Friday, June 24, 2011

मैं ,मेरी श्रीमतीजी और......( भाग-१९, व्यंग्य)




राजा को घर से निकालना मामुली काम नहीं था, लेकिन प्रयास तो किया ही जा सकता था.मैंने सीधे तौर पर यह बात राजा से कहना उचित नहीं समझा क्योंकि उसकी भाषा ठीक नहीं है. स्वाभिमान की रक्षा के साथ-साथ सम्मान की भी रक्षा करनी थी.मैंने श्रीमतीजी को धीरे से समझाया------" सालेजी(राजा) का व्यवहार मुझे पसंद नहीं है"

"अपना व्यवहार ठीक रखोगे तो सब का व्यवहार पसंद आयेगा"

"उसने मेरे बेटे को चड्ढीलाल कहकर बेइज्जत किया है."

"तुम्हारा बेटा उसका भी भांजा है. वह चड्ढीलाल प्यार से बोला होगा."

"लेकिन उसके इस व्यवहार से मेरे स्वाभिमान को ठेस पहुंचा है."

" मेरे और मेरे माइके वालों से अच्छा संबंध चाहते हो तो स्वाभिमान से समझौता कर लो."

" लेकिन पिता के रुप में मेरा फ़र्ज बनता है कि बेटे का साथ दूं."

"पिता का फ़र्ज बच्चे की पढाई-लिखाई और देखभाल करना होता है न कि मामा-भांजे में कङुआहट पैदा करना"

वह एक तरफ़ चाकू से सब्जी काट रही थी तो दूसरी तरफ़ बङी बेरहमी से मेरे सटीक तर्कों के टुकङे कर रही थी.अब तर्कों के बदले सीधी बात कहना ही उचित था----"अपने भई राजा से कह दो कि बोरिया-बिस्तर समेटकर गांव चला जाये."

" बिल्कुल नहीं. मैं ऐसा नहीं कर सकती और तुम्हें भी ऐसा नहीं करने दुंगी. खबरदार जो इस तरह की बात जुबां पर लाये"

मैं जान रहा था कि राजा ने अपनी प्यारी बहना को बाबागिरि से कमाये नोटों की गड्डी थमा दी थी. अर्थ अनर्थ कर रहा था. फ़िर मैं थोङा सा इमोशनल टच देकर श्रीमती जी को पक्ष में करना चाहा---" तुम तो मुझे पति-परमेश्वर कहती हो फ़िर भी मेरी बात नहीं मानोगी?"

" पति तो परमेश्वर होता ही है लेकिन भाई भी भगवान होता है. तुम कैसे भी इमोशनल अत्याचार कर मुझे अपने भाई के खिलाफ़ नहीं कर सकते."

इमोशन तो मेरी श्रीमतीजी में कूट-कूटकर भरी हुई है लेकिन मायकेवालों के लिये.रुपये के बल पर राजा मेरे घर में राज कर रहा था. तभी टिंकू अपने दोनो हाथों से एक-एक आइस्क्रीम खाते हुए हमारे पास आया और मम्मी से कहने लगा---" मम्मी, मामाजी मुझे बहुत प्यार करते हैं, देखो न दो-दो आइसक्रीम दिया है". श्रीमतीजी ने पूछा---" तो फ़िर पापा से मामा की शिकायत क्यों की ?"

" पापा से तो मैंने सिर्फ़ इतना कहा था कि मामाजी मुझे प्यार से चड्ढीलाल बुलाते हैं."

जब मेरा बेटा ही दो आइसक्रीम के बदले अपना ईमान बेच लिया था तो अर्थ का इससे बढकर अनर्थ क्या हो सकता था. इस तरह के छोटे-छोटे कमीशन के चक्कर में तो लोग देश तक से गद्दारी कर देते हैं, पिता-पुत्र के संबंध का मोल ही क्या है ?.उपर से श्रीमतीजी मेरी तरफ़ आंखों में क्रोध और दया भाव को मिक्स करते हुए देख रही थी. वह तनिक जोर से बोली---"क्या कहूं तुझे....अपने ही घर की खुशी तुमसे देखी नहीं जाती?...राजा को बेईज्जत कर घर भेजने जैसा अनर्थ करवाना चाहते थे मुझसे.?" तभी बीच में राजा आ टपका---" कौन सा अनर्थ करवाना चाहते थे बहना, मुझे बता.". मैंने हालात को सम्हालना चाहा---"मैंने चाय बनाने के लिये.....बोला तो बोली कि अनर्थ करवाना चाहते थे"

" जीजे... अपुन तेरे को समझा देता है......अभी दो बजे दिन में चाय का टाईम है क्या ? ऐसा बोल के तुम किसी औरत को टोर्चर करेगा तो सीधा फ़ोर-नाइन्टी के मामले में अन्दर जायेगा.......और तू चिन्ता मत कर बहना, मेरे ढाई किलो के हाथ की कलाई पर जो राखी बांधा है न तुमने...उसकी कसम कोई भी टोर्चर करे तो अपुन को बताना"

श्रीमतीजी राजा की बातों से ज्यादा ही उत्साहित हो रही थी. भाई के प्रति स्नेह ने आंखों मे सैलाब भी ला दिया था. वह भाइ के कलाई को हाथ में लेकर गाना गाने लगी-------

"भैया मेरे , राखी के बंधन को निभाना.

.लगा दे अपने जीजा को ठिगाना, ठिगाना"

अपनी बहन की आंखों में आंसू देखकर राजा की आंखों से अंगारे टपकने लगे. स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा तो दूर अब तो जान बचाना भी मुश्किल लग रहा था. अब आत्म-रक्षार्थ सच बोल देना ही ठीक था----

" ऐसी कोई बात नहीं है राजा. मैं चाहता था कि तुम गांव (बिहार) चले जाओ"

"ऐसा क्यों बोल रहा है जीजे. अपुन कुछ भी कर सकता है लेकिन गांव नहीं जा सकता"

"गांव क्यों नहीं जा सकते?"

"काहे कि अपने यहां का सरकार बदल गया है. नया सरकार में अपहरण और फ़िरौती का धंधा पूरा चौपट हो गया है. लालटेन बुझाकर लोग अब बिजली जलाता है. साला चोरी करना भी पोसिबुल नहीं रह गया है. उपर से पुलिस और कोर्ट इतना टाईट हो गया है कि जितना भी अपराधिक किसिम का जेन्टल्मेन लोग है उसे जेल में ठूस देता है. पहले का फ़ालतू लोग भी अब नौकरी करने लगा है. रैला भी निकालना बंद हो गया है. पहले रोड पे बाईक चलाता था तो फ़िलम के स्टंट जैसा लगता था, अब जब हेमा-मालिनी डोकरिया हो गयी है तब जाके रोड चिकना हुआ है. सबसे बङका प्रोबलेम तो एडुकेशन डिपार्टमेंट में हुआ है, जिस स्कूल में अपनी भैंसिया रहती थी उसमे टीचर लोगों को भेज दिया है आ बच्चा सबको सायकिल दे दिया है.सायकिल के चक्कर मे लङका आ लङकी लोग गाय बकरी चराना ही बंद कर दिया है. गाय-बकरी सब खुल्ला घूम रहा है---सारा फ़सल बरबाद हो रहा है. पहले फ़सल तो बचता था भले ही लोग गैया का चारा खा जाता था"



5 comments:

शिखा कौशिक said...

bahut khoob vyangy.aabhar

vijai Rajbali Mathur said...

ठीक कहते हैं आप आज कल लोग कमीशन के चक्कर में देश बेचने को तैयार हैं.लालच ही तो उनका धर्म है.

संजय @ मो सम कौन... said...

अरविंद भाई,
धन्य हो जो ऐसे चारों धाम मिले हैं:)

उपन्यास रूप में हिट आईटम जाने वाला है ये महाकाव्य। बधाई।

Urmi said...

आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
सही मुद्दे को लेकर बहुत बढ़िया और शानदार व्यंग्य! "लालच बुरी बला है " ये हम सब जानते हैं पर क्या किया जाए अगर कोई अपने कर्म से बाज़ न आए !

निर्मला कपिला said...

बहुत खूब लगता है एक उपन्यास जितना मसौदा हो गया है। शुभकामनायें।