकता है?
हिमालय से भी ऊंचा और सागर से भी गहरा कुछ होता है क्या?..........नहीं. तो फ़िर प्रिये ऎसी कौन सी मजबूरी थी कि चंद सोने-चांदी के टुकङों के बदले ढेर सारे प्यार से भरा तराजु का पल्ला उपर उठ गया.ऎसी भूल कैसे हो गयी कि जिसने जन्नत को जमीं पे उतारा था उसे जहन्नुम कि जलालत मिली.
प्रिये तुम मेरी छोटी सी डांट-डपट पर रो दिया करती थी.कहीं तुम रो तो नहीं रही?.....रोना मत.......चलो अब हंसा देता हूं.याद है तुम्हें वो पूनम की रात.....समन्दर के किनारे....तुमने मेरी आंखों पर पट्टी बांध दी थी.फ़िर तुम तितली की तरह भागने लगी और मैंने तुम्हें पकङ लिया.ऎसा खेल एक बार नहीं दर्जनों बार हमने खेला था.........और हर बार मैं तुम्हें पकङ लेता था. जानती हो क्यों?क्योंकि उस वक्त तुम मेरे दिल में रहती थी और दिल को आंखों की जरुरत नहीं होती.
प्रिये एक दिन मुझे वही वाकया याद आया जब मैं अकेला था. मुझे बहुत जोर से हंसी आयी.मेरे ठहाके की एक आवाज ने मेरे ही भीतर से निरन्तर चित्कार मार रहे हजारों-लखों क्रन्दन के स्वरों को तत्काल दबा दिया.आंखें भले ही नम थीं पर पानी के रंग बदल गये थे.फ़िर मैंने आंखों पर तुम्हारे दिये हुए रुमाल को बांध लिया और तुम्हें पकङने के लिये इधर-उधर भागने लगा.प्रिये इस बार भी मैंने दर्जनों बार यह खेल खेला पर एक बार भी तुम्हें नहीं पकङ पाया.मुझे अब भी उतना ही मजा आ रहा था जितना पहली बार आया था.लेकिन तब मैं हर बार सफ़ल हुआ था और अब हर बार असफ़ल हो रहा था.फ़िर मैंने ठान लिया कि मैं यही खेल खेलता रहुंगा.भले ही जीवन के पूर्वार्ध में इस खेल में मैं हर बार जीता और उत्तरार्ध मे हर बार मुझे हारना ही है.
प्रिये बंद कमरे में मैं कई दिनों तक यह खेल खेलता रहा............फ़िर अचानक उस शीशे से मेरा हाथ टकराया जिस शीशे में रोज मैं अपना चेहरा जो कबका अपना सूरत बदल चुका है,देखा करता था.शीशे के टुकङे-टुकङे हो गये और मैं बेहोश होकर गिर पङा.......बाद में पता चला कि मेरे किसी अपने ने मेरी आंखों से पट्टी खोल दी थी.जानती हो मैं क्यों असफ़ल हो रहा था? क्योंकि इस बार मुझे खयाल ही नहीं रहा कि प्रिये तुम तो मेरे दिल में हो.. यदि मैं अपना हाथ अपने दिल पर रखता तो तुम जरुर पकङी जाती.
प्रिये मेरा यह शरीर तो कभी न कभी नष्ट होगा ही पर मैं तुम्हें चाहता ही रहुंगा.....क्योंकि मेरा प्यार महज शारीरिक आकर्षण भर नहीं है.तुम तो मेरी आत्मा से जुङी हुई हो....................और आत्मा तो अमिट है,अमर है.
Wednesday, March 31, 2010
Monday, March 29, 2010
तुम बसती हो श्वासों में.
सुरज की किरणों में हो तुम,
सागर की लहरों में हो तुम,
तुम हो जग की सुन्दरता में,
तुम बसती हो श्वासों में.
हर पुष्प में तेरी महक है,
पंक्षियों में तेरी चहक है,
तेरी ध्वनि है कोयल की कूहों में,
तुम बसती हो श्वासों में.
हो जीवन का आदि-अंत,
सुमधुर और सुन्दर बसंत,
तुम हो मेरी प्यासों में,
तुम बसती हो श्वासों में.
तुम हो दिवस की प्रातःवेला,
निशा रात्रि का चंद्र अकेला,
तुम हो गोधुलि की सांझों में,
तुम बसती हो श्वासों में.
पेङों की हरियाली हो तुम,
मदिरा की मोहक प्याली हो तुम,
तुम हो रक्त के कण-कण में,
तुम बसती हो श्वासों में.
सरिता की कलकल धारा हो तुम,
मांझी मैं, किनारा हो तुम,
तुम पवन के प्रवल प्रवाह में,
तुम बसती हो श्वासों में.
सागर की लहरों में हो तुम,
तुम हो जग की सुन्दरता में,
तुम बसती हो श्वासों में.
हर पुष्प में तेरी महक है,
पंक्षियों में तेरी चहक है,
तेरी ध्वनि है कोयल की कूहों में,
तुम बसती हो श्वासों में.
हो जीवन का आदि-अंत,
सुमधुर और सुन्दर बसंत,
तुम हो मेरी प्यासों में,
तुम बसती हो श्वासों में.
तुम हो दिवस की प्रातःवेला,
निशा रात्रि का चंद्र अकेला,
तुम हो गोधुलि की सांझों में,
तुम बसती हो श्वासों में.
पेङों की हरियाली हो तुम,
मदिरा की मोहक प्याली हो तुम,
तुम हो रक्त के कण-कण में,
तुम बसती हो श्वासों में.
सरिता की कलकल धारा हो तुम,
मांझी मैं, किनारा हो तुम,
तुम पवन के प्रवल प्रवाह में,
तुम बसती हो श्वासों में.
Wednesday, March 24, 2010
भ्रष्टाचार
भयंकर घाव से पीडित था वह,
पांव सड चुका था,
अस्थियों मे दर्द था,
रक्त दुषित हो चला था.
एक दिन मुर्छित सा आया.
उपचार करो, याचना लाया.
मैने पूछा, कौन हो तुम?
मुझे कहो क्यों मौन हो तुम?
मैं एक समाज हूं,
मानवता और ईमान,
मेरी संताने हैं.
मानवता मृत्यु शैया पर पडा है,
निधन का रोना रो रहा है.
उसे देखकर ईमान से न रहा गया.
वह भी रोग से ग्रसित हो गया.
मैने संतानो को तडपते देखा,
लचार, निराश, पराधीन.......
मेरा दर्द संतानो ने दिया है मुझे.
मैं जानता हूं,
तुम मेरा उपचार नहीं करोगे.
क्योंकि
मेरी नजर में तुम्हारी औकात
एक शिशु के शिश्न की तरह है.
जिसका उपयोग उसकी नजर मे
मुत्र करने के सिवा कुछ भी नहींहै.
न ही ढकने से औकात बढती है.
न ही नग्न रहने से घटती है
लेकिन,
यदि उपचार न किये,
तो मेरी बिमाडी--भ्रष्टाचार
तुम सबको निगल जायेगी.
मैं तो बूढा होकर भी
जिंदा रहुंगा.
मगर तुम
जीकर भी मरते रहोगे.
पांव सड चुका था,
अस्थियों मे दर्द था,
रक्त दुषित हो चला था.
एक दिन मुर्छित सा आया.
उपचार करो, याचना लाया.
मैने पूछा, कौन हो तुम?
मुझे कहो क्यों मौन हो तुम?
मैं एक समाज हूं,
मानवता और ईमान,
मेरी संताने हैं.
मानवता मृत्यु शैया पर पडा है,
निधन का रोना रो रहा है.
उसे देखकर ईमान से न रहा गया.
वह भी रोग से ग्रसित हो गया.
मैने संतानो को तडपते देखा,
लचार, निराश, पराधीन.......
मेरा दर्द संतानो ने दिया है मुझे.
मैं जानता हूं,
तुम मेरा उपचार नहीं करोगे.
क्योंकि
मेरी नजर में तुम्हारी औकात
एक शिशु के शिश्न की तरह है.
जिसका उपयोग उसकी नजर मे
मुत्र करने के सिवा कुछ भी नहींहै.
न ही ढकने से औकात बढती है.
न ही नग्न रहने से घटती है
लेकिन,
यदि उपचार न किये,
तो मेरी बिमाडी--भ्रष्टाचार
तुम सबको निगल जायेगी.
मैं तो बूढा होकर भी
जिंदा रहुंगा.
मगर तुम
जीकर भी मरते रहोगे.
Monday, March 8, 2010
क्रान्तिदूत की चुनौती
"खायी है ईंसानों ने टक्कर ऎसी कि हर दीन के मांथे से लहु जारी है".लेकिन एसी टक्कर क्यों कि ईंसान तडपकर अपनी जान दे दे?भूख और लाचारी से तडपते हुए बार-बार ईश्वर को याद करे,खुदा कि फ़रियाद करे और बदले मे मौत मिले तो ईंसान क्या करे?.किसी के मां-बहन की ईज्जत लूटी जाये,वह धैर्य रखे और न्यायालय पर यकीन करे फ़िर उसके बलात्कार का मजाक उडाकर उसे झुठा साबित कर दिया जाये,तो ईंसान क्या करे?पुर्वजों के नक्से-कदम पर जिंदगी जिये,ठाकुरों की सेवा करे,फ़िर अचानक किसी छोटी सी भूल के लिये उसके सारे पुर्वजों को गाली देकर उसे हरामी माना जाये तो ईंसान क्या करे?जब डाक्टर ईलाज के बदले चोरी से किडनी बेच दे,पुलिस धक्के मारकर दूर फ़ेंक दे और कोई बहुत बडा आदमी किसीके ईशारे से रगों मे जहर ठूस दे तो ईंसान क्या करे?देवी मां के मंदिर मे उसे जाने न दिया जाये और यदि वह चला जाये तो उसे.................ऊफ़......?
..................खुद को खुदा कहनेवाले, परम सत्य, सर्व-शक्ति-संपन्न,सर्वव्यापी विधाता यह सारे प्रश्न क्रांतिदूत तुमसे पुछता है. आज तक तुमनें इन प्रश्नों के जवाब नहीं दिये हैं. क्रांतिदूत के पास इन प्रश्नों के जवाब हैं.वह तुम्हारी शक्ति का सम्मान करता है पर तुम्हारे न्याय को नहीं मानता.और वे लाचार जिन्होंने तुम्हारी पत्थर की मुर्ति को कबका उथाकर फ़ेंक दिया अब क्रांतिदूत का सम्मान करता है.
इसी बात का जलन है तुम्हें.इसलिये उन लाचारों कि सहायता के लिये मैं जब भी हाथ बढाता हूं तुम अपने चमचों(ईंसानों के वेश में शैतान)के जरिये मेरे हाथों को काटने की कोशिस करते हो जब परीक्षा भी तुम ही लेते हो,जांच भी स्वयं करते हो और परिणाम भी खुद सुनाते हो तो मैं जानता हूं कि मेरे खिलाफ़ तुम्हारा फ़ैसला क्या होगा?तुम तो मेरे साथ भी वही करोगे जो कई क्रांतिदूतों के साथ तुमने पहले भी किया. कुछ पल के लिये शायद तुम जीत भी जाओगे.
..............लेकिन मैं लाचारी से हुई उनकी मौतॊं पर रोऊंगा.अन्याय के खिलाफ़ उठने वाले स्वरों को आवाज दुंगा.जब कोई बच्चा फ़ुटपाथ पर दुध के लिये रोते हुए दम तोड देगा तो मैं आंसु भी बहाऊंगा.............पर मेरी चुनौती है तेरी पत्थर की मुर्ति को फ़ेंकने के बाद जो खाली जगह बचा है वहां मेरे मरने के बाद मेरी तस्वीर लगेगी.
..................खुद को खुदा कहनेवाले, परम सत्य, सर्व-शक्ति-संपन्न,सर्वव्यापी विधाता यह सारे प्रश्न क्रांतिदूत तुमसे पुछता है. आज तक तुमनें इन प्रश्नों के जवाब नहीं दिये हैं. क्रांतिदूत के पास इन प्रश्नों के जवाब हैं.वह तुम्हारी शक्ति का सम्मान करता है पर तुम्हारे न्याय को नहीं मानता.और वे लाचार जिन्होंने तुम्हारी पत्थर की मुर्ति को कबका उथाकर फ़ेंक दिया अब क्रांतिदूत का सम्मान करता है.
इसी बात का जलन है तुम्हें.इसलिये उन लाचारों कि सहायता के लिये मैं जब भी हाथ बढाता हूं तुम अपने चमचों(ईंसानों के वेश में शैतान)के जरिये मेरे हाथों को काटने की कोशिस करते हो जब परीक्षा भी तुम ही लेते हो,जांच भी स्वयं करते हो और परिणाम भी खुद सुनाते हो तो मैं जानता हूं कि मेरे खिलाफ़ तुम्हारा फ़ैसला क्या होगा?तुम तो मेरे साथ भी वही करोगे जो कई क्रांतिदूतों के साथ तुमने पहले भी किया. कुछ पल के लिये शायद तुम जीत भी जाओगे.
..............लेकिन मैं लाचारी से हुई उनकी मौतॊं पर रोऊंगा.अन्याय के खिलाफ़ उठने वाले स्वरों को आवाज दुंगा.जब कोई बच्चा फ़ुटपाथ पर दुध के लिये रोते हुए दम तोड देगा तो मैं आंसु भी बहाऊंगा.............पर मेरी चुनौती है तेरी पत्थर की मुर्ति को फ़ेंकने के बाद जो खाली जगह बचा है वहां मेरे मरने के बाद मेरी तस्वीर लगेगी.
Friday, March 5, 2010
वैदेही
वैदेही दिवाल से कान सटाकर सुन रही थी.पिताजी कह रहे थे -" मैं अपना प्रण नहीं तोडुंगा.वैदेही की सादी में दहेज नही दुंगा.आज लडके के पिताजी ने माना कि वैदेही गुणवती है लेकिन फ़िर भी शादी से मना कर दिया". मां रोते हुए बोली-"आज कल विना दहेज के शादी कौन करता है.ऎसे मे तो आपके कारण हमारी बेटी कंवारी ही रह जायेगी".पिताजी का जबाब था-"चाहे जो भी हो ,मेरी बेटी कोई खुंटा नहीं है जिससे खरीदकर लाये गये किसी बैल को बांध दूं".वैदेही मन ही मन मुस्कुरा रही थी.वह निश्चिंत थी.अब या तो वह जिंदगी भर एक महान बाप की बेटी बन कर जीयेगी या एक आदर्श व्यक्ति की पत्नी बनेगी जो वैदेही को चाहेगा दहेज को नहीं.
Tuesday, March 2, 2010
औरत......तुम फ़िर से दासी बनोगी.
दिनांक 8 मार्च को महिल दिवस के रुप में मनायी जाती है.महिला सशक्तिकरण,उपलब्धियां,महिलाओं की स्थिति आदि विषयों पर ढेर सारी चर्चायें की जाती है.निश्चय ही महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर हुई है. भ्रुण-हत्यायें,बच्चियों का स्कुल न जाना,छेडखानी,प्रताडना, दहेज आदि मामले पहले से काफ़ी कम हुए हैं.दुसरी तरफ़ उपलब्धियों में भी सम्मनजनक वृद्धि दर्ज की गयी है.
....लेकिन मैं मानता हूं कि महिलाऒं से संबद्ध मामलों में बुद्धिजीवियों की राय सदैव ही अव्यवहारिक रही है.यह कटु सत्य है कि नारी शक्ति-स्वरुपा होती है.उसे "अबला" समझना मुर्खता है और "अबला" कहना उसे अपमानित करना और पुरुषों के वर्चस्व को स्थापित करने हतु एक कुटिल चाल है. पुरुष और नारी एक दुसरे के सम्पुरक हैं.दोनो बरबरी के लिये संघर्ष करें तो यह उचित भी है और कल्याणकारी भी.
निस्सन्देह औरतों की बौद्धिक क्षमता पुरुषों से अधिक होती है.उनका हृदय भी विशाल होता है.स्नेह कृतग्यता,त्याग,क्षमाशीलता आदि सद्भावों में स्त्रियों के मुकाबले पुरुष कहीं नहीं ठहरते.वह जननी है ,उसे चुनौती देना असंभव है.ऐसे में औरतों को अबला कहकर अधिक कानुनी अधिकार प्रदान किये गये.शिक्षादि सुविधायें अधिक दी गयी.कुछ आरक्षण दिये जा चुके हैं कुछ दिया जानेवाला है.......अर्थात और ही सशक्तिकरण.
सिर्फ़ अधिक कानुनी अधिकार प्राप्त कर महिलाओं ने शक्ति का कम, उदंडता का अधिक परिचय दिया है.लगभग 95 % झूठे दहेज और प्रताडना की शिकायतें दर्ज की गयी.आज समझदार पुरुष सिर उठाकर भी महिलाऒं से बात नही कर सकते ,क्योंकि बेवजह भी औरत चाहे तो पुरुषों को जेल की हवा खिला सकती है.भ्रुण हत्याओं और दहेज की मांग मे मुलतः महिलायें जिम्मेबार हैं लेकिन उंगलियां मर्दों पर उठायी जाती है.वेश्यावृति को बढावा महिलायें दे रही हैं और सवाल ग्राहकों (पुरुषों) की मानसिकता पर उठायी जाती है.
हां, पुलिस और न्यायालय के लोग (वकील और जज भी) कानुनी रुप से बाध्य होकर महिलाओं को प्रोत्साहन अवश्य देते है लेकिन शिकार भी अधिकतर यही लोग करते हैं..............सच यह है कि आज पुरुष प्रताडित हो रहा है महिलाओं के द्वारा. महिलायें स्वतः ही आगे बढ रही हैं. उपर से आरक्षण भी दिया जा रहा है. कुछ राज्यों नें पंचायत स्तर पर महिलाओं को आरक्षण का जो लाभ दिया उसका दुखद परिणाम सामने आ रहा है.
कुछ सालों मे सभी क्षेत्रों में महिलाओं का वर्चस्व कायम होगा.पुरुषों के किसी भी बात से यदि उन्हें दुख पहुंचा तो फ़िर छेडखानी, प्रताडना, दहेज और बलात्कार जैसे झुठे मुकदमें तैयार किये जायेंगे.पुरुषों का वर्चस्व समाप्त होगा और महिलाओं के अधिपत्य की शुरुआत होगी.ठीक वैसे ही सभी अधिकार दे दिये जायेंगे जैसे कि ॠग्वेदिक काल मे औरतों को प्राप्त था.
..................और अंत में बाध्य होकर यही पुरुष समाज औरतों से सारे अधिकार छिन लेगा और उसे फ़िर से दासी बना देगा.इसलियें औरतें.....सावधान......तुम्हें शक्ति प्रदान करने के लिये जो उपकरण दिये जा रहे हैं उसे हथियार बनाकर समाज पर मत घुमाओ.,अन्यथा.............तुम फ़िर से दासी बनोगी.
....लेकिन मैं मानता हूं कि महिलाऒं से संबद्ध मामलों में बुद्धिजीवियों की राय सदैव ही अव्यवहारिक रही है.यह कटु सत्य है कि नारी शक्ति-स्वरुपा होती है.उसे "अबला" समझना मुर्खता है और "अबला" कहना उसे अपमानित करना और पुरुषों के वर्चस्व को स्थापित करने हतु एक कुटिल चाल है. पुरुष और नारी एक दुसरे के सम्पुरक हैं.दोनो बरबरी के लिये संघर्ष करें तो यह उचित भी है और कल्याणकारी भी.
निस्सन्देह औरतों की बौद्धिक क्षमता पुरुषों से अधिक होती है.उनका हृदय भी विशाल होता है.स्नेह कृतग्यता,त्याग,क्षमाशीलता आदि सद्भावों में स्त्रियों के मुकाबले पुरुष कहीं नहीं ठहरते.वह जननी है ,उसे चुनौती देना असंभव है.ऐसे में औरतों को अबला कहकर अधिक कानुनी अधिकार प्रदान किये गये.शिक्षादि सुविधायें अधिक दी गयी.कुछ आरक्षण दिये जा चुके हैं कुछ दिया जानेवाला है.......अर्थात और ही सशक्तिकरण.
सिर्फ़ अधिक कानुनी अधिकार प्राप्त कर महिलाओं ने शक्ति का कम, उदंडता का अधिक परिचय दिया है.लगभग 95 % झूठे दहेज और प्रताडना की शिकायतें दर्ज की गयी.आज समझदार पुरुष सिर उठाकर भी महिलाऒं से बात नही कर सकते ,क्योंकि बेवजह भी औरत चाहे तो पुरुषों को जेल की हवा खिला सकती है.भ्रुण हत्याओं और दहेज की मांग मे मुलतः महिलायें जिम्मेबार हैं लेकिन उंगलियां मर्दों पर उठायी जाती है.वेश्यावृति को बढावा महिलायें दे रही हैं और सवाल ग्राहकों (पुरुषों) की मानसिकता पर उठायी जाती है.
हां, पुलिस और न्यायालय के लोग (वकील और जज भी) कानुनी रुप से बाध्य होकर महिलाओं को प्रोत्साहन अवश्य देते है लेकिन शिकार भी अधिकतर यही लोग करते हैं..............सच यह है कि आज पुरुष प्रताडित हो रहा है महिलाओं के द्वारा. महिलायें स्वतः ही आगे बढ रही हैं. उपर से आरक्षण भी दिया जा रहा है. कुछ राज्यों नें पंचायत स्तर पर महिलाओं को आरक्षण का जो लाभ दिया उसका दुखद परिणाम सामने आ रहा है.
कुछ सालों मे सभी क्षेत्रों में महिलाओं का वर्चस्व कायम होगा.पुरुषों के किसी भी बात से यदि उन्हें दुख पहुंचा तो फ़िर छेडखानी, प्रताडना, दहेज और बलात्कार जैसे झुठे मुकदमें तैयार किये जायेंगे.पुरुषों का वर्चस्व समाप्त होगा और महिलाओं के अधिपत्य की शुरुआत होगी.ठीक वैसे ही सभी अधिकार दे दिये जायेंगे जैसे कि ॠग्वेदिक काल मे औरतों को प्राप्त था.
..................और अंत में बाध्य होकर यही पुरुष समाज औरतों से सारे अधिकार छिन लेगा और उसे फ़िर से दासी बना देगा.इसलियें औरतें.....सावधान......तुम्हें शक्ति प्रदान करने के लिये जो उपकरण दिये जा रहे हैं उसे हथियार बनाकर समाज पर मत घुमाओ.,अन्यथा.............तुम फ़िर से दासी बनोगी.