Wednesday, December 30, 2009

शुभ वर्ष बीस-दस

शुभ वर्ष बीस-दस मंगल वर्ष बीस-दस नूतन वर्ष बीस-दस

नई आशाएं, नयी योजनायें, नये प्रयास, नयी सफ़लता, नया जोश, नई मुस्कान, नया वर्ष बीस-दस

समृद्धशाली, गौरवपुर्ण, उज्ज्वल, सुखदायक, उर्जावान, विस्मयकारी, स्मृतिपुर्ण नव वर्ष बीस दस।

जीवन-मरण की सीमाओं मे बंधा हुआ नगण्य सा प्राणी मानव, काल-चक्र की द्रुतगति मे वीते वर्ष की परिधि बिंदु पर सांस लेता हुआ मानव, कालदेव की इच्छा-मात्र के अनुरूप अपने-अपने कर्तव्य एवम अधिकार के झंझावातों मे उलझा हुआ मानव और अन्य प्राणियों की भांति अपनी लघुतर आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कठिनतम प्रयास करता हुआ मानव का जीवन नव वर्ष बीस दस मेमंगलमय हो.

कालदेव नव वर्ष बीस दस के प्रत्येक क्षण आपके मुख-मंडल को दिवसदेव सुर्य की भांति तेजपूर्ण और कोमल पुष्प के समान प्रसन्नचित रखें. समय की धारा तरंगमयी सागर के लहरों की तरह आपके हृदय को तरंगित करें, रात्रि-राजन चंद्रदेव की तरह निर्मल करें, अमृतमयी गंगाजल की भांति पवित्र रखें और मदमस्त निर्झर-जल की भांति निश्छल बनायें--यही मेरी सुभकामना है.


अरविंद
डिपो सामग्री अधीक्षक
भंडार नियंत्रक कार्यालय
दक्षिण पूर्व मध्य रेल्वे
बिलासपुर, छत्तीसगढ

Wednesday, December 16, 2009

मेरी मां ने मुझे कहा था............,


(मेरी यह कविता मुझे जन्म देनेवाली मां इन्दिरा और नयी प्रेरणा देनेवाली मां निर्मला के लिये समर्पित है.मेरे ये शब्द उन सभी मांओं को समर्पित हैं जिन्होंने मातृत्व को नयी परिभाषा दी है.नारी निश्चित रुप से जननी है,अपने आप मे अन्य की तरह सद्गुणों से युक्त और हज़ारो अवगुणों के होते हुए भी वह निर्मला है.वह पहली और अंतिम पाठशाला है.उसके शब्दों के सागर को समेटना असंभव है.टुकडों मे ही सही सागर को समेटने का दुस्साहस कर रहा हुं.यदि प्रिय पाठकों को यह पसन्द आये तो आगे बढने का आदेश दें यही इस कविता की सार्थकता होगी.)
मेरी मां ने मुझे कहा था............,


मैने मां से सीख लिया था,
होश मे रहकर जीवन जीना.
फ़िर खुशियां लौटी जीवन मे,
नहीं मैं पहले जैसा दीना.

नारी जननी जीवमात्र की,
रुप भले ही अलग अलग हैं.
सौन्दर्य वही, प्रकृर्ति भी है,
वही चमेली वही जलज है।


कभी प्रसव पीडा वह सहती.
कभी बहन बन डोली सजती.
पत्नी बनकर सुख वह देती.
बेटी लक्ष्मी बन कर आती।


मेरी ईच्छा आदेश मान तू,
ला दे मेरे घर मे बहू तू.
जैसे ही पाया मैं ईशारा,
घर लेकर आया मैं दारा।


सपने मां के सत्य हुए थे.
क्षण मे ही सहस्त्रो फ़ूल खिले थे.
मां के मुख की रक्तिम आभा,
देख देव भी गौण पडे थे।


देखा मां के मुखाकाश पर,
तत्क्षण एक मेघों की टोली.
हर्ष, विषाद, संशय, चिन्तायें
भावनाओं के रंगों की होली.

मां ने मेरा हाथ पकडकर
निज मंदिर मे लेकर आयी.
वह मुझको एक पाठ पढाने,
अति सुन्दर एक कथा सुनायी.