Friday, December 30, 2011

शुभकामनायें

शुभकामनायें

शुभ वर्ष 2012----------- मंगल वर्ष 2012--------------- नूतन वर्ष 2012

नई आशाएं, नयी योजनायें, नये प्रयास, नयी सफ़लता, नया जोश, नई मुस्कान, नया वर्ष बीस-बारह .


समृद्धशाली, गौरवपुर्ण, उज्ज्वल, सुखदायक, उर्जावान, विस्मयकारी, स्मृतिपुर्ण नव वर्ष बीस -बारह।



जीवन-मरण की सीमाओं मे बंधा हुआ नगण्य सा प्राणी मानव, काल-चक्र की द्रुतगति मे वीते वर्ष की परिधि बिंदु पर सांस लेता हुआ मानव, कालदेव की इच्छा-मात्र के अनुरूप अपने-अपने कर्तव्य एवम अधिकार के झंझावातों मे उलझा हुआ मानव और अन्य - प्राणियों की भांति अपनी लघुतर आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कठिनतम प्रयास करता हुआ मानव का जीवन नव वर्ष बीस बारह में मंगलमय हो.



कालदेव नव वर्ष बीस बारह के प्रत्येक क्षण आपके मुख-मंडल को दिवसदेव सूर्य की भांति तेजपूर्ण और कोमल पुष्प के समान प्रसन्नचित रखें. समय की धारा तरंगमयी सागर के लहरों की तरह आपके हृदय को तरंगित करें, रात्रि-राजन चंद्रदेव की तरह निर्मल करें, अमृतमयी गंगाजल की भांति पवित्र रखें और मदमस्त निर्झर-जल की भांति निश्छल बनायें--यही मेरी शुभकामनायें हैं.



देवाधिदेव महादेव जो प्रत्येक क्षण व प्रत्येक कण के सतत विनाशक हैं आपके सभी दुख-दर्द को नष्ट कर आपके जीवन के सभी विषों का पाण करें जिससे परमपिता ब्रह्मा नष्ट हुए प्रत्येक रिक्तियों में सुख-समृद्धि की नव-सृष्टि करें साथ ही साथ जग के पालक साक्षात नारायण आपका कल्याण करें. त्रिदेवों के परम आशिर्वाद से नव-वर्ष बीस-बारह में आपके जीवन में एक नयी शक्ति का उदय हो जिसके समक्ष आपकी शारिरिक, मानसिक व आध्यात्मिक दूर्बलतायें स्वतः ही अपना पराभव स्वीकार करे---ये मेरी शुभकामनायें हैं.





दूर क्षितिज पर जहां अनन्त महासागर के तरंगित शीष अनंताकाश के स्थिर पांव का कामुक चुंबन करती है उसी गर्भ-बिन्दु से समस्त उर्जा के वाहक सूर्य के उदय के साथ ही काल चक्र का एक मजबूत स्तंभ विगत वर्ष के रूप में स्वर्णिम अतीत की ममतामयी गोद में समा गया है, उसी तरह निश्चय ही सुखद कालचक्र का अगला दृढ स्तंभ नववर्ष बीस-बारह सभी नूतनताओं को पूरी उर्जा के साथ स्वयं में ज्योति-स्वरूप समेटते हुए आपके समक्ष गौरव-पूर्ण भविष्य के रूप में प्रस्तुत हो रही है जो आपके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ज्योति फ़ैलाकर परम-सुख का निर्माण करे---ऐसी मेरी शुभकामनायें हैं.





निर्मल प्रकृति की प्रचंड शक्ति आपके स्वस्थ शरीर, साकारात्मक गुण , विवेकशील बुद्धि एवं धैर्यपुर्ण आत्मिक बलों में गुणोत्तर वृद्धि करते हुए आपके जीवन में ऐसी दिव्यता प्रदान करे कि स्वतः ही लोभ, स्वार्थ, दुराचार , रोग-व्याधि जैसी नाकारात्मक शक्तियां व दूर्बलतायें आपके महान व्यक्तित्व के समक्ष नतमस्तक होवें--यह मेरी शुभकामनायें हैं.





सभी दुख-दर्द एवं अन्य समस्यायें जो प्रकृत के नियम हुआ करते हैं उसमे काल के वक्ष पर आपके कर्मठ हाथों से आरेखित सुचित्र वैधानिक परिवर्तन करते हुए सुखद व सफ़ल परिणति देगी. नया वर्ष बीस बारह आपके जीवन की संभावनाओं को आपके हृदयस्थ आशाओं से कई गुणा अधिक बढाकर आपके जावन में तदनुरुप उपलब्धियों की अमृतमयी वृष्टि करे---यह मेरी शुभकामनायें हैं.



अपार संभावनाओं के संग नूतन आशायें नव ज्योति बनकर प्रातः-स्वरुप रश्मि-किरण के रूप मे प्रगट हो रही है.यह दिव्य किरण पूंज आपके अनन्त जीवन को सदा के लिये प्रकाशित करे साथ ही आप अनन्त ऊर्जा का अविरल संचार पाकर निर्मल चान्द की तरह युगों तक स्वयं एवं संसार के कल्यानार्थ प्रकाशवान हों.यह परम सत्य है कि क्षण क्षणभर का होता है ,नष्ट होना प्रकृत के नियम हैं परन्तु यह भी उतना ही सच है कि आपके चरण-चुंबन हेतु सृष्टि लगातार अनन्त क्षणो को सृजित करती है.भविष्य के गर्भ से लगातार जन्म ले रहे इन क्षणों में ईश्वर इतनी शक्ति दें कि आपके रज कणों से आशाओं के महलों का निर्माण हो ---नये वर्ष पर यह हमारी शुभकामनायें है.









फ़ूलों से सजी हो चमन की तरह

सितारों से सजी हो गगन की तरह

खूशबू इतनी कि फ़ूल फ़ींका लगे

मस्ती हो बसंती पवन की तरह.



आपका हर दिन होली गुजरे

आपकी हर रात दिवाली हो.

सुख इतनें हों कि क्या कहने

हर पल चेहरे पर लाली हो.



हम चाहते है यह नया वर्ष

आपके जीवन को दे उत्कर्ष

हर सपने पूरे हों जो चाह रहे.

मिले खुशियां हों अपार हर्ष



अरविन्द झा











Monday, December 26, 2011

सत्यनिष्ठा




नौकरी का आवेदन पत्र भेजने के सात साल बाद चन्द्राकर को साक्षात्कार के लिये बुलाया गया.अब उसे नौकरी की जरूरत नहीं थी क्योंकि वह बिजनेस करने लगा था , लेकिन अनुभव प्राप्त करने के लिये वह साक्षात्कार बोर्ड में उपस्थित हुआ.एक सदस्य ने पूछा..."इस पद के लिये आपमे कितनी काबिलियत है?" जबाव था---"सर यह पद आरक्षित है और मैं अकेला उम्मेदवार हूं. "दूसरे सदस्य ने पूछा---"आपको इस पद पर काफ़ी मेहनत करनी होगी.?"चन्द्राकर ने कहा--"सर मेहनत करने की मुझे आदत नहीं है...हां मैं चमचागिरी कर सकता हूं."तीसरे सदस्य ने कहा---"क्या आप विश्वास दिलायेंगे कि आप ईमानदारी से काम करेंगे ".उसने छूटते ही उत्तर दिया---"हां मैं यकीन दिलाता हूं कि भ्रष्टाचार से कमाये गये सभी रुपयों का हिसाब और कमीशन उपर के अधिकारी तक ईमानदारी से पहुंचा दूंगा."फ़िर बोर्ड के चेयर्मैन ने उसे यह कहते हुए बधाई दी कि उसका चयन कर लिया गया है.जाते समय चन्द्राकर यह जानना चाहता था कि उसके चयन का आधार क्या था.कुछ कहने के बदले चेयर्मैन ने उसके तरफ़ एक पुरानी पेपर जिसमे भारत का मानचित्र खींचा था और जिसके बीच मे एक जगह पर सत्यनिष्ठा लिखा हुआ था उसकी ओर बढा दिया.

Wednesday, October 19, 2011

कसौटी



पाप निकलता ही है.

पुण्य बचता ही है.

धर्म बहता ही है.

कर्म करता ही है.

गुण चमकता ही है.

बुराई छलकता ही है.

देखो कसता कसौटी पर

काल अटकता नहीं है.

Wednesday, October 12, 2011

मेरी कविता -2

सुबह ओंस की बूंदों से ,सबसे पहले मिलती है

सुनहली किरणों मे तो वह फ़ूलों सी खिलती है.

सूरज के संग आसमान में चढती है मेरी कविता

नये दिवस की नई कहानी गढती है मेरी कविता



रोज गगन में छू लेती है ऊंचाई की नयी बुलन्दी

जब भी होती है दोपहर में रोशनी से जुगलबन्दी

पूरी ताकत मेहनतकश में भरती है मेरी कविता

सूरज की गर्मीं से भी कब डरती है मेरी कविता.


न ही गिर जाने का दुख नहीं ढल जाने का गम

कर देती थकान वह पल भर में ही कितना कम

सांझ के अंधियारे में दीप सजाती है मेरी कविता

मुरझाये चेहरों पर संगीत बजाती है मेरी कविता.



Thursday, September 15, 2011

मेरी कविता.




शब्दों का ये जाल नहीं, मृदु-भाव मेरे हैं अंगूरी

रात की काली चादर पर दिखती है यह सिंदूरी.

अल्हङ सी नदिया के जैसी बहती है मेरी कविता.

फ़ूस के घर में रानी जैसी रहती है मेरी कविता.



पानी की रिम-झिम बूंदों से बात बहुत करती है

रहती है भूखे पेट भले , पर कभी नहीं मरती है

दिल के घर मन के बिस्तर सोती है मेरी कविता.

खुशियों के जोर ठहाकों में भी रोती है मेरी कविता.



सागर के खारे पानी में भी वह मय भर देती है

मरने वाले इंशानों को भी वह जिंदा कर देती है.

सन्नाटे में नाच - नाचकर गाती है मेरी कविता

टूटे दिल की गहराई तक जाती है मेरी कविता.

Monday, August 8, 2011

खुद



खुद ने खुदको किया पराजित

खुद ही खुद से हारा है.

खुद ने साथ दिया खुदको

खुद ने ही खुदको मारा है.



यह खुद की ही थी गर्जी

चलती रही खुद की मर्जी.

गैरों में होती ताकत तो

खुद क्यों खुद का सहारा है.

खुद ही खुद से हारा है.



खुद की एक बात बताता हूं.

यह सारा खेल खुदी का है.

मानो तो खुदा खुद में बैठा

वरना खुद खुद का कारा है.

खुद ही खुद से हारा है.



कई खुदों ने खुद से मिलकर

कहा साथ निवाहेंगे वे.

लेकिन फ़िर क्यों आज कब्र में

सिर्फ़ खुदी को गाङा है.

खुद ही खुद से हारा है.



क्रांतिदूत यह खुदा खूब है

जो खुद पत्थर की मूरत है.

मिला दिया जो सबको खुद में

सच्चे मजहब का नारा है.

खुद ही खुद से हारा है.

Thursday, July 28, 2011

मेरी मां की सूरत बहुत ही अलग है.

आंखों में उसकी दिखे सारा जग है.


मेरी मां की सूरत बहुत ही अलग है.



नयनों में है उसकी गंगा की धारा

आंचल से देती वो जग को सहारा.

खुदा तो किसी को नहीं माफ़ करता

ममता की मूरत बहुत ही अलग है.

मेरी मां की सूरत बहुत ही अलग है.



गुरु मांगता शीष चरणों में अपने

पिता कहते पूरे करो मेरे सपने

पूजा मांगता नभ में बैठा विधाता

मां की जरुरत बहुत ही अलग है.

मेरी मां की सूरत बहुत ही अलग है.



वफ़ा करती है मेरी महबूब चंदा

रोटी के लिये है दुनियां में धंधा.

पल में रुलाना खुदा की है आदत

मैया की फ़ितरत बहुत ही अलग है.

मेरी मां की सूरत बहुत ही अलग है.

Thursday, July 21, 2011

तो मांगूं एक पत्ता भी.


मिले अगर कोई विशाल

तो मांगूं एक जर्रा भी.

हो घना यदि कोई दरख्त

तो मांगूं एक पत्ता भी.



दुख में भी जो साथ रहे

संग चलूं , मारूं ठहाका.

चुल्हा यदि जला दे तो

साथ क्यों न दूं हवा का.

दिखे कहीं भी शक्ति-पुंज

तो क्षमा-याचना मैं कर लूं.

निर्मल कर से स्पर्श करे

तो मानूं उसकी सत्ता भी.

हो घना यदि कोई दरख्त

तो मांगूं एक पत्ता भी.



देखूं लहराता भुजा वीर की

सहर्ष कटा लूं अपना सिर.

मिल जाये कोई सच्चा दिल

तो मानूं खुद को काफ़िर.

अग्नि-पथ पर साथ चले

तो संग चलूं जीवन भर मैं.

"क्रांतिदूत" पथ चलूं अकेला

भांङ में जाये जत्था भी.

हो घना यदि कोई दरख्त

तो मांगूं एक पत्ता भी.

Wednesday, July 13, 2011

यह इंसानों की बस्ती है.

सच नकाब में होता है , यहां नहीं नंगा कोई.

सबका दिल घायल घायल यहां नहीं चंगा कोई.

सच्चे प्यार - मोहब्बत पर नफ़रतों की गश्ती है.

यह इंसानों की बस्ती है यह इंसानों की बस्ती है.



बङे-बङे महलों के आगे सङकों पर बच्चे सोते हैं.

महलों में कितनी बेचैनी है ,वहां भी सारे रोते हैं.

रोटी बिकती मंहगी है पर बंदूकें काफ़ी सस्ती है.

यह इंसानों की बस्ती है यह इंसानों की बस्ती है.



सबके अपनें जात बने हैं सबका अपना मजहब है.

न कोई अपना कोई पराया , खुदी से ही मतलब है.

रुपयों में बिकता जिस्म है रुपयों से ही मस्ती है.

यह इंसानों की बस्ती है यह इंसानों की बस्ती है.



घर के दुधिया रौशन में अब चांद नहीं दिखता है.

मन के कारे बदरी में अब तो सूरज भी छिपता है.

नहीं जानता एक दिन सबकी डूबनेवाली किश्ती है.

यह इंसानों की बस्ती है यह इंसानों की बस्ती है.

Wednesday, June 29, 2011

मैं ,मेरी श्रीमतीजी और......( भाग-२१, व्यंग्य)



अब ससुरजी के सिवा और कोई नहीं था जो मेरी समस्या हल कर दे..मैं उनके पास गया ,पर जाते ही बिना कुछ सुने कहने लगे----" दामादजी अभी तक चार वेद और अठारह पुराण लिखे गये हैं. मैं उन्नीसवां पुराण लिख रहा हूं....जिसका नाम है भ्रष्ट-पुराण. आपको शुरुआत की पंक्तियां सुनाता हूं.---



लिखत व्यास हो मुदित देख मुख भक्त भ्रष्टण के

हर्षित गावत हरि-लीला, हर-लोभी, हरे-रुपयण के

भ्रष्टाचार - विरोधी जन-जन के सकुशल दमन के

हृदय-भाव भांपत कवि महा-भारत के जन-गण के.



व्यास उवाच

स्वर्ग-भूमि से महर्षि नारद भारत भूमि जावत है.

देव दनुज और नर-नारि सबहिं को भ्रष्ट पावत हैं.

लोक-सभा के केंटिन में सस्ता रस्गुल्ला खावत हैं.

प्रभु के लिये वहां से मंहगी पेप्सी-कोला लावत हैं.



अर्थ और भूगोल विविधता देख स्वं में खोवत हैं

सुनकर कथा काले धन की फ़ूट-फ़ूटकर रोवत हैं.

खाली पेट पंद्रह - रुपये का पानी पीकर सोवत हैं.

नर किन्नर पशु पक्षी सभ के दुख-गठरी ढोवत है.



न सहत जात नारद से तब खोपङिया तनिक घुमावत हैं.

स्वर्ग - लोक में नारायण को फ़ोनहिं से हाल सुनावत हैं.

वोट लीला का मानचित्र तब हर्षित हो प्रभु को दिखावत हैं.

एक-एक कर काले धन का डाटा पलभर में ही लिखावत हैं.



सुनकर व्यथा भारत माता की स्वयं नारायण रो रहा था.

नरक की तरह अर्थ पर भी अर्थ का अनर्थ हो रहा था.



नारायण उवाच



तेरे दुख को देख रहा हूं स्वर्ग लोक से.

हे नारद, होकर सहज निष्कर्ष बताओ.

पता है गैस-सिलिन्डर मंहगा हुआ है.

कैसे हुआ मुद्रास्फ़िति का उत्कर्ष बताओ.

संसद भवन स्वर्ग-लोक से भी दिखता है.

निर्धन जन करते कितना संघर्ष बताओ.

बलात्कार और हत्या की बातें रहने दो.

हो कोई अच्छी खबर तो सहर्ष बताओ.



नारद उवाच



नारायण नारायण कुछ भी सहज नहीं है.

कीचङ का सागर फ़ैला पर जलज नहीं है.

कंस और रावण घर घर में बैठे दिखते हैं.

धृत-राष्ट्र को हस्तिनापुर की गरज नहीं है.



(प्रिय ब्लोगर बंधुओं, भ्रष्ट-पुराण की रचना अभी जारी है.पूरा होने पर इसे अलग से प्रकाशित किया जायेगा. इस संबंध में आप सब के सुझाव सादर आमंत्रित हैं. कृपया सुझाव टिप्पणी या मेल- अथवा फ़ोन न-९७५२४७५४८१ पर भेजें.साकारात्मक सुझाव भेजनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को मेरी स्वरचित काव्य---"मां ने कहा था" भेंटस्वरुप निःशुल्क भेजा जायेगा.) क्रमश:

Tuesday, June 28, 2011

मैं ,मेरी श्रीमतीजी और......( भाग-२०, व्यंग्य)



मैंने समझाया----"लेकिन राज्य का विकास तो हो रहा है ना ?"

"अरे जीजे.....राज्य के विकास के चक्कर में अपुन का विकास तो रुक गया न. अपुन गांव जायेगा तो अपटी खेत में मारा जायेगा. अब तो सरकार रोजगार का गारंटी दे रहा है, अब अपुन के पिच्छु-पिच्छु कौन घूमेगा. उपर से नौकरी में भी उपर का इनकम बंद हो गयेला है. मुख्य-मंत्री बोलता है कि कोई घूस मांगता है तो उसके मूंह पे मूत दो, अपुन कोई शौचालय का टंकी थोङे ही है. उपर से मूतनेवाले के पास भी इमानदारी का सर्टिफ़िकेट तो है नहीं.नर-मूत्र के बदले गौ-मूत्र पिलाया जाता तो पी भी लेता."

मैंने चुटकी ली----"क्यों नहीं, जब गाय का चारा खा सकते हो तो गौ-मुत्र पीने में हर्ज ही क्या है." लेकिन वह गुस्सा गया, बोला----"जीजे.....गाय का चारा खाना मामुली बात है क्या..?...अपुन एक थाली में गाय का चारा रखता है कोई खा के दिखाये. चारे का चार दाना तो चबा नहीं पायेगा कि सारा का सारा दांत हाथ में आ जायेगा. एक तो अपुन लोग गाय का चारा खाया उपर से गौ माता को स्कूटर और बाईक से एक शहर से दूसरे शहर घुमाया....फ़िए भी पब्लिक नाराज है."

जिस तरह राजनेता लाचार पब्लिक को मूल मुद्दे से ध्यान हटाकर फ़ालतू बात करते हैं उसी तरह राजा मेरे साथ कर रहा था. बेकार इस तरह की बातों से फ़ायदा ही क्या था. मैंने सीधे पूछा----" तुम गांव जाओगे या नहीं?" मेरा प्रश्न तो द्वि-वैकल्पिक था लेकिन राजा का जवाब दीर्घ-उत्तरीय निकला----"अपुन देश का नागरिक है और पूरा देश अपुन का है. कोई माई का लाल अपुन को शहर से गांव नहीं भेज सकता. अपुन चाहेगा तो मुम्बई में रहेगा, चाहेगा तो दिल्ली में. दूसरी बात साला साधू हो या गुंडा जीजा पर उसका भी हक है. तीसरी बात हम टपोरी का वायलेन्स से उतना प्रोबलेम नहीं है जितना जेन्टलमेन लोगों के सायलेन्स से है. अपुन तो कहेगा कि हम लोग क्राईम करता है तो काहे को एसी जेल में रखकर गरमा-गरम पूरी खिलाता है, चुप रहनेवाले जेन्टलमेन लोगों को चौराहे पर चप्पल मारो...सब ठीक हो जायेगा." अब मुझसे सहा नहीं जा रहा था---"यानि कि भद्र-पुरुशों को दंडित किया जाये..?" उसने बीच में ही टोका----" नहीं, सबकुछ आंखों के सामने देखकर भी चुप रहनेवाले पावरलेस जेन्टलमेन को पनिश करो तो सब ठीक हो जायेगा. अपुन जैसा माइनोरिटी में रहनेवाला क्रिमिनल जुबान काट लेता है जबकि मेजोरिटी वाला जेन्टलमेन लोग जुबान खोलने में भी शरम करता है.कितना शरम की बात है जीजे."

सालेजी के जुबान से कोई बात निकल जाये और वह उसे जस्टिफ़ाई न कर दे ये कैसे हो सकता है.



क्रमशः अगले भाग मे ससुरजी का भ्रष्ट-पुराण

Friday, June 24, 2011

मैं ,मेरी श्रीमतीजी और......( भाग-१९, व्यंग्य)




राजा को घर से निकालना मामुली काम नहीं था, लेकिन प्रयास तो किया ही जा सकता था.मैंने सीधे तौर पर यह बात राजा से कहना उचित नहीं समझा क्योंकि उसकी भाषा ठीक नहीं है. स्वाभिमान की रक्षा के साथ-साथ सम्मान की भी रक्षा करनी थी.मैंने श्रीमतीजी को धीरे से समझाया------" सालेजी(राजा) का व्यवहार मुझे पसंद नहीं है"

"अपना व्यवहार ठीक रखोगे तो सब का व्यवहार पसंद आयेगा"

"उसने मेरे बेटे को चड्ढीलाल कहकर बेइज्जत किया है."

"तुम्हारा बेटा उसका भी भांजा है. वह चड्ढीलाल प्यार से बोला होगा."

"लेकिन उसके इस व्यवहार से मेरे स्वाभिमान को ठेस पहुंचा है."

" मेरे और मेरे माइके वालों से अच्छा संबंध चाहते हो तो स्वाभिमान से समझौता कर लो."

" लेकिन पिता के रुप में मेरा फ़र्ज बनता है कि बेटे का साथ दूं."

"पिता का फ़र्ज बच्चे की पढाई-लिखाई और देखभाल करना होता है न कि मामा-भांजे में कङुआहट पैदा करना"

वह एक तरफ़ चाकू से सब्जी काट रही थी तो दूसरी तरफ़ बङी बेरहमी से मेरे सटीक तर्कों के टुकङे कर रही थी.अब तर्कों के बदले सीधी बात कहना ही उचित था----"अपने भई राजा से कह दो कि बोरिया-बिस्तर समेटकर गांव चला जाये."

" बिल्कुल नहीं. मैं ऐसा नहीं कर सकती और तुम्हें भी ऐसा नहीं करने दुंगी. खबरदार जो इस तरह की बात जुबां पर लाये"

मैं जान रहा था कि राजा ने अपनी प्यारी बहना को बाबागिरि से कमाये नोटों की गड्डी थमा दी थी. अर्थ अनर्थ कर रहा था. फ़िर मैं थोङा सा इमोशनल टच देकर श्रीमती जी को पक्ष में करना चाहा---" तुम तो मुझे पति-परमेश्वर कहती हो फ़िर भी मेरी बात नहीं मानोगी?"

" पति तो परमेश्वर होता ही है लेकिन भाई भी भगवान होता है. तुम कैसे भी इमोशनल अत्याचार कर मुझे अपने भाई के खिलाफ़ नहीं कर सकते."

इमोशन तो मेरी श्रीमतीजी में कूट-कूटकर भरी हुई है लेकिन मायकेवालों के लिये.रुपये के बल पर राजा मेरे घर में राज कर रहा था. तभी टिंकू अपने दोनो हाथों से एक-एक आइस्क्रीम खाते हुए हमारे पास आया और मम्मी से कहने लगा---" मम्मी, मामाजी मुझे बहुत प्यार करते हैं, देखो न दो-दो आइसक्रीम दिया है". श्रीमतीजी ने पूछा---" तो फ़िर पापा से मामा की शिकायत क्यों की ?"

" पापा से तो मैंने सिर्फ़ इतना कहा था कि मामाजी मुझे प्यार से चड्ढीलाल बुलाते हैं."

जब मेरा बेटा ही दो आइसक्रीम के बदले अपना ईमान बेच लिया था तो अर्थ का इससे बढकर अनर्थ क्या हो सकता था. इस तरह के छोटे-छोटे कमीशन के चक्कर में तो लोग देश तक से गद्दारी कर देते हैं, पिता-पुत्र के संबंध का मोल ही क्या है ?.उपर से श्रीमतीजी मेरी तरफ़ आंखों में क्रोध और दया भाव को मिक्स करते हुए देख रही थी. वह तनिक जोर से बोली---"क्या कहूं तुझे....अपने ही घर की खुशी तुमसे देखी नहीं जाती?...राजा को बेईज्जत कर घर भेजने जैसा अनर्थ करवाना चाहते थे मुझसे.?" तभी बीच में राजा आ टपका---" कौन सा अनर्थ करवाना चाहते थे बहना, मुझे बता.". मैंने हालात को सम्हालना चाहा---"मैंने चाय बनाने के लिये.....बोला तो बोली कि अनर्थ करवाना चाहते थे"

" जीजे... अपुन तेरे को समझा देता है......अभी दो बजे दिन में चाय का टाईम है क्या ? ऐसा बोल के तुम किसी औरत को टोर्चर करेगा तो सीधा फ़ोर-नाइन्टी के मामले में अन्दर जायेगा.......और तू चिन्ता मत कर बहना, मेरे ढाई किलो के हाथ की कलाई पर जो राखी बांधा है न तुमने...उसकी कसम कोई भी टोर्चर करे तो अपुन को बताना"

श्रीमतीजी राजा की बातों से ज्यादा ही उत्साहित हो रही थी. भाई के प्रति स्नेह ने आंखों मे सैलाब भी ला दिया था. वह भाइ के कलाई को हाथ में लेकर गाना गाने लगी-------

"भैया मेरे , राखी के बंधन को निभाना.

.लगा दे अपने जीजा को ठिगाना, ठिगाना"

अपनी बहन की आंखों में आंसू देखकर राजा की आंखों से अंगारे टपकने लगे. स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा तो दूर अब तो जान बचाना भी मुश्किल लग रहा था. अब आत्म-रक्षार्थ सच बोल देना ही ठीक था----

" ऐसी कोई बात नहीं है राजा. मैं चाहता था कि तुम गांव (बिहार) चले जाओ"

"ऐसा क्यों बोल रहा है जीजे. अपुन कुछ भी कर सकता है लेकिन गांव नहीं जा सकता"

"गांव क्यों नहीं जा सकते?"

"काहे कि अपने यहां का सरकार बदल गया है. नया सरकार में अपहरण और फ़िरौती का धंधा पूरा चौपट हो गया है. लालटेन बुझाकर लोग अब बिजली जलाता है. साला चोरी करना भी पोसिबुल नहीं रह गया है. उपर से पुलिस और कोर्ट इतना टाईट हो गया है कि जितना भी अपराधिक किसिम का जेन्टल्मेन लोग है उसे जेल में ठूस देता है. पहले का फ़ालतू लोग भी अब नौकरी करने लगा है. रैला भी निकालना बंद हो गया है. पहले रोड पे बाईक चलाता था तो फ़िलम के स्टंट जैसा लगता था, अब जब हेमा-मालिनी डोकरिया हो गयी है तब जाके रोड चिकना हुआ है. सबसे बङका प्रोबलेम तो एडुकेशन डिपार्टमेंट में हुआ है, जिस स्कूल में अपनी भैंसिया रहती थी उसमे टीचर लोगों को भेज दिया है आ बच्चा सबको सायकिल दे दिया है.सायकिल के चक्कर मे लङका आ लङकी लोग गाय बकरी चराना ही बंद कर दिया है. गाय-बकरी सब खुल्ला घूम रहा है---सारा फ़सल बरबाद हो रहा है. पहले फ़सल तो बचता था भले ही लोग गैया का चारा खा जाता था"



Monday, June 20, 2011

मानसून



एक अरसा गया कल वो आयी थी घर

वह छिटकती रही प्रेम के पात पर,

मैं हंसा जा रहा , वो बरसती रही.

मैं पिया जा रहा , वो तरसती रही.



एक मौसम वो थी खूब तरसा था मैं

प्रेम बूंदें बिना कितना झुलसा था मैं.

सोचा , बेवफ़ा अब नहीं आयेगी.

ये सूखी जमीं उसको क्यों भायेगी?

रात भर जिस्म से वह फ़िसलती रही.

मैं जमा जा रहा वह पिघलती रही.



पहले चांद को ढक अंधेरा किया

बन बिजली गजब वो बखेरा किया.

सोचकर रुक गयी वो मेरी चाहतें.

मैं था सोया हुआ दे गयी आहटें.

छम-छम बूंद सी वो छमकती रही.

प्यारी - पाजेब सी वो छनकती रही.

Wednesday, April 27, 2011

चुप्पी



बीच चौराहे पर दो-तीन गुंडों ने सेठ की गाङी रोक दी और अंधा-धुंध फ़ायरिंग की. सेठ वहीं ढेर हो गया. तभी किसी ने पुलिस को सूचना दी. पुलिस आयी और पूछताछ करने लगी. इंसपेक्टर ने कहा--- " बीच चौराहे पर किसी को गोली मारी गयी और किसी ने नहीं देखा ? ये कैसे हो सकता है ? कोई तो सच-सच बताओ कि गोली किसने चलायी." अपराधी तो वहां से भाग चुके थे पर किसी भद्र-जन ने अपनी चुप्पी नहीं तोङी. तभी एक अस्सी साल का बूढा सामने आकर कहा....."Gentleman such offens is niver committed  due to the violence of bad people but the silence of good people    (ऐसे अपराध गिने-चुने बुरे लोगों की हिसा की वजह से नहीं बल्कि ढेर सारे अच्छे लोगों की चुप्पी की वजह से होती है.)

Thursday, April 21, 2011

तुम दूर ही रहो.





मेरे निकट मत आना.

बेईमानी की बदबू से

दम घुटेंगे तुम्हारे.

चमकते चिकने चेहरे की

बदसूरत और टेढी-मेढी

झूठी रेखाएं

साफ़-साफ़ दिख जायेंगी.

भावनाओं और विचारों की

हत्या करनेवाले हाथ

खून से इस तरह रंगे मिलेंगे

कि निशान भी नहीं देख सकोगे

ईंसानों की भाग्य-रेखा का.

अपने छोटे से पेट के लिये

चट कर चुका हूं

कुरान की आयतों को.

छोटे से मांसल गुल्ली से

मूत चुका हूं

गीता के श्लोकों पर.

नहीं देख पाओगे

लाखों कोशिकाओं के बीच

की लम्बी दरारें.

नहीं झेल पाओगे

खूबसूरत मांसल जिस्म के

बीच की नर-कंकाल को.

बिल्कुल नहीं सह पाओगे

यह कि तुम

मेरे दिल में नहीं ठहर सकते

इसका कई बार पोस्टमार्टम हो चुका है.

Monday, April 18, 2011

सेक्स,प्यार,स्वाभिमान और पतन

सेक्स




विशाल पेंङ के

मोटे डन्टल के चारो ओर

हरी, परपोषी, अबला

लताओं का चिपक जाना

और धीरे-धीरे

वृक्ष के विशाल रस-भंडार को

चूस लेना.



प्यार



बूढे-घने दरख्तों के बीच

पतले युवा पेंङ का

संकीर्ण खाली जगह से

मूंह निकालकर

सुनहली किरणों को

कामुक होकर छूना.



स्वाभिमान



तना के निचले हिस्से

की झुकी हुई डालियों के

काट दिये जाने के बाद

अपना भविष्य जानते हुए भी

मुख्य सिरा का

उपर आसमान की ओर

बेअटक देखना.



पतन



विशाल पेङ की

खूबसूरत, गगनचुंबी

हरी पत्तियों का

सूखकर रंग बदल जाना

फ़िर कुछ ही देर में

स्वतः गिरकर

उबङ-खाबङ जमीन से

चिपक जाना

Wednesday, April 13, 2011

पंक को निर्मल करो रे

डा. बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकरजी के जन्म दिवस की पुर्व-सन्ध्या के अवसर पर मेरी रचना:-




सदियों से जो दलित बनकर

पैर को तेरे पखारा

तेरी जय में भी पराजित

तेरी हारों में भी हारा

आज उसके पग धरो रे

पंक को निर्मल करो रे.



फ़ूलों की भेंट हुई पुरी

नीरजों की हो चुकी पूजा.

अशक्त हैं कुछ अस्थियां

उन तन्तुओं में बल भरो रे

पंक को निर्मल करो रे.



भर चुके आंखों की प्याली

सुख दुखों के ही अमिय से

कुछ कटोरे रिक्त हैं जो

उनमे भी तुम जल भरो रे

पंक को निर्मल करो रे.



हुई अर्चना मां लक्ष्मी की

सरस्वती की वंदना भी

बिक रही बाजार बनकर

शीष उनपे नत करो रे

पंक को निर्मल करो रे.

Monday, March 14, 2011

मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१८ (व्यंग्य)



राजा ने अपना प्रवचन जारी रखा----"वोही हनुमान जब बङा हुआ तो रावन का लंका जो सोना का बना हुआ था, जलाकर राख कर दिया. यानि कि पीला-धन को काला-धन बना दिया. तब का रावण भले घमंडी था लेकिन कलियुग के रावण के माफ़िक काला धन नहीं रखता था इसलिये उसका लंका सोने का था. भले ही हनुमानजी ने रावण का पीला धन को काला धन में बदल दिया लेकिन उस टाइम का राम लंका के उस काला-धन को ईंडिया नहीं ला सका. अपुन उम्मीद करता है कि कलियुग का देव बाबा रामदेव स्विस बैंक में रखा हुआ काला-धन इंडिया ले आयेगा. वैसे अपुन हनुमानजी पे बोल रहा है तो एक बात बता देता है कि तब के राम और आज का रामदेव के बीच का मेजर डिफ़रेन्स येही है कि त्रेता का राम बल-बुद्धि और विद्या के धनी वानर पे भरोसा करता था जबकि कलियुग का बाबा रामदेव वानर के बदले दुष्ट-नर पर भरोसा करता है."



राजा को खुद नहीं पता था कि उसने रामचरितमानस से रामदेवचरितमानस की ओर टर्न ले लिया था. फ़िर भी सौ चूहे खाकर हज की यात्रा का निर्णय लेना ही बहुत बङी बात होती है.अपराधिक प्रवृति का व्यक्ति यदि प्रवचन दे रहा था तो यह बहुत बङी बात थी, भले ही वह भगवान राम के बदले बाबा रामदेव को ही क्यों न प्रवचन का विषय बना ले.उसका प्रवचन निरन्तर रहा-------" कलियुग का बाबा रामदेव कालाधन को पीलाधन तो बनायेगा ही. उपर से बाबा ये भी बोलता है कि अपुन के देश में जहां खुशहाली और समृद्धि का नाली भी नहीं बहता है वहां खुशियों की गंगा बहायेगा. शराब ,तम्बाकू , गुटखा के उत्पादन और प्रसार को रोकेगा. एक-एक आदमी के किडनी और लीवर को दुरुस्त करेगा. भले ही ये सब करते-करते करोङो बेईमानो का हार्ट ब्रेक कर जाये लेकिन लोक-सभा में सैकङो इमानदारों को जरूर पहुंचायेगा. यानी कि सीधी बात------


भ्रष्टाचार को शिष्टाचार पढायेगा

कालाधन को पीलाधन बनायेगा

विदेशी के बदले स्वदेशी चलायेगा.

विलेन्टाइन डे के बदले बसंत-पंचमी मनायेगा.

मल्लिका शेरावत को सलवार-सूट पहनायेगा.

अंग्रेजियत को हिन्दी सिखायेगा

राम-राज्य से रोम-राज्य भगायेगा."


तभी मेरा दस साल का बेटा टिंकू बोल पङा----"मामा प्रवचन सुना रहे हो या कविता गा रहे हो ?" राजा को भांजा का विरोध बर्दाश्त नहीं हुआ----" चुप रह चड्ढीलाल. तू क्या बोलेगा. तू भी सत्ता पक्ष के सांसद की तरह बात करने लगा है. अच्छी बात प्रवचन से कहूं या कविता गाकर.....बात सही है तो सही है.-----भक्तों---इसी तरह कलियुग के देवता बाबा रामदेव का भी छोटे कद का बच्चा जैसा लोग विरोध करता है कि बाबा योग के साथ-साथ राजनीति काहे को करता है. काहे को बेईमान लोगों के चेहरे का नकाब उठाता है. काहे को गङे मुर्दे को जमीन से निकालता है---लेकिन बाबा रामदेव अपुन के जैसे ताल ठोकता है. गङे मुर्दे को जमीन से निकालता है--पोस्टमार्टम करने को. ओ पोस्टमार्टम करेगा और जांच करेगा कि कुछ जिन्दा और मुर्दा लोग कैसे पुरे देश का किडनी और लीवर बर्बाद कर दिया. ओ तो गनीमत है कि अपुन के देश का हार्ट इतना मजबूत है कि अभी भी बोडी दुरुस्त काम कर रहा है. उपर से बाबा है तो बांकी पार्ट भी ठीक हो जायेगा. जब बाबा अपने पेट को सटकाता है तो उसका थ्री-डाइमेन्सनल पेट टू-डाइमेन्सनल प्लेन बन जाता है. जरूर ही ओ नेताओं और बेईमानों का बढा हुआ मल्टी-डाइमेन्सनल पेट को प्लेन बना देगा.अपुन अब आज का प्रवचन बंद करता है कल बाबा रामदेव के माफ़िक योगासन सिखायेगा"



लोगों के जाते समय भक्तों के चढावे से पूजा की थाल रुपयों से भर गयी थी. श्रीमतीजी, ससुरजी, सासू-मां, चिन्टी और खुद राजा उसे देखकर आत्म-विभोर हो रहे थे. मैं चाहकार भी खुश कैसे हो सकता था. जब से प्रवचन शुरु हुआ था मां लक्ष्मी घर में रोज पधार रही थी और सारा श्रेय मेरे साला राजा को मिल रहा था. मैं तो अपने घर में ही परायों सा महसूस कर रहा था. लेकिन आज मेरा बेटा टिन्कू भी नाराज दिख रहा था. उसने अपने दुख का राज मेरे सामने प्रगट किया---"पापा...आज सबके सामने मामाजी ने फ़िर से मुझे चड्ढीलाल कहकर पुकारा" . मेरे दिल में जल रहे आग को घी की जरुरत थी जिसे मेरे बेटे ने फ़्री में सप्लाई कर दिया था. राजा के प्रवचन को रुकवाने का एक मजबूत काट मुझे मिल गया था. मैंने टिंकू को समझाया ---- " अब देख बेटा....किस तरह मैं तुम्हारे मामा का प्रवचन भी बंद करवाता हूं और बोरिया-बिस्तर समेंटकर गांव भी भिजवाता हूं. उसने तुम्हारे साथ-साथ मेरे स्वाभिमान को भी ठेंस पहुंचाया है."



क्रमशः

Wednesday, March 9, 2011

प्रकृति-प्रियतमा



जब भी करता हूं प्रेमालिंगन

राज खोलती प्रकृति-प्रियतमा.

अपनी कानों से सुनता हूं

बात बोलती प्रकृति-प्रियतमा.



उसके यौवन को तो देखो

अल्हङ नदिया सी बहती है.

चांद समेट सौन्दर्य-पीयुश

कामुक दृष्टि-वाण सहती है.

जब भी करता हूं मैं ईशारा

तभी डोलती प्रकृति-प्रियतमा.



है ज्ञात नहीं उसकी ताकत

हजार भुजाएं फ़ैली है.

उसके रंग-रुप अपने हैं

चाल चलन अपनी शैली है.

प्रति-पल प्रेयस के प्रणय का

भाव मोलती प्रकृति-प्रियतमा.

जब भी करता हूं प्रेमालिंगन

राज खोलती प्रकृति-प्रियतमा.

Tuesday, March 8, 2011

औरत---बेटी या मां





पता चल गया होता

कि तू बेटी है

तो दफ़न कर दी जाती

भ्रुण में ही.

या पैदा होने के बाद

बचपन को खंरोच दिया जाता

और साट दी जाती

जलते हुए चुल्हे और काली बरतनों से.

जवान होते ही

बांध दी जाती

मर्यादा के खूंटे से

या फ़िर

जला दी जाती

दहेज के बदले इस तरह

की श्मशान तक

अर्थी के बदले धूआं पहुंचता.

फ़िर भी बच जाती तो

सुला दी जाती जीते-जी

संबंधों से निकले शूलों पर.

फ़िर भावनाओं

और तुम्हारे शरीर के साथ

हजारो बार खेला जाता.



उन तथाकथित मर्दों के हाथों

जो आज भी नहीं समझते

जो औरत पैदा हो रही है

वह सिर्फ़ दुनियां की

बेटी ही नहीं

मां भी है.

Monday, March 7, 2011

बीत मैं खुद ही रहा हूं.



काल को क्यों दोष दूं ?

बीत मैं खुद ही रहा हूं.



खंडों में बांटूं तो देखूं

काल यौवन के प्रवाह को.

जीवन के वे निशा-रात्रि

व्यथा के सागर अथाह को.

एक सी वह स्यामल काया

प्रीत मैं खुद ही रहा हूं.



गर काल के आकार होते

तो अतीत में वे न घुलते.

होते दृढ उसके चरण तो

निकट क्षण से वे न मिलते.

जन्म-मृत्यु के क्षणिक पथ का

रीत मैं खुद ही रहा हूं...

Thursday, February 17, 2011

सच और त्याग

सच


अश्वत्थामा मरा,

युदिष्ठिर सच ही कहा था.

तभी धर्म के रथ का पहिया

पाप भार से ईंच धसा था.



पुत्र प्रेम में गुरु द्रोण

हों मुर्छित सबके भाव यही थे.

मारे गये तब द्रोण धुरन्धर

पर वीरों के यह कर्म नहीं थे.



सच के भाव सुखद होते तो

द्रोण-पुत्र मरता वाणों से,

अर्जुन के वे पांच पुत्र फ़िर

बच जाते अपने प्राणों से.



त्याग



कहता कौन कुमाता जग में ना होती है.

क्यों न गले लगाकर कर्ण, कुन्ती रोती है.



फ़ेंक दिया सरिता में बहने जिवित जान को.

किया कलंकित नारी के ही स्वाभिमान को.



सचमुच त्याग किया जननी ने बलि चढाकर

पुत्र - कर्ण ने मां के भाव को और बढाकर.



कवच और प्राणों की कर्ण त्याग नहीं करता

तो वीर कौन्तेय बीच रण में ही कहीं मरता.



पराजित होता सत्य और कायरों की जीत होती.

फ़िर से जग में कोई कुन्ती कर्ण के लिये न रोती.

Monday, February 7, 2011

मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१७ (व्यंग्य)




इधर साला एक अजीब योजना पर कार्य कर रहा था. योजना क्या मैं तो कहता हूं साजिश रच रहा था कि किस तरह मेरी बची-खुची इज्जत को सुपुर्दे खाक किया जाये. मैंने उसके आने के साथ ही उसे बता दिया था कि चोरी, डकैती, अपहरण आदि व्यवसाय जो वह गांव में चलाया करता था ...नहीं चलेगा. कहने लगा----" जीजे , ये सब काम अपुन का प्रोफ़ेशन नहीं है. अपुन का प्रोफ़ेशन तो क्लर्क की नौकरी है जिससे उपरवाला अपुन को छप्पर फ़ाङ के देता है. एक नम्बर और दो नम्बर का इनकम तो अपुन को नौकरी से ही हो जाता है. बाहर का धंधा तो अपुन का शौक है जीजे. लेकिन अपुन महिन दो महिने के छुट्टी पे आयेला है तो किच्छु तो करेगा ?". मैने भी उसी के लहजे में समझाया----" आयेला है तो अच्छी बात है पर चोरी, डकैती, अपहरण ये सब इधर नहीं चलेला है. इधर घर के बांकी लोगों की तरह घर में ही रहना है भले है संयुख राष्ट्र के माफ़िक इटिंग मिटिंग और चिटिंग करते रहो ." वह मान गया----" ठीक है जीजे. अपुन घर से बाहर निकलेगा ही नहीं बट घर में फ़्री होके रहेगा....मस्ती करेगा...जो जी चाहे करेगा." मैंने फ़िर टोका---" नो मेरे घर में रहना है तो ओबामा की तरह रहोगे तो ठीक यदि ओसामा की तरह रहोगे तो मैं तुम्हें गलत काम करने से रोकने के लिये जरूरी स्टेप्स भी उठाउंगा और जरूरी कनुनी कारवाई भी

करुंगा ". मेरी बात पर वह अंगुठा दिखाकर यूं हंसने लगा जैसे वह सचमुच ओसामा बिन लादेन हो. मैंने भी किसी लाचार की तरह उसके सामने हाथ जोङ लिये..



वह भले ही विचार और भाषा की दृष्टि से अपराधिक प्रवृति का है लेकिन भावुक बहुत है. रोने लगा और कहने लगा----"जीजे अपुन एश्योर करता है कुछ भी गलत नहीं करेगा. आपके क्वार्टर के बाहर के खाली एरिया में एक मां का मंदिर बनायेगा और पूजा करेगा, गरीब पब्लिक को प्रवचन सुनायेगा." "प्रवचन ?"--- मेरे मुह से अचानक ही यह शब्द निकल गया. न ही राजा (मेरा साला) का आध्यात्म से कभी लगाव रहा है और न ही उसकी भाषा कभी डिसिप्लिन्ड रही है----" मैं तुमको प्रवचन के लिये अलाउ नहीं कर सकता." तभी श्रीमतीजी आकर चिल्लाने लगी---" क्यों अलाउ नहीं कर सकते ? तुम जो नेताओं की तरह आलतू-फ़ालतू का भाषण झाङते रहते हो , उससे तो अच्छा है कि राजा साधु-महात्माओं की तरह प्रवचन देगा". मैंने पूछा---"राजा प्रवचन देगा..? क्या बोलेगा?" अब जवाब देने के लिये चिंटीजी हाजिर थी-----" जो प्रवचन देगा वही निर्णय लेगा कि उसे क्या बोलना है...इस मामले में जीजू आपको दखल नहीं देना चाहिये". मैंने अपना स्टैंड रखा----

" मेरा मतलब है उनकी भाषा संयमित नहीं है.". तभी सासुमां मेरी श्रीमतीजी के कानों में फ़ुसफ़ुसायी----" प्रवचन की भाषा नहीं भाव देखे जाते हैं. राजा के विचार अच्छे हैं भाषा से क्या फ़र्क पङता है?." श्रीमतीजी ने अपनी माताश्री के फ़ूंक को आवर्धित स्वर में दुहराया. मैं समझ गया बहुमत साला के फ़ेवर में था. बहुमत यदि गदहे के साथ हो तो भी बहुमत का सम्मान करना ही पङता है. मैं कर ही क्या सकता था लेकिन सुप्रिम पावर यानी की ससुरजी यदि मेरी बातों का समर्थन कर देते और वीटो लगा देते तो बात अभी भी बन सकती थी.



ऐसा सोच ही रहा था कि ससुरजी आ टपके और बोलना प्रारंभ किया-----" किसी व्यक्ति की भाषा व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध है तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि उसे असंयमित माना जाये. मैं को अपुन या किया है को करेला है बोल देने मात्र से भाषा असंयमित नहीं हो जाती. अश्लील शब्द या गाली- गलौज नहीं करनेवाले प्रत्येक व्यक्ति की भाषा संयमित ही मानी जायेगी वशर्ते अपनी बातों से वह दूसरे को कष्ट न पहुंचाये. दूसरी बात प्रवचन देने का अधिकार या सुनने का राइट प्रत्येक व्यक्ति को है. तीसरी बात यह मामला आस्था और आध्यात्म से जुङा हुआ है इसके विरोध का सीधा अर्थ है आस्था को चोट पहुंचाना जो अमानवीय और दंडनीय है"-----ससुरजी के तीन बातों से ही मैं सब-कुछ समझ गया अन्यथा तीन के बदले वह तीस बातें भी सुना सकते थे. मैंने हामी भर दी. फ़िर भी बाद-विवादों से दूर रहने और मर्यादित भाषा का प्रयोग करने का आग्रह मैंने कर ही दिया. राजा बोलने लगा----" अपुन वाद-विवाद काहे को करेगा, अपुन राजनीति का टोपिक ही नहीं उठायेगा. स्विस बैंक से लाखो-करोङो रुपये लाने का बात छेङेगा लेकिन देश के भीतर करोङो-करोङो रुपये के काले धन के बारे में कुछ भी नहीं बोलेगा. अपुन देश के चन्द गिने-चुने भ्रष्ट लोगों का विरोध करेगा लेकिन निन्यानवे प्रतिशत इंडियन के दिमाग में घुस चुके भ्रष्टाचार के कीङे का जिक्र तक नहीं करेगा. देश के सबसे बङे भ्रष्ट अधिकारियों, कर्मचारियों, व्यवसायिकों--सबसे हस्ताक्षर करवा कर राष्ट्रपति को भेजेगा कि स्विस बैंक का काला धन वापस कंट्री के कालाबाजारियों को सौंप दें, "----कुछ रुककर फ़िर बोला----"अपुन राष्ट्रपति के पास ही लिस्ट भेजेगा.काहे कू ?...पुच्छो ." "राष्ट्रपति के पास ही क्यों भेजोगे.?"-----मैंने पूछ ही दिया. कहने लगा----" काहे कि अपुन जानता है कि अपुन के कंट्री में राष्ट्रपति का पोस्ट रबङ स्टाम्प होता है. इधर-उधर करके प्राइम मिनिस्टर के पास भेज भी दिया तो वो कौन सा कमाल कर देगा----वो भी तो पपेट (कठपुतली) है.हा...हा...हा...." .



अगले दिन पूजा के उपरान्त प्रवचन के लिये दरबार सजा दिये गये और मेरा साला राजा प्रवचन देने लगा----------" भक्तों. आज अपुन बजरंगबली के बारे में डिस्कस करेगा. जब ओ काफ़ी छोटा था उसी टाइम से एरोप्लेन के माफ़िक आकाश में फ़्लाइट मारता था. जहां खङा होता था उसी पोजीशन से बिना किसी हवाई-अड्डे के सेफ़ फ़्लाइट मारता था. आज के अविएशन डिपार्टमेंट के जैसे एक्सीडेंट नहीं होता था उससे. एक बार तो लम्बा फ़्लाइट मारके सूरज को ही पूरा का पूरा निगल लिया जैसे मिनिस्टर लोग पूरा का पूरा खजाना निगल लेता है....लेकिन उस समय का प्राइम-मिनिस्टर इन्द्र कठपुतली नहीं था जो सारा खेल देखता रहता. पगङी के बदले मुकुट जरूर पहनता था और कृपाण के बदले वज्र रखता था लेकिन किसी औरत के ईशारे पर नहीं चलता था. खुद राइट आदमी नहीं था लेकिन जेन्युन लीडर था---गलत बात उसे पसंद नहीं था. उसने बजरंगबली की ओर वज्र फ़ेंका. अब उसका वज्र केरोसीन आयल से तो चलता नहीं था जिसमें मिलावट होता, हनुमानजी के पिछुआरे में लगा और बेबी हनुमान वैसे ही बेहोश हो गया जैसे मंहगाई की मार से गरीब पब्लिक बेहोश हो जाता है. उसकी मदर को जब पता चला तो मत पूछो क्या हुआ. महगे लाल टमाटर की तरह दूर्लभ दिखनेवाले बजरंगबली के सामने आकर उसकी मां ऐसे रोने लगी मानो उसकी आंखों के सामने मंहगे प्याज काटकर डाल दिया गया हो. जो औरत हाइट पर बैठकर सिर्फ़ पियोर एयर पीया करती थी भ्रष्ट सिस्टम का पोल्युटेड वाटर पीकर रह गयी. आज की तरह बिना कोई इन्क्वायरी कमिटी बिठये इन्नोसेंट हुनुमान को पनिश कर दिया गया था".......मैंने देखा सभी श्रद्धालुओं की आंखें नम हो गयी थी.

क्रमशः

Wednesday, January 19, 2011

शिव के गीत

गीत-१, वह तेरी कहानी कहती है.



शिव तेरी जटा से गंगा की जो धारा बहती है, वह तेरी कहानी कहती है.

गिर पर्वत से सागर की लहरों से जो मिलती है वह तेरी कहानी कहती है.



कलकल धारा के शब्द नहीं

वह भाव हृदय के हैं तेरे.

आकार नहीं जल के होते

शायद श्वरूप हैं ये तेरे .

जग के पापों से भरकर भी जो निर्मल रहती है वह तेरी कहानी कहती है.

शिव तेरी जटा से गंगा की जो धारा बहती है, वह तेरी कहानी कहती है.



नहीं अलग होने का दुख

न ही मिलन की है खुशियां.

न ही सपनें नभ छूने के

है तल में ही उसकी दुनियां.

यमुना से पलभर के लिये जो संगम करती है वह तेरी कहानी कहती है.

शिव तेरी जटा से गंगा की जो धारा बहती है, वह तेरी कहानी कहती है.



कोई जो पथ उसका रोके

तो समझो उसका खैर नहीं

है इतनी विशाल उसकी छाती

है किसी जीव से वैर नहीं

मैलों से पीकर विष चुपचाप सहा जो करती है वह तेरी कहानी कहती है.

शिव तेरी जटा से गंगा की जो धारा बहती है, वह तेरी कहानी कहती है.



गीत-२, आज नहीं देखुंगी नाच तेरी भोले.



आज नहीं देखुंगी नाच तेरी भोले.

मेरी शपथ है जो आंख तुने खोले.



गरदन में तेरी है सांपों की माला

डरती बहुत है मेरी दुनियां आला

नांचोगे तुम तो छिप जाउंगी मैं

एक हाथ डमरु है एक हाथ भाला

तेरी पद-चापों से धरती भी डोले.

आज नहीं देखुंगी नाच तेरी भोले.



एक बूंद टपका तो जल जायेंगे सब

है कंठ तेरे या विष का है सागर.

खुली जो जटा तो खुलेगा खजाना

गंगा समेटे हो जैसे हो गागर.

आंखें हैं तेरी या आग के गोले.

आज नहीं देखुंगी नाच तेरी भोले.



शमसान में नांचते प्रेत सारे

कहते सभी हैं वे दास तुम्हारे

रुक जाती है तब हवा का भी बहना

जलता नहीं सुर्य छाते अंधेरे.

इससे तो अच्छा है और तु सो ले.

आज नहीं देखुंगी नाच तेरी भोले.



गीत-३, शिव पी के भांग भंगियाय गया.



मत पूछो आज क्या हाल भया

शिव पी के भांग भंगियाय गया.



एक चोर घुसा था मंदिर में

शिव पर गंगाजल डाल दिया.

संतुष्ट हुए भोले-शिव-शंकर

उसको धन का आशीष दिया.

भोले ने सबको सुलाय दिया

वह मूरत शिव की चुराय गया

शिव पी के भांग भंगियाय गया.



वह मूरत थी छोटी लेकिन

बढने लगी शिव की काया.

मूरत बढती थी कण-कण

हजार गुणा उसकी माया.

शिव भक्त के भाव चढाय गया

बुड्ढा इतना सठियाय गया

शिव पी के भांग भंगियाय गया.



वह बंद किया शिव को घर में

शिव का बढना फ़िर भी न रुका

वह चाहा शिव को नीलाम करे

पर मूरत न कोई खरीद सका

पागल बाबा खिसियाय गया

उस चोर को खुद में समाय गया.

शिव पी के भांग भंगियाय गया.



उस चोर ने जब आंखें खोली

खुद को शिव में ही वह पाया

जग शिव में कण-कण में शिव

माया में शिव-शिव में माया.

शिव चोर को साधु बनाय गया

उसे भक्ति का पाठ पढाय गया.

शिव पी के भांग भंगियाय गया

Friday, January 7, 2011

मैं,मेरी श्रीमतीजी और.............भाग-१६ (व्यंग्य)

चाहता तो नहीं था पर प्रतीक्षा जरूर कर रहा था उस घङी की जब मेरी साली और सालेजी पधारनेवाले थे.महिने भर पहले ही उनके आने का प्रोग्राम तय हो गया था, लेकिन जब दिल से इच्छा न हो और इन्तजार करना पङे तो महिने भर का समय मिनटों में कट जाता है. वे दोनों घर पर पधार चुके थे. पहले सालीजी का परिचय करवाता हूं. वह चिन्टी के नाम से जानी जाती हैं और सालेजी की संज्ञा राजा है. चिन्टी में मूलतः स्तनधारी वर्ग के लक्षण तो हैं ही ,उपर से परिस्थिति वश उभयचर और सरीसृप वर्ग के गुण भी परिलक्षित होते हैं. वह मोडर्न हैं और प्रगतिशील सोच रखती हैं. पर्दा-प्रथा के इतनी विरोधी हैं कि शरीर का बारह आना हिस्सा आसानी से दृष्टिगोचर हो जाता है. बांकी बचे शरीर के चौथाई हिस्से को भी इतने टाइट कपङों से ढकती हैं कि हवा का एक अणु भी उन हिस्सों को टच नहीं कर सकती. उनमें एक गुण यह भी है कि वह हर किसी से बात करती है. किसी को यदि भाव नहीं देती है तो नींचा भी नहीं समझती. खुले विचार की हैं....यही वजह है कि मैं थोङा सा डरा हुआ था. खूबसूरत लङकियों को गिद्ध की तरह देखना तो मर्दों का स्वभाव होता है. न ही मैं चिन्टी जी को अपने सौन्दर्य को ढकने की सलाह दे सकता हूं और न ही मर्दों के स्वभाव में परिवर्तन की आशा कर सकता हूं. सालीजी भी हैं मिलनसार स्वभाव की...जिसका गलत फ़ायदा उठाकर आस-परोस के लोग उनसे घुलने-मिलने की कोशिस करेंगे और ऐसे व्यवहार करेंगे जैसे वह पूरे मुहल्ले की साली हो...मैं कैसे न डरूं..?



आज सबेरे की बात है. मैं बिस्तर पर लेटा था .वह मोर्निंग टी लेकर आयी और मुझे जगाते हुए कहा---"गुड मोर्निंग जीजू....".मैं जगा तो लगा जैसे सपने देख रहा होऊं.इससे पहले रोज सबेरे एक सा चेहरा देखते-देखते थक गया था. नींद तो पहले भी खुल जाया करती थी लेकिन डर से. पर चिन्टीजी के नरम-नरम हाथों से गरम-गरम चाय के साथ मोर्निंग शेक-अप और विशेज सचमुच सपनों जैसा ही था. आंख खुली तो उनका खूबसूरत मेक-अप वाला चेहरा लाजवाब दिख रहा था. मैं तो देखते ही रह गया पर हाथ की ऊंगली चाय की तरफ़ बढने लगी...पर उसने झट से मेरी ऊंगली पकङकर अपनी ओर खींच लिया और प्यार से बोली----" पहले दो ग्लास पानी फ़िर चाय----और कल से दो के बदले तीन ग्लास पानी और नो चाय." वह इतने प्यार से बोल रही थी कि मैं मना नहीं कर सका. दो ग्लास पानी पी लेने के बाद पेट फ़ुटबाल की तरह लग रहा था. इससे पहले की वह पंक्चर होता सोचा खुद वाल्व को दवाकर प्रेशर कम कर लिया जाये. मैं फ़टाफ़ट चाय पीकर शौचालय की ओर निकलने लगा. वह बोली---" जीजू मैं मोर्निंग वाक करने जा रही हूं.." मैंने डरते हुए सवाल किया-----" मोर्निंग वाक इन आधे कपङों में...?" उसने निडर होकर सीधा जवाब दिया----"जीजू यदि पूरे कपङे पहनकर मोर्निंग वाक करुंगी तो आक्सीजन बोडी के भीतर कैसे जायेगा..?. मैं ज्यादा समझाता तो वह शायद और भी कपङे कम कर देती सो चुप ही रहा.

मैं जैसे ही फ़्रेश हुआ मन में एक डर सा पैदा हो गया. मुहल्लेवालों को अच्छी तरह जानता हूं. मैं फ़्रेश होकर पार्क की ओर निकल पङा. वह पार्क जो मोर्निंग के समय नोर्मली खाली ही रहता है आज मुहल्ले के लोगों से खचा-खच भरा हुआ था. चिंटीजी आगे-आगे ज्यादा स्पीड से वाक कर रही थी बांकी मुहल्लेवाले धीरे-धीरे टहल रहे थे. खुद धनन्जय बाबू तबले जैसी तोंद लेकर इस प्रयास में तेज चलने की कोशिस कर रहे थे कि किसी तरह चिन्टी के नजदीक पहुंच सकें. वह पांच सौ मीटर परिधि के पार्क के पांच चक्कर लगायी और वापस घर चली गयी. मैंने धनन्जय बाबू से पूछा---" आप कबसे मोर्निंग वाक करने लगे..?". उन्होंने शरमाते हुए कहा---" बस आज यूं ही मन किया".. मैं तो समझ ही रहा था कि आज सुबह में टहलने का उनका मन क्यों किया. कुछ देर के बाद मैं भी घर पहुंचा और गुस्से को खुद में समेटते हुए चिन्टीजी से पूछा---" चिन्टीजी ये तमाशा करने की क्या जरुरत थी..?". वह मुस्कुराते हुए बोली---"जीजू सुबह में टहलना तमाशा थोङे ही होता है.". मैंने समझाया--- " टहलना तमाशा नहीं होता लेकिन मुहल्ले के सारे जेन्ट्स जो आपको फ़ोलो कर रहे थे वह तमाशा जरूर था.. आपको नहीं पता है कि ये जेन्ट्स (मर्द लोग) वो वाले जेन्ट्स (राक्षस) हैं . ये सभी आपको घुर-घुर कर देख रहे थे.." वह बोली----" जीजू अब मैं बच्ची नहीं हूं सब बात जानती हूं....लेकिन मैं तो इन सबसे...आपसे भी मोर्निंग वाक करवा रही थी. यह हेल्थ के लिये बहुत जरूरी है."



मैं भी मान गया चिन्टीजी की सोच को. मैंने कहा----चिन्टीजी सचमुच आप बहुत प्यारी हैं. बहुत बढिया सोचती हैं. आपके विचारों को मैं दाद देता हूं.". खुले तौर पर प्रशंसा सुनकर वह थोङा गुस्सा और थोङी खुशी को मिक्स करते हुए बिना आंसू और दर्दवाली स्टाइल में रोते हुए सिर्फ़ इतना बोली---- " जी.........जू.........आप भी न.." तब तक श्रीमती जी आ गयीं-----" क्यों तंग करते हो मेरी चिन्टी को..?"

मैंने कहा---" अरे मैं तो प्रशंसा कर रहा था...मैं तो इनकी सोच को दाद दे रहा था...". वह बिगङ गयी--- " देखो जी....किसी को भी दाद ,खाज, खुजली देने की जरुरत नहीं है..ये फ़ैलनेवाली बिमारियां होती है."

...."क्या तुम भी सोचती हो...मैं ये दाद नहीं वो दाद दे रहा था "

...." ये दाद...वो दाद क्या होता है. दाद तो एक ही होता है न..?"

...." डार्लिंग मुझे सफ़ाई तो देने दो कि मैं कौन सा दाद दे रहा था ?"

...." सफ़ाई होती तो तुम्हें दाद थोङे ही होता....और किसी तरह हो भी गया तो उसे बांटने की जरुरत नहीं है. दाद की दवा ले आओ".

तब तक ससुरजी भी आ गये और वह अपनी प्रतिकृया न दें यह कैसे हो सकता था---"किस को दाद हो गया?" उनको उत्तर देने से अच्छा था कि मंच छोङकर नेपथ्य की ओर निकल जाना. मैं वहां से खिसक लिया..श्रीमतीजी कहने लगी----"आपके दामादजी को दाद हो गया है". चिन्टी समझाने लगी---" अरे दीदी, जीजू मेरे विचार से खुश होकर मुझे दाद दे रहे थे.". ससुरजी बोले---" खुशी से या नाराज होकर दाद का प्रसार करना अच्छी बात नहीं है. यह बहुत ही खतरनाक बिमारी है जो भ्रष्टाचार की तरह जब फ़ैलती है तो फ़ैलती ही चली जाती है. सरकार ने भी हैजा , चेचक , पोलियो आदि संक्रामक रोगों से बचाव के लिये लोगों को टीके लगवाती है. एड्स जैसी जानलेवा बिमारी भले ही बढती चली गयी हो अवेयरनेस तो करवा ही रही है. सर्दी जुकाम जैसी रोगों से बचाव के लिये स्वयं मलायका अरोङा जैसी हस्तियां झंडू बाम बन जाती है. उनके विचारों से तो ऐसा लगता है कि यदि किसी को एक बार भी छींक आ गयी तो वह छींकनेवाले डार्लिंग के सामने झंडूबाम बनकर प्रस्तुत हो जायेंगी. उनका नृत्य तो इतना एश्योर कर ही रही है. तभी मीडियावाले लगातार दाद की तरह फ़ैलनेवाली बिमारी करप्शन पर ध्यान फ़ोकस न करते हुए सारा कन्सेन्ट्रेशन विश्व के सबसे बङे प्रजातंत्र के छोटे-मोटे छींकों पर उङेल रही है. दाद और करप्शन को भले ही पब्लिसीटी नहीं मिल रही है फ़िर भी अन्दर ही अन्दर ये बिमारियां इतनी फ़ैल चुकी है कि पूरा का पूरा गुप्त प्रक्षेत्र ही डेन्जर जोन में आ गया है. देश के महान नेतागण और तथाकथित भद्रपुरुष खुद ही इन रोगों से ग्रस्त हैं सो इन्हें निर्मूल करना तो काफ़ी मुश्किल है...हां यदि वे खुलकर अपनी बिमारियों को दिखायें अर्थात पारदर्शिता लायें तो संभवतः प्रसार तो रुक ही जायेगी."



ससुरजी का भाषण जारी रहा----" जहां तक दाद और करप्शन के रोकथाम की बात है तो सबसे पहले रोगी दुष्कर्म करना बंद कर दें जब तक स्वयं इन रोगों से छुटकारा न मिल जाये...ये रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में स्पर्श होते ही तेजी से फ़ैलता है. दूसरी बात सरकार यह नियम बना दे कि दाद और करप्शन बाले हिस्से पर हाथ फ़ेरने के बाद बिना हाथ धोये सिस्टम के दूसरे हिस्से को टच न करें. ऐसी ही गलती के कारण दाद और करप्शन दिल्ली के राजपथ से मुम्बई के दलाल स्ट्रीट तक फ़ैल गयी. जब मीडियावाले खबर लेने पहुंचे तो निर्दोष होते हुए भी बेचारे इन रोगों के चपेट में आ गये. प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ में जंग क्या लगी कि देखते ही देखते कोई भी खंभा सोलिड न रहा. बढिया होगा सरकार दाद और करप्शन के रोकथाम के लिये कोई टीका इजाद करवाये. इसी टीके से बांकी सभी बिमारियां काबू में आ जायेगी."



जैसे ही ससुरजी ने अपना शोर्ट स्पीच बंद किया, लोकसभा की तरह तालियों की गङगङाहट से मेरा रेलवे क्वार्टर गूंजने लगा. मैं तो दूसरे कक्ष में माथा पीट रहा था. ससुरजीने मुझे माथा पीटते देखकर मेरी श्रीमतीजी को कहा---" दामादजी से कहो कि पहले हाथ को साफ़ पानी में साबुन से धो लें फ़िर माथा पीटें क्योंकि दाद और करप्शन जैसी बिमारियां हेड तक जब पहुंचती है तो पूरे सिस्टम को बरबाद कर देती है फ़िर आदमी हो या देश बचाना मुश्किल होता है.."



क्रमशः